उदरोळ – ग्रामीण समाज की कथायें
डाॅ. अरुण कुकसाल
उदरोळ, गढ़वाली ग्रामीण समाज के सामाजिक प्रतिबिम्बों की सफल अभिव्यक्ति है.
संदीप रावत, प्रवक्ता (रसायन विज्ञान) के पद पर राइका घद्दी घण्डियाल (बडियारगढ़), टिहरी गढ़वाल में कार्यरत हैं। रसायन विज्ञानी संदीप रावत द्रव्य और पदार्थ के साथ – साथ अपने लोकसमाज की प्रकृत्ति और प्रवृत्ति की भी बेहतर समझ रखते है। संदीप का संपूर्ण लेखन गढ़वाली समाज के अन्र्तमन की कथा और व्यथा की सशक्त अभिव्यक्ति है। संदीप प्रायः गढ़वाली भाषा में लिखते हैं। उनकी कवितायें गढ़वाली समाज की बिडम्बनाओं और विसंगतियों पर चोट करती हुयी नये आयामों को उजागर करती हैं। उनके लेखन की मूल विषेषता यह है कि वह सर्वत्र सकारात्मकता के भावों को लिए हुये होता है। संदीप का काव्य संग्रह ‘एक लपाग’ इन्हीं संदर्भों में चर्चित रहा है। गढ़वाली कविताओं के साथ – साथ गद्य लेखन में भी संदीप रावत की उल्लेखनीय भूमिका है। उनका गद्य लेखन एक समाज विज्ञानी की भांति तथ्यों, विश्लेषणों और शोधपरख संस्तुतियों को लिए हुए है। ‘गढ़वालि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा’ और ‘लोक का बाना ’ (गढ़वालि आलेख / निबंध सग्रह) गढ़वाली भाषा के महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य में शामिल है।
गढ़वाली कहानी लेखन में अपनी उत्साहजनक उपस्थिति को दर्ज कराते हुए उत्कर्ष प्रकाषन, मेरठ से संदीप रावत की ‘उदरोळ’ कृति का प्रकाशन हुआ है। कथा संग्रह में संदीप ने गढ़वाली समाज के निपट ग्रामीण जीवन को हू – ब – हू कुशल बातपोष के जरिये उतार दिया है। प्रथम दृष्टि तो यह किताब लोक साहित्य की वाचक परपंरा को पुर्नजीवित करने में सफल हुयी है। किस्सागोई / बातपोष की तरह लेखक अपने आस-पास के जीवन में उपजे और फैले प्रसंगों को रोचकता से पाठकों के सम्मुख रखता जाता है। किताब में 34 किस्से कथा के अमली जामा में विद्यमान हैं। सभी कथानक ग्रामीण परिवेश को लिए हुए हैं। साथ ही यह भी खासियत है कि वे वर्तमान गढ़वाली समाज के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में जहां – तहां मौजूद एवं सक्रिय हैं। इन किस्सों को पढ़कर तुरंत पास – पड़ोस का कोई न कोई व्यक्ति पात्र बनकर मन – मस्तिष्क में सजीव हो जाता है। संदीप की कहानियों के पात्र इस बात को रेखांकित करते हैं कि जो सजा – सजाया सामाजिक जीवन व्यवहार हमें दिखाई देता वास्तविकता उससे कहीं भिन्न होती है। इन अर्थों में किताब के किस्से-कहानियां में हमारे सामाजिक परिवेश की पड़ताल बखूबी मौजूद है। संदीप के पिरोये किस्से आम आदमी के मनोविज्ञान को भी उद्घाटित करते हैं।
वास्तव में ‘उदरोळ’ कथा संग्रह गढ़वाली ग्रामीण जीवन के विविध अनुछुये पक्षों की अभिव्यक्ति है। इनमें अपनी विरासत और संस्कृति के प्रति आत्मीय लगाव है तो दूसरी ओर मानवीय मूल्यों को बचाये रखने का संदेश है। समाज में चतुर और चालाक लोग कैसे अपनी हकूमत का डंका बजवाते हैं, परंतु आखिर में सही और सच को तो सामने आना ही होता है। लेखक ने अपनी सृजनशीलता से हर कहानी में कोई न कोई सकारात्मक संदेश जरूर दिया है। गढ़वाली लोकोक्तियों, कहावतें, तुकबंदियों ने कथा संग्रह के किस्सों को रोचक और आत्मीय बनाया है।
वर्तमान दौर में गढ़वाली में मात्रात्मक रूप में जितना लिखा जा रहा है, उतना पहले कभी नहीं रहा होगा। और ऐसा भी लगता है कि हमारी पीढ़ी के बाद भी शायद ही गढ़वाली में इतना ज्यादा लिखा जायेगा। इस दृष्टि से आज का गढ़वाली भाषा में घका – पेल लेखन का दौर है। पर इस संपूर्ण लेखन में कितना पढ़ा और गुना जा रहा है इस ओर सर्वत्र चुप्पी है। यह चिंतन – मनन का प्रश्न है कि गढ़वाली भाषा जवान हो रही और आने वाली पीढ़ी के आचरण में कितना महत्व और प्रभाव रखती है। संदीप रावत का लेखन इन्हीं सदर्भों में गम्भीरता से मुखरित हुआ है। उनका गढ़वाली भाषा का लेखन आम लेखकों की तरह हिन्दी का गढ़वाली रूपान्तर नहीं है। वरन उसमें मौलिकता है। वे शब्द और भाव जो हिन्दी में ढूंढ़े नहीं मिलते हैं वे संदीप रावत के लेखन में गढ़वाली भाषा के माध्यम से निरंतर प्रवाहमान हैं। संदीप का लेखन पाठकों पर प्रमुखतया इसी बिंदु पर विशिष्ट पहचान एवं प्रभाव छोडता है। संदीप रावत गढ़वाली के बेहद संभावनाशील लेखक हैं। एक उपलब्धियों भरा साहित्यिक सफर उन्होंने तय किया है पर मंजिल अभी दूर है। गढ़वाली भाषा की समृद्धि और लोकप्रियता में संदीप रावत का लेखकीय योगदान नयी सफलताओं के मुकाम को हासिल करेगा। ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। एक उम्दा किताब ‘उदरोळ ’ के लिए संदीप जी को साधुवाद और शुभ – कामनायें।
पुस्तक- ‘उदरोळ‘ (गढ़वाली कथा संग्रह)
लेखक- संदीप रावत
मूल्य- रु. 175 मात्र
प्रकाषक- उत्कर्ष प्रकाशन, कंकखेड़ा, मेरठ