आवारगी -1- जब देहरादून से पैदल निकल पड़े
विजय भट्ट
बात साल 1987 की है। पीठ पर लदे पिट्ठु में अपनी जरूरत का सामान बांधे भारत की जनवादी नौजवान सभा के 6 युवा साथी देश की एकता अखंडता के नारे लगाते हुये देहरादून के पल्टन बाजार से निकले थे। इन युवाओं ने बाजार का घ्यान अपनी ओर तो खींचा ही था साथ में अचानक से सूचना पाकर जिले की एल आइ यू भी अचंभित सी होकर हरकत में आ गई थी। यह उत्तरकाशी व टिहरी जिले के सुदूरवर्ती क्षेत्र में जन जागरण के लिये निकाली जा रही पद यात्रा का शुरूआती दिन था। सुनील कैंथोला, राकेश पंत, अनिल बिष्ट, सुनील गैरोला, इन्द्रेश नौटियाल और मैं स्वयं इस यात्रा दल के सदस्य थे। साथी अनिल बिष्ट अब हमारे बीच नही रहे, वे कम उम्र में ही काल के ग्रास बन गये। साथी अनिल बिष्ट को याद करते हुये अपनी पुरानी स्मृतियों को याद कर ताजा करते हुये यह यात्रा वृतांत प्रिय साथी अनिल बिष्ट को समर्पित है। इस पद यात्रा में शामिल अपने दिवंगत साथी के लिये यही हमारी पुष्पांजलि है।
यात्रा के पहले दिन देहरादून से चलकर कैंम्टी के उपर गांव में रात्रि विश्राम किया था। मसूरी के लाइब्रेरी चौक पर सीपीएम उत्तर प्रदेश राज्य कमेटी के सचिव शंकर दयाल तिवारी और उस समय के देहरादून पार्टी के जिला सचिव कामरेड विजय रावत हमें विदाई देने के लिये आये थे। हमारे पास खाना बनाने के लिये बर्तन राशन की व्यवस्था थी और सोने के लिये स्लीपिंग बैग तथा टैंट की भी। पानी वाली जगह की तलाश कर टैंट लगाना, लकडी इकठ्ठा कर चुल्हा जलाना खाना बनाना हमारे रोज के काम का हिस्सा था। अगले दिन सुबह कैंम्टी से युमुना पुल, नैनबाग डामटा होते हुए यमुना पार कर देर शाम तक लाखामंडल गांव में पहुंच गये। लाखामंडल देहरादून जिले के आदिवासी जौनसार क्षेत्र में आता है। उस समय लाखामंडल अपने प्राचीन मंदिर के साथ खेत खलिहान युक्त पूर्ण रूप से ग्रामीण परिवेश वाला गांव हुआ करता था। खेतों में ही टैंट लगाये। गांव के प्रधान जी भी हमसे मिलने आये थे। काफी गर्मागर्म विचार विमर्श भी हुआ था। खाना खा कर हम सबने लंबी तान ली।
अगले दिन सुबह यात्रा का तीसरा दिन था। दिन भर चल कर रात को पुरोला पहुंच गये। यह उत्तरकाशी का रवांई क्षेत्र है। हमने यहां रात्रि विश्राम किया और अगले दिन आगे कि लिये यात्रा शुरू की। हम जरमोला धार की तरफ जा रहे थे। घाटी में नीचे की ओर मनमोहक रामासिरांई के हरे भरे खेतों ने हमारा मन मोह लिया था। रमासिराईं की घाटी अपने स्वादिष्ट लाल चावल के लिये प्रसिद्ध है। इन हरे भरे खेतों का मोह हम छोड़ नही पाये और उपर से सीधा नीचे की ओर घाटी की तलहटी में उतर आये, और वहां से पैदल चलने लगे। काफी आगे चलकर हम फिर मुख्य मार्ग पर आ गये और शाम होते होते मोरी पहुंच गये थे। उस समय मोरी उत्तरकाशी जिले का एक ब्लाक था आज यहां तहसील भी है। मोरी में टोंस नदी के किनारे हमने अपना ढेरा डाल दिया। अगली सुबह हम नैटवाड की ओर आगे बढ़े।
यात्रा का चौथा दिन था। दिन में और शाम के समय हम स्थानीय लोगों से मिलकर स्थानीय समस्याओं को लेकर चर्चा करते थे और उनके बारे में कुछ जानने की कोशिश भी करते थे। शाम होते होते हम सांकरी पहुंच गये थे। उस समय सांकरी में दो तीन दुकाने होती थी आज तो बढ़ा बाजार बन गया है। शाम हो चुकी थी। हमने सांकरी में न रूक कर आगे तालुका जाने का फैसला लिया और चल पड़े घनघोर जंगल वाले रास्ते। उस समय सांकरी तक ही बस सेवा उपलब्ध थी आगे का रास्ता सभी को पैदल ही तय करना पड़ता था। आज तालुका तक छोटी गाड़ी जाती है। हम रात में तालुका पहुंच गये थे, शायद आठ या नौ बज रहे होंगे।
हमने वहां वन विश्राम गृह के साथ लगे छोटे से मैदान में अपना शिविर लगा दिया था। उस समय वहां हर की दून जाने वाले यात्रियों की संख्या बहुत ही कम होती थी, हमें रास्ते में केवल पर्वतारोहियों का एक दल मिला था जो स्वर्गारोहणी का एक्सपीडीशन पूरा कर लौट रहे थे। हम खाना बनाने की तैयारी करने लगे कि तभी वहां विजय नाम के एक ठेकेदार हमारे पास आये। हमें देखकर हमारे बारे में जानकर वे बहुत खुश हुये। ठेकेदार साहब तुरंत अपने कमरे में गये और पका हुआ मीट का कटोरा हमें दे गये। ये हमारे लिये बड़ी दावत थी। रात के अंधेरे में पतीले में मीट गर्म किया जाने लगा तभी उसमें उड़ते हुये कीट पतंगे आकर गिर गये थे जिनका पता हमें खाना खाते वक्त चला था। भूख तेज थी और खाने का कोई दूसरा विकल्प नही था। हम पतंगों को चूसकर बहार फेंक देते और बाकी सब खा जाते। मजबूरी आदमी से सब कुछ करवा देती है। खाना खा पीकर हम सो गये।
सुबह उठे तो हमारे टैंट के आस पास स्थानीय लोग बैठे दिखे। वे हमें अपनी शारिरिक तकलीफ बताने लगे और हमसे उन तकलीफों की दवा चाहने लगे थे। ग्रामीण हमें डाक्टर कह कर संबोधित भी कर रहे थे। उनमें से अधिकतर चेहरे मोहरे से स्वस्थ लग रहे थे पर सभी हमसे सर दर्द पेट दर्द आदि आदि की दवाई की मांग कर रहे थे। कारण वहां कोई स्वास्थ सुविधा उपलब्ध नही थी इसलिये ये ग्रामीण भविष्य के लिये दवा चाह रहे थें। एक साल के भीतर जरूरत के हिसाब से दवा का सेवन कर लेने और जरूरत न पड़ने पर फेंकने की हिदायत देते हुये हमने अपने दवाई के डिब्बे से उन्हें कुछ जरूरी दवाईयां दे दी। कुछ बीड़ी तम्बाखू की मांग भी कर रहे थे और बच्चे मिठाई लेमचूस की। बच्चों को टाफियां भी दी जितनी हमारे पास में थी। अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। रात को मीट देने वाले सज्जन सुबह फिर हमसे मिलने आये और वापसी का प्रोग्राम जाना साथ ही वापसी में बकरा खिलाने का वायदा कर दिया। ग्यारह बारह बजे के लगभग हम ओसला के लिये चल पड़े। ओसला गांव में दुर्योधन का मंदिर देखा था। वहां बंगले के चोकीदार से मिलकर सीमा आ गये। रात सीमा के बंगले में गुजारी और अगले दिन हर की दून के लिये निकल पड़े।
हमारी यात्रा का छठा दिन था। शाम होते होते हम हर की दून पहुंच गये थे। वहां वन विभाग का एक छोटा सा बंगला था जहां हम ठहरे थे। थके हारे कब सोये और कब सुबह हो गई पता ही नही चला। सुबह उठकर बहार आये तो सामने का मनमोहक नजारा देखने को मिला। ज्यूँदार ग्लेशियर, स्वर्गारोहणी पर्वत चोटी बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियां यूं लग रही थी कि इन्हें अभी छू कर आया जा सकता है। चाय नाश्ता किया बैग में बिस्कुट नमकीन वगैरह रखी और चल पड़े ग्लेशियर को छूने। सामने ज्यूंदार ग्लेशियर यूं लगा था कि इसे छू कर दोपहर का भोजन करने वापिस बंगले पर लोट आंयेगे। चलते चलते दोपहर हो गई पर घाटी की खत्म नही हो रही थी। रास्ते में भोज के बड़े बड़े पेड़ मिले। यहां नेपाली लोग झाोपड़ी बना कर रह रहे थे। ये लोग वहां धूप आदि जड़ी बूटियां खोदने के लिये जाते हैं। चलते चलते शाम होने को आ गई पर बर्फिले पहाड़ जो बंगले से नजदीक लग रहे थे वे उतने ही दूर होते जा रहे थे। सामने बड़े बड़े बोल्डर वाले विशाल मुरैन पर चढ़ गये। आगे तीखा ढलान था। हम वहीं बैठ गये।
सुनील कैंथोला और सुनील गैरोला आगे ढलान पर उतर गये। हम उन्हें रोकने के लिये चिल्लाने लगे पर उन्होंने सुना ही नही। अधिक जोर से चिल्लाने पर पत्थर टूट कर गिरने लगे वा वे दोनो तेजी से आगे चलते ही जा रहे थे। हमें उस समये वे युधिष्टर की तरह लग रहे थे मानो जैसे उन्हें जिंदा जी ही स्वर्ग पर जाना हो। हम चार लोग वहीं बैठ गये। हमदर्द साथियों के दिये गये बिस्किट वगैरह खाये और विचार करने लगे कि क्या किया जाय। तय किया कि वापिस बंगले पर चला जाय वे दोनो तो बंगले पर लौट ही आंयेगे, तब तक हम सबके लिये खाना बना लेंगे। हम बंगले पर लौट आये और खिचड़ी पका कर उनका इंतजार करने लगे। रात हो गई उन दोनों का कोई अता पता नही। मन में बुरे से बुरे विचार आने लगे। क्या किया जाये, घर वापिस कैसे जायेंगे घर वालों को क्या जबाब देंगे आदि आदि। हमने लालटेन को बहार दरवाजे की खूंटी पर लटका दिया ताकि रात के घनघोर अंधेरे में लालटेन की रोशनी से कैंथोला को बंगले की दिशा मिल जाये। हुआ भी ऐसा ही आधी रात बीत जाने के बाद दोनो सुनील बंगले में आते दिखाई दिये तो सांस में सांस आई और हम सबके मन को बढ़ी राहत मिली।
तब ठण्डी हो चुकी खिचड़ी को खाया गया। अगले दिन बढ़े से पत्थर पर वाल राइटिंग की और वापिस लौट चले। तालुका के रास्तें में ठेकेदार जी ने भेड बकरों के झुण्ड से एक बकरा खरीद लिया जिसको अनिल बिष्ट अपने कंधे पर उठा कर तालुका तक लाया था। बीच बाजार में बकरा काटा गया और पकाया गया। इसके बाद हम आगे के लिये चल पड़े। हमारी यह पद यात्रा 23 दिनों तक चलती रही। आगे रास्ते के और भी खट्टे मीठे अनुभव स्मृतियों में मौजूद हैं जिनको फिर कभी साझाा करने की कोशिश करूंगा। उस समय वहां शिक्षा का स्तर बहुत ही कम था नही के बराबर की कह सकते हैं। वहां आदमी का जूते से लेकर हर वस्त्र खुद का बनाया और सिला हुआ था। एक प्रकार की आदिम आत्म निर्भरता सी नजर आती थी। पर आज तो एक दम परिर्वतन आ गया है।
काफी समय से रवांई के इस पर्वत क्षेत्र में पुनः जाने की इच्छा मन में उठती रहती थी पर कुछ संयोग ही नही बन पा रहा था। आखिर साल 2023 के अप्रेल महीने की उन्नीस तारीख को वह अवसर आ ही गया जब मैं इन्द्रेश नौटियाल के साथ उस इलाके को घूमने के लिये निकल पड़ा। पर इस बार पैदल का सफर नही करने था इन्द्रेश ने नई बाईक जो खरीद ली थी। इस यात्रा का वृतांत बाद में जल्द ही लिखा जायेगा। और हां इस यात्रा के कुछ हिस्सों को जल्द ही अपने यूट्यूब चैनल पर भी अपलोड करूँगा जिसको आप हमारे यूट्यूब चैनल ghumakkad Chalda (घुमक्कड चालदा) पर जाकर भी देख सकते हैं। अन्त में अपने दिवंगत साथी अनिल बिष्ट को याद करते हुये सलाम करता हूँ।
इन्द्रेश नौटियाल के इनपुट के साथ