परियों के देश की यात्रा- 02
डॉ. अरुण कुकसाल
वो मोड़ आ ही गया, जिसका इंतजार था-
डांगचौरा, दुगड्डा, मालूपाणी, जखंड के बाद अमोली बैंड पर हम पहुंचे हैं। लम्बी और संकरी घाटी से बाहर आकर पहाड़ की इस धार में हवा की खुली फरफराहट चारों ओर है। पीछे छोड़ आये धुधंले वातावरण की घुटन और गर्मी से व्याप्त उदासी से यहां पर आकर निजात मिली है। अमोली बैंड की इस धार पर एक भव्य द्वार है, जिससे होकर एक ऊबड़-खाबड़ और पतली सी पगडंडी अमोली गांव की ओर है।
‘द्वार की विशालता की तरह ही यदि पगडंडी भी दुरस्त होती तो ज्यादा अच्छा था।’ विजय का कहना है। ‘सरकारी बजट भव्य द्वार के लिए आया होगा उससे जाने वाली ऊबड-खाबड़ पगडंडी के लिए नहीं।’ सीताराम बहुगुणा ने इस पर अपनी बात कही है। इस धार के ठीक सामने चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित चन्द्रबदनी मंदिर (समुद्रतल से 2277 मीटर ऊंचाई) दिखाई दे रहा है। आद्य शक्त्ति देवी भगवती स्थानीय रूप में मां चन्द्रबदनी के नाम से प्रतिष्ठापित है। चन्द्रबदनी इस क्षेत्र की इष्ट देवी है। महत्वपूर्ण है कि, भारत में देवी के कुल 51 सिद्ध पीठों में चन्द्रबदनी एक प्रमुख सिद्धपीठ है।
अमोली बैंड के यात्री विश्राम शेड के आस-पास घास-लकड़ी के दो खूबसूरत छप्परों के नीचे चाय-पानी के साथ प्लम, आडू, आम, खीरा और कुछ अन्य पहाड़ी उत्पादों की दो दुकानें हैं। चीड़ के छूतों के कई ढ़ेर आस-पास ही हैं। पूछने पर पता लगा कि ₹ 10 से लेकर 20 तक में ये शो पीस के बतौर आसानी से बिक जाते हैं। इन दोनों युवा दुकानदारों के चेहरे पर यह भाव विराजमान है कि ‘ये लोग तो यहीं के हैं, इसलिए, उनसे कोई भी सामान को क्यों खरीदेगें? फिर भी, हम सबका ग्रुप फोटो खींचने का अनुरोध उनमें से एक ने सहर्ष निभाया है। आज के दौर में यह कार्य भी धर्म का हो गया है।
अमोली बैंड के बाद कांडीखाल, पौखाल और फिर है जाखधार। पौखाल से जाखधार की धारो-धार वाली सड़क पर चलते हुए गुम्बदाकार खैट पर्वत (समुद्रतल से 10500 फीट ऊंचाई) का पूर्वी भाग दिखने लगा है। इस पहाड़ और पार के उस पहाड़ की तलहटी में भिलंगना नदी के दोनो किनारे हैं। जाखधार के ठीक नीचे पीपलडाली के पास भिलंगना नदी का प्रवाह क्षेत्र है। भिलंगना नदी के ऊपर बने पीपलडाली पुल को पार करके हमें प्रतापनगर-लम्बगांव वाले क्षेत्र में स्थित खैट पर्वत की ओर जाना है।
जाखधार से दांई ओर घनसाली-बूढ़ाकेदार और आगे वाली सड़क टिहरी बांध को छूते हुये नई टिहरी नगर की ओर है। जाखधार से लगभग 20 किमी. आगे भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम से बना टिहरी बांध स्थित है। जाखधार, गडोलिया, भागीरथीपुरम, नई टिहरी नगर, टिहरी बांध के मुख्य छोर इसी तरफ हैं।
टिहरी बांध के दूसरे छोर पर प्रतापनगर और लम्बगांव वाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र की बिडम्बना यह है कि टिहरी बांध से यह प्रत्यक्ष तो कम अप्रत्यक्ष तरीके से बहुत प्रभावित हुआ है। मसलन, टिहरी बांध के कारण इस क्षेत्र की अधिकांश जगहों को जाने की दूरी अधिक हो गई है। बांध के कारण अब लम्बी दूरी तय करना इस क्षेत्र के निवासियों के लिए मजबूरी है। इस क्षेत्र में आने-जाने के लिए भागीरथी नदी वाला डोबरा-चांठी पुल अथवा भिलंगना नदी के ऊपर बने पीपलडाली पुल को पार करना होता है।
पीपलडाली की जिस चाय की दुकान में हम बैठे हैं, वहां से भिलंगना नदी प्रवाहित नहीं वरन ठहरी हुई नदी नजर आ रही है। जिसमें, जीवंतता के बजाय बैचैनी की कुलबुलाहट है। काफी ऊपर तक उसके दोनों किनारों के सूखे रोखड़ में कहीं-कहीं सीढ़ीदार खेतों और भवनों के अवशेष अभी भी अपनी उपस्थिति का प्रमाण दे रहे हैं। उनकी मूक उपस्थिति यह घोषित कर रही है कि अपने चंद फायदे के लिए हमने-तुमने क्या-क्या खोया है?
भिलंगना नदी के दोनों ओर के दरकते पहाड़ों के जिस्म से मिट्टी विदा होती जा रही है। निश्चित रूप में यह प्रक्रिया धीरे-धीरे ऊपरी हिस्सों जहां अभी हरियाली है में भी बढ़ेगी। विजय और भूपेन्द्र ने भिलंगना नदी के इस हिस्से के 10-12 साल पुराने फोटोग्राफ्स मोबाइल से ढूंढ निकाले हैं। तब यह क्षेत्र इतना रेतीला नहीं था। आज रेत के भीमकाय टीले भिलंगना नदी में और उसके आस-पास बने हुए हैं। जिसमें, नदी का पानी धीरे-धीरे रिसता जा रहा होगा। इस रिसने की प्रक्रिया में जब आने वाले समय में भिलंगना नदी में प्रर्याप्त पानी ही नहीं रहेगा तो फिर कहां रहेगा बांध और कैसा बिजली का उत्पादन?
‘भाई सहाब, मुझे याद आ रहा कि उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान उत्तराखण्ड क्रांति दल के नेता दिवाकर भट्ट ने खैट पर्वत पर अनशन भी किया था।’ विजय ने अचानक विषय से इतर पूछा। ‘हां, 15 दिसम्बर, 1995 से दिवाकर भट्ट के साथ सुन्दर सिंह चौहान भी खैट पर्वत में अनशन पर बैठे थे। इस पर मेरी मित्र अमिता डोभाल रतूड़ी ने रोचक टिप्पणी की है कि उस अनशन के दौरान दिवाकर भट्ट जी की बुद्धि को आंछरियों ने थोड़ा हर (अपहरण) लिया होगा, तभी तो वे राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड सरकार में मंत्री होते हुए कुछ भी सार्थक काम नहीं कर पाये थे।’ मैं कहता हूं।
‘हमें कोल गांव में विद्यादत्त पेटवाल जी के होम स्टे में पहुंचना है।’ भूपेन्द्र ने दुकानदार से पूछा है। ‘वो सामने दिख तो रहा है, कोल गांव और पेटवाल जी का होम स्टे।’ दुकानदार ने भिलगंना नदी पार दिख रहे गांव की ओर इस तरह इशारा किया कि जैसे वाकई, बिल्कुल पास है, कोल गांव। ‘कितना किमी. होगा यहां से?’ सीताराम बहुगुणा ने जानना चाहा।
‘पीपलडाली से कोल गांव 15 किमी. है। पीपलडाली पुल को पार करके कुछ किमी. आगे चलकर दांई ओर की सड़क से रजाखेत, भटवाडा के बाद कोल गांव है। पीपलडाली से सीधे आगे वाली सड़क लम्बगांव, प्रतापनगर, सेम-मुखेम और उत्तरकाशी की ओर है।’ दुकानदार ने तसल्ली से बताया है।
‘भाईसहाब लोगों, आजकल खैट की तरफ बाघ लगा हुआ है। उसने अभी कोई वारदात तो नहीं की पर खतरा तो हुआ ही। अच्छा रहेगा कि आप अंधेरा होने से पहले कोल गांव पहुंच जांय। जरा, जल्दी कर लो, वैसे ही आप लोगों ने देर कर दी है, यहां अंधेरा झप्प (तुरंत) से होता है। और यही टेम बाघ के इधर-उधर निकलने का होता है।’ दुकान में बैठे सज्जन ने चाय के साथ बीड़ी का एक लम्बा कश लेते हुए हमें नेक सलाह दी है।
‘भाई, आपने तो हमको डरा ही दिया’ भूपेन्द्र ने कहा तो मुस्कराते हुए, पर दिल में जरूर धक्क तो हुई ही है। ‘अरे, डरने की कोई बात नहीं। बस गाड़ी के शीशे और गाने के टेप बंद ही रखना’ वह व्यक्ति मुस्कराते हमें विदा कर रहा है। ‘उस आदमी ने सही बोला था कि यहां रात झप्प से होती है।’ गाडी की लाइट खोलते सीताराम ने कहा है। ‘वो तो ठीक है, पर लगता है कि पीपलडाली से अपनी ही धुन में चलते हुए हम खैट पर्वत की ओर के मोड़ से भी काफी आ गए हैं। उस दुकानदार ने पीपलडाली से कुछ ही किमी. आगे जाने को कहा था। अब कितना किमी. आगे ये वो बताना और हम पूछना भूल गए।’ मैंने आशंका जाहिर की है।
‘आपकी बात बिल्कुल सही है, भाईसहाब, गाडी को वापस मोडो। ये ध्यान तो गाडी चलाने वाले ड्रायवर को रखना चाहिए। हम तो यात्री हैं, और वो भी बड़े सहाब जैसे।’ बहुत कम बोलने वाली राकेश ने सीताराम से चुश्की लेते हुये कहा है। हमें विश्वास था कि पीपलडाली से सीधे आगे चलकर इस सड़क से दांई ओर की तरफ जहां से खैट पर्वत की सड़क होगी वहां पर कुछ सूचना बोर्ड आदि दिखेगा। पर ऐसा कुछ नहीं मिला, लिहाजा एक लम्बी दूरी तय करने के बाद वापस आना सभी को अखरने लगा है।
पीपलडाली की ओर वापस आते हुये थोड़ी ही दूर चले थे कि (अब बांये ओर) एक पतली सड़क दिखी तो मित्रों में काफी ना-नुकर के बाद तय हुआ इसी पर चला जाय। परन्तु, थोड़ा आगे बढ़े ही तो सामने बड़े से गेट पर बढ़ा सा ताला नजर आया है। साफ जाहिर है कि यह निजी सड़क है। ‘मैं पहले ही कह रहा था कि ये झाड़-झंकाड वाला रास्ता चलन में नहीं है, किसी की जिद्द ने हमें परेशान कर दिया अब इतनी संकरी सडक पर गाडी बैक कैसे करूं? सीताराम का इशारा राकेश की ओर है।
‘बाहर भी नहीं निकल सकते हैं, इस वीराने में जंगली जानवरों का डर है और सांप भी हो सकता है, यहीं कहीं।’ विजय ने मजाक में कहा जरूर पर हिर्र तो सभी को होने लगी है। ‘मरता क्या नहीं करता?’ को चरितार्थ करते हुए किसी तरह गाडी बैक करके मेन सड़क पर आकर, आगे कुछ ही दूर चले कि वो मोड़ आ गया है जिसका इंतजार था। याने, रहस्यमयी खैट पर्वत की ओर का रास्ता…..
यात्रा जारी है….
अरुण कुकसाल
फोटो- विजय पाण्डे
यात्रा के साथी-
विजय पाण्डे, भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, राकेश जुगराण