आंकड़ों पर जिन्दा कृषि
महावीर सिंह जगवान
गेहूँ के दाने से पौध, पौध के बाद बाली और अनगिनत गेहूँ के दानो के ढेर यह प्रक्रिया अति सरल लगती है.
जबकि सुनियोजित सुब्यवस्थित शसक्त श्रम के साथ उपयुक्त वातावरण की परिणति से यह सब सम्भव है, यहाँ बुआई के लिये मौसम सीजन की प्रतीक्षा है, बीज के लिये रखे गुणवत्तायुक्त गेहूँ की सतत और सुनियोजित ब्यवस्था, मृदा परीक्षण कर जरूरी पोषक तत्वों का समावेश है, खेत की अच्छी जुताई और बीज डालने का तरीका है, अंकुरण के लिये वर्षा और नमी की जरूरत है समय पर पानी और हेर देख मे ब्यय श्रम का समावेश है जिसके परिणाम स्वरूप सफल उत्पादन संभव हो पाता है, इस उत्पादन से कृषि क्षेत्र की उत्पादकता के सूचकांक को मापा जाता। उत्पादकता ही वह महत्वपूर्ण विन्दु है जिसे निश्चित करना या जिसके प्रति जबावदेह बनने के उपरान्त ही कोई छोटा या बड़ा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
एक बड़े पुल के निर्माण की परिकल्पना को आर्केटेक्ट से लेकर बड़े इन्जीनियर के साथ तकनीकी, पूँजी, बड़ी मशीने और कुशल श्रमिक से लेकर सबसे निचले स्तर तक के श्रमिकों की संयुक्त बौद्धिक श्रम, मानसिक श्रम और शाररिक श्रम की परिणति से ही मजबूत और शसक्त पुल का निर्माण होता है यह इन सभी सहभागियों की संयुक्त उत्पादकता है। उत्पादकता ही मुख्य धुरी है जिससे उत्कर्ष की किरणे निकलती हैं, उत्तकर्ष उजाले और सम्मपन्नता का वह पुँज है जिससे हर अंधेरे कोने तक उजाला पहुँचता है, दीनता और हीनता का नाश होता है।
अट्ठारह वर्ष के पहले पड़ाव पर खड़ा उत्तराखण्ड राज्य, उत्पादकता के अभाव मे संकुचन और कर्ज की ओर बढ रहा है जो राज्य के स्वर्णिम भविष्य के हित मे कतई नहीं। राज्य के वो सभी संस्थान जिनकी उत्पादकता प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से राज्य की आर्थिकी को सबल करती है उनमे निसन्देह या तो थकावट है या दृढइच्छा शक्ति का अभाव या विजन की शून्यता या संसय या रिजल्ट न देने की जिद। उत्तराखण्ड की भौगोलिक परिस्थितियाँ विकट हैं लेकिन जैव विवधता और प्राकृतिक संशाधनो की समृधता विकटता को सहजता की ओर बढाने की सामर्थ्य रखती है।
उत्तराखण्ड मे भारत सरकार के बड़े संस्थान हैं जिनमे बहुत अधिक संस्थानों का वनो, पर्यावरण, कृषि, खनिज तेल, सेना, भूगर्भीय संरचनाऔं का अध्ययन, आदि बड़े बजट के संस्थान हैं। राज्य सरकार के भी विकास का चोला ओढे सैकड़े के आस पास बड़े बजट के विभाग। आश्चर्य इस बात का इतने बड़े संस्थान अपनी उत्पादकता क्यों नहीं दे पा रहे हैं, जबकि इस राज्य मे साक्षरता नब्बे फीसदी के सूचकांक को छू रही है, पिच्चहत्तर फीसदी युवा हैं और नवोदित राज्य होने के कारण शुरूआती भारी सब्बसिडियों की वर्षा हो चुकी हो। सतही विश्लेषण कर आप बहुत सरलता से यह स्पष्ट बूझ सकते हैं सिस्सटम कितना अनुउत्पादक बन गया है और आज अपने लिये ही बोझ बन गया है यदि स्थितियाँ नही बदलेंगी तो बोझ तले दबा सिस्टम आम जनमानस के हितों की कैसे रक्षा करेगा।
कुछ वर्ष पहले हम जिले के मुख्य कृषि अधिकारी को मिले यह जानने की कोशिष की दालों के उत्पादन की स्थितियाँ क्या हैं महोदय ने आँकड़े देखे और कहा इस साल तीन फीसदी कम दालें हुई हैं, जबकि जो हमारी सूचनायें थी अस्सी फीसदी दालों का उत्पादन घटा है, हम भौंचक्के रह गये कैसे एक जिम्मेदार सिस्टम कागजी आँकड़ों मे जमीनी सच्चाइयों को छिपाकर अपने विभाग की उत्पादकता को बढा रहा है, मोटे अनाज का आँकड़ा भी हर साल बढ रहा है जबकि हम स्पष्टत: कह सकते हैं राज्य बनने के बाद मोटे अनाज की उत्पादन मे चालीस फीसदी तक की गिरावट आई है। हाँ कृषि शसक्तीकरण के नाम पर आत्मा नाम से एक बड़ी परियोजना चल रही है लेकिन जमीनी बदलाव नहीं दिखते, बड़ा सवाल कृषक कृषि विभाग को स्पष्ट नही समझ पाया, कृषि विभाग दून और नीति घाटी मे फर्क नही देखते, जिम्मेदार मंत्रालय अपनी माथापच्ची नही करना चाहता, प्रगति कागजो पर स्वर्णिम युग की ओर बढते दिखा रही है स्पष्ट है विभागीय उत्पादकता नगण्य। यह सवाल कृषि से लेकर तमाम उन विभागों संस्थानो का है जिनके जिम्मे विकास की मसाल है।
बड़ा सवाल यदि सभी उत्पादकता खो रहे हैं तो उत्पादकता की चमक जा कहाँ रही है और वह कौन सा सिस्टम बन गया है जो खोखला होते जा रही ब्यवस्था को चमचमाती ब्यवस्था होना दिखा रहे हैं।
औसतन विकास की सभी संस्थाऔं विभागों मे कर्ज यानि विश्व बैंक की योजनाऔं का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रभाव है, जो संस्थान अपने देश के धन से बीमार हो गये वो विदेशी धन से अधिक दिन नही टिक पायेंगे,नब्बे फीसदी विदेशी धन आधारित परियोजनायें निम्न गुणवत्ता के कारण प्रभावी समय मे ही समाप्त हो जा रही हैं। जमीनी मूल्यांकन और जबाबदेही के अभाव ने सिस्टम को लकवा मार दिया है जो उत्पादकता सिर्फ कागजों मे ही दे सकता है।
प्रत्येक नागरिक को शिक्षा, स्वस्थ्य, भोजन, आवास और रोजगार के अवसरों की उपलब्धता उसे अधिक उत्पादक बनाती है वह राष्ट्र की महत्वपूर्ण कड़ी है, जबकि सरकारों संस्थानों की उत्पादकता से ही उसके अधिकारों कर्तब्यों और अवसरों का हित निश्चित है। और अधिक बारीकी से देखने पर स्पष्ट होता है राज्य से कई गुना अधिक उत्पादक राज्य के लोग हैं, जो दूर महानगरों से लेकर विश्व के कोने कोने मे अपने शाररिक और बौद्धिक श्रम से अपनी उत्पादकता का लाभ राज्य और सुदूर हिमालय को दे रहे हैं, समय रहते इनकी उत्पादकता को राज्यों की उत्पादकता का लाभ नही मिलेगा तो पलायन बढेगा, विषमतायें बढेंगी। शसक्त राष्ट्र और राज्य को प्रजा से अधिक उत्पादक होना अपरिहार्य है इसी की परिणति राष्ट्र और राज्य के लोग स्वयं उत्पादकता का अनुसरण कर राष्ट्र और राज्यों को उत्कर्ष के लिये प्रेरित करते हैं।
ये लेखक के विचार हैं