आवारगी – 4 – फतेह पर्वत की ओर
विजय भट्ट
सुबह का वक्त है। सूर्योदय होने वाला है। आज आसमान साफ नीले रंग का दिखाई दे रहा है। सामने गहरी हरी रंगत लिये शंकुकार देवदार के घने जंगल, जंगल के उपरी हिस्से में पचास साठ फिट उचें देवरारू के वृक्षों की चोटियों पर ताजे बिखरे हुये बर्फ के धवल कण मानो जैसे इन पेड़ों ने अपने उपर सफेद चादर ओढ़ ली हो, ताजी बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियां, दूर दिखाई देता जल प्रप्रात, नीचे कल कल बहती नदी, उगते सूर्य से स्वर्णिम आभा लिये हिमालय पर्वत के धवल शिखर ऐसे लग रहे थे जैसे मानो प्रकृति आज यहां अपना संपूर्ण श्रंगार कर निखने यौवनमयी रगों के साथ हमारे सामने आ गई हो। होटल के बहार एक कुर्सी पर बैठा काफी देर तक इस मनोरम दृश्य को निहारता रहा। चिड़ियों की चहचहाट चारागाह जा रहे जानवरों के गले में बंधी घटिंयों की मधुर आवाज, पीठ पर कंडी में गोबर की खाद लादकर अपने खेतों की ओर जाती पहाड़ी महिलायें, वातावरण को जीवंतता प्रदान कर रही हैं।
चाय पीने के लिये हम दोनों उपर सड़क पर आ गये। दुकाने अभी बंद हैं। एक दो चाय के होटल के दरवाजे अधखुले थे। यहां दादी अपने नाती नतिनों को स्कूल के लिये तैयार कर रही हैं और बच्चों की अम्मा भीतर दुकान में कामकाज शुरू करने की तैयारी कर रही है। हमने चाय के लिये पूछा तो जबाब हां में मिला। ये नेपाली मूल के लोग हैं जो यह होटल चला रहे हैं। होटल लकड़ी का बना है। गैस चुल्हे पर चाय का पानी उबल रहा है। परांठों के लिये उबले आलू से भरावन तैयार किया जा रहा है। स्टील के गिलासो में गर्म गर्म चाय हमारे हाथों में आ गई। चाय पीकर हम अपने कमरे में आ गये।
आज तालुका जाने का प्रोग्राम है। सांकरी से तालुका लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर है। हम तैयार होकर उपर तालुका जाने वाली सड़क पर आ गये। जहां सुबह की चाय पी थी वहीं हमने नाश्ता किया। सांकरी से तालुका के लिये जीप चलती हैं, पर प्रकृति के नजारों को पैदल चल कर बेहतर ढंग से देखा जा सकता है, इसलिये यहां से हमने पैदल चलने का मन बनाया और निकल पड़े तालुका के लिये। सड़क पर युवा ट्रैकर का एक ग्रुप मिला जो पतंजलि हरिद्वार से आया था और केदारकांठा जाने की तैयारी कर रहा था। यहां से केदार कांठा भी जाया जाता है जो दो दिन का ट्रैक है। आज कल युवाओं के बीच यह ट्रैक काफी पापुलर हो गया है। देवदार के घने जंगलों के बीच महक भरे वातावरण में पैदल चलना एक सुखद रोमांटिक एहसास कराता है। उपर पहाड़ से आते गाढ़ गदेरे झरने पहाड़ के सौन्दर्य में चार चांद लगा देते हैं।
सांकरी से चलते ही कुछ दूरी पर गोइमा खड्ड आता है, इसके बाद अलारा खड्ड फिर दूसरे खड्ड। उपर से आने वाले पहाड़ी गदेरे जो सड़क पार करते हुये नीचे नदी में जा रहे हैं उन्हें यहां खड्ड कहा जाता है। सड़क बन रही है। सड़क के उपर पत्थर की रोड़ी बिछायी हुई है। थोड़ी दूर जाने के बाद रास्ता कच्चा है, बारीश की वजह से कुछ ज्यादा ही खराब है। सामने का दृश्य मनोरम है। बुरांश का जंगल शुरू हो गया। लाल रंग वाले बुंराश के फूल खिले हुये हैं। बुरांश के खिले हुये फूलों से यह जंगल और भी खूबसूरत लग रहा है। आगे मेपल ट्री फोरेस्ट है। सड़क पर कई रंगों के चमकदार पत्थर भी मिल रहे हैं। कुछ अच्छे से लगने वाले पत्थरों को उठाकर हमने अपने बैग में रख लिया।
आगे गिंयांग गाढ़ है। इस पर लकड़ी के स्लीपर लगा कर पार करने के लिये कच्चा पुल बना है। यहां से तालुका तीन किलोमीटर की दूरी पर है। चारों तरफ प्रकृति द्वारा दिये गये अमूल्य उपहारों को निहारते हुये हमारे कदम आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ रहे थे। कमर में रस्सी बांधे और हाथ में दरांती लिये मेहनतकश पर्वतीय महिलायें जंगल की ओर जा रही थीं। पहाड़ में महिलायें निर्भीक सहासी मेहनती होने के साथ साथ पारिवारिक आर्थिकी की मुख्य धूरी है। घरेलू काम करने के साथ साथ खेती व पशुपालन में भी महिलाओं की मुख्य भूमिका होती है। जंगल में घास लेने के लिये जा रही इन महिलाओं से हमने बात करने की कोशिश की। ये तालुका से थी और नाश्ता आदि कर जंगल में जा रही हैं, ये इनके रोजमर्रा के काम का हिस्सा है। दोपहर तक सिर पर बोझा लादे घर लोट आयेंगी। इनसे बातचित कर हम आगे की और बढ़ चले।
आधा घण्टे बाद हम तालुका पहुंच गये। यहां तक छोटी गाडी के लिये सड़क बनी है आगे जाने के लिये पैदल ही चलना पड़ता है। तालुका हर की दून जाने वाले यात्रियों का एक पड़ाव है जहां से यात्री भोजन आदि कर आगे की यात्रा पैदल तय करते है। तालुका में एक छोटा सा बाजार है जिसमें राशन की दुकानों के साथ खाने पीने के होटल है। वन विश्राम गृह के साथ यहां गढ़वाल मंडल निगम का पर्यटक आवास गृह भी है जो पहले नही था जब 1987 में मैं यहां आया था। बाजार भी पहले से अधिक बढ़ा हो गया है। कुछ पक्की दुकाने बन गयी हैं। ढाटमीर का पोस्टआफिस भी यहां पर है। कुछ लोग दुकान के बाहर चाय पी रहे हैं, भीतर दाल भात खाया जा रहा है। कुछ मर्द लोग जगह जगह समूह मे बैठ कर गपिया रहे हैं। पीठ पर सामान लादे खच्चर आ रहे हैं। ये हर की दून से यात्रियों का सामान ढोकर यहां आ पहुंचे हैं। यात्री पीछे आ रहे होंगे।
वन विश्राम गृह के गेट पर ताला लगा है पर लोग ताला लगे गेट के पीछे मैदान में बैठै हुये हैं। इसी गेट के बगल में एक सार्वजनिक नल लगा है जहां से हर की दून जाने के लिये पैदल मार्ग शुरू होता है। हम भी दिवार फांद कर फोरेस्ट गेस्ट हाउस के प्रांगण में चले गये। साल 1987 में हमने इसी प्रांगण मे हमने सोने के लिये अपने टेंट लगाये थे। तब यहां न कोई गेट था और नही बाउण्ड्री वाल, शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधायें भी नही थी। बाजार भी छोटा ही था। आज काफी कुछ बदल गया है। हमने कुछ देर वहां खडे़ रहे। सन 87 में यहां बिताये गये समय की हर घटना हमारे मष्तिक के स्मृति पटल पर सामने आ गयी मानो कल की ही घटना हो। इन सब यादों को ताजा करते हुये हम पिछले सैंतीस साल के अंतराल में हुये बदलाव को देखते रहे।
कुछ देर बाद हम इस मैदान से बाहर आ गये। खाने के लिये कमल के होटल में गये। कमल भी नेपाली मूल का है जिसका पूरा परिवार मिलजुल का यहां यह ढाबा चला रहा है। होटल में लकड़ी के बेंच पर कुछ लोग बैठे हुये है, चुल्हे पर खाना बन रहा है। यह जानकर कि खाना तैयार होने में अभी समय लगेगा क्योंकि एक बार का बना खाना खत्म हो गया है, हम बगल के दूसरे होटल में खाना खाने चले गये। बाहर खड़े थे कि भेड़ों का एक बड़ा झुण्ड आता दिखाई दिया । लगभग एक हजार से उपर भेड़ बकरियां होंगी, तेजी से आगे उछल कूद करते हुये दौड़े चले जा रहे थे। इनके साथ इनके दो तीन पालक मुख से सीटी सी बजाते हुये इनको नियंत्रण सा करते हुये तेजी से आगे पीछे साथ चल रहे थे। इतनी तेजी से आठ दस हजार फिट की उंचाई पर चलना इन भेड़पालकों के स्टेमना और अभ्यास को दर्शाता है। भेड़ पालन यहां की मुख्य इकोनोमी है।
इस उंचाई पर सर्दी से बचने के लिये पर्वतीय लोगों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े इन्ही भेड़ों की उन से तैयार होते हैं और खाने के लिये मांस भी। आज तालुका के बाजार में पशु चिकित्सा विभाग की एक एंबुलेंस भी आई हुई है शायद कुछ दवा आदि बांटने। दोपहर का भोजन हमने कर लिया था। शाम हो चुकी थी। इस बार हम तालुका तक ही आये थे हर की दून के लिये नही। अब वापस सांकरी चलने की तैयारी हैं। पैदल नही गाड़ी पर चलेंगे। एक जीप यात्रियों को लेकर सांकरी जा रही थी। जीप के पीछे के हिस्से में सामान भरा पड़ा था। मैं व इन्द्रेश पीछे सामान के उपर पसर गये। शुरू में लगा कि कैसे यह सफर तय होगा यह हिस्सा चारों तरफ से पोलोथिन से ढका गया है और यहां रखा गया सामान पीठ पर चुभ रहा है। चलती गाढ़ी में हमने पोलोथिन खोल दिया था धीरे धीरे सड़क पर जीप के उछलने से बैठने की जगह स्वतः ही बन गई। आध पौन घंटे मे हम सांकरी पहुंच गये। हम सांकरी के होटल मेराकी में आ गये। कुछ देर आराम करने के बाद बाहर निकले। मेराकी के बगल में एक महिला जिसका नाम राम कली है, अपने छोटे बच्चों के साथ खड्डी पर भेड़ की उन से कपड़ा बुन रही है। हमने उनके कपड़ा बनने के पूरे हुनर को देखा और कैमरे में कैद भी कर लिया।
कमल की पत्नी आज जंगल से गुच्छी तोड़ कर लायी थी। गुच्छी एक जंगली मशरूम परिवार की सब्जी है जो उच्च हिमालय क्षेत्र में उगती हैं। यहां नेपाली महिलायें गुच्छी को लाकर सुखाती हैं फिर व्यापारी अच्छे खासे दामों पर इन्हें खरीदता है। अन्य कामों के अतिरिक्त यह भी इनकी आय में वृद्धि करता है। कमल ने आज हमारे लिये गुच्छी की सब्जी बनायी है। अपने जीवन में मैने आज तक कभी गुच्छी नही खाई थी बस यह सुना था कि वह काफी मंहगी होती है। आज रात हमने कमल के घर गुच्छी का स्वाद भी चखा जो उसने स्वयं अपने हाथों से हमारे लिये बनायी थी। सब्जी वाकई बहुत स्वदिष्ट थी। हम खाना खाकर वापिस मेराकी आ गये। अपना सामान पैक कर लिया था क्योंकि कल अगली सुबह वापिस देहरादून जाना था। सामान पैक कर हम सो गये। सुबह हम दैनिक कार्यों से फारिक होकर वापिस आने के लिये तैयार हो गये। बचन सिंह हमें विदाई देने आ चुका था। सुबह की चाय पी और बचन सिंह बाय करते हुये हम देहरादून की ओर लोट चले।
नोट:- इस पूरी यात्रा को मैने अपने यू ट्यूब चैनल ‘‘घूमक्कड़ चालदा‘‘ पर भी अपलोड किया है। आप इस यात्रा के विजुवल्स को यूट्यूब चैनल पर जाकर भी देख सकते हैं। इस चैनल का नाम है:- ghumakkad chalda
(विजय भट्ट साथ में इन्द्रेश नौटियाल )