उत्तराखंड मैं नौकरशाहों की सरकार
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
पिछले दिनों तवांग मैं भारत और चीन के बीच हुई झडप का लिंक कहीं न कहीं उत्तराखंड से भी था. कुछ हफ़्तों पहले उत्तराखंड के चमोली स्थित सीमा बाड़ाहोती मैं भारत और अमेरिका का सयुंक्त युधाभ्यास हुआ था. इस बात को लेकर चीन गुस्से मैं था. दूसरी ओर चीन मैं कोविड महामारी मैं सख्त लॉकडाउन को लेकर वहां की जनता सडकों पर आ चुकी थी. लोगों का ध्यान बंटाने के लिए तवांग को एक रणनीति के तहत चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति को अंजाम दिया था. भारत की चीन के साथ 3,488 किलोमीटर सीमा है, जिसमे अकेले उत्तराखंड में 345 व पडोसी राज्य हिमांचल की 200 किलोमीटर की सीमा तिब्बत – चीन से जुडी हुई हैं. उत्तराखंड में सबसे ज्यादा चीन की घुसपैठ बाड़ाहोती सीमा पर होती है. यह एक बुग्याली पठार है जहाँ दोनों ओर के चरवाहे अपनी भेड़- बकरियों को गर्मियों मैं चुगाने आते रहते है. व दोनों देशों के सैनिक एक दुसरे की गतिविधियों का जायजा भी आसानी से कर लेते हैं.
इस सीमा पर चीन 63 बार घुसपैठ का चूका है. इस बात को देखते हुए जनरल बिपिन रावत ने बाड़ा होती तक सड़क मार्ग बनाने का प्रस्ताव दिया था. अब बाड़ाहोती सड़क मार्ग से जुड़ चूका है. इसी प्रकार माणा सीमा पर देवताल से आगे तक सड़क बन चुकी है. उधर चीन ने भी बाड़ा होती से ल्यासा तक सड़क मार्ग बना लिया है. इस लिहाज से अब दोनों देशों के लिए यहाँ पहुँच आसान हो गयी. इसका मतलब यह निकलता है की अरुणांचल प्रदेश मैं तवांग, लद्दाख मैं गलवा और उत्तराखंड मैं बाड़ाहोती चीन के लिये घुसपैठ के प्रमुख रास्ते बनते जा रहे हैं. यह उत्तराखंड के लिए एक प्रमुख चिंता का विषय है. यही वह कारण है की भारत को भी चीन सीमा तक सडकों का विस्तार, चौड़ीकरण, रेलमार्ग विकसित करने पड़ रहे है.
उल्लेखनीय है की उत्तरकाशी के एक प्रमुख सीमा भैरवघाटी से नेलोंग बॉर्डर तक २३ किलोमीटर सड़क मार्ग सीमा सड़क संघटन ने बना दिया है जहाँ से चीन तिब्बत की सीमा महज 200 मीटर दूर है. भारत तिब्बत-चीन सीमा पर नेलोंग का दर्रा दोनों देशों के लिये अति महत्वपूर्ण है इस दर्रे को पार कर सीधे लद्दाख तक पंहुंच है. जहाँ से यूरोप तक के द्वार खुल जाते थे. प्रमुख ब्रिटिश सैनिक व ब्यापारी फैडरिक विल्सन अफगानिस्तान से घोड़े में बैठकर इसी रास्ते मंसूरी देहरादून पंहुंचा था और सेवन इयर्स ऑफ़ तिब्बत के लेखक हेनरिक हेरर व उसके दोस्त पीटर ओब्संनेटर देहरादून विकासनगर की युद्ध बंदियों की जेल से भागकर नेलोंग के इसी दर्रे से ल्यासा पहुंचे थे. कुलमिलाकर भारत-तिब्बत की सीमाओं का दोनों ओर के इतिहास भूगोल व प्राकृतिक परिस्थितियों से दोनों देश भलीभांति परिचित है.
भोगोलिक रूप से भारत की इस सीमा पर चीन ऊँचे पठार पर हैं और उत्तराखंड हिमांचल निचली घाटियों मैं स्थित है. भारत –तिब्बीत चीन सीमा से उत्तराखंड की राजधानी देहरादून महज 300 किलोमीटर व भारत की राजधानी दिल्ली 600 किलोमीटर की सबसे निकटतम दुरी पर है. लद्दाख, अरुणांचल की सीमाओं से ज्यादा उत्तराखंड चीन के लिए सबसे आसान रास्ता है. इस लिहाज से उत्तराखंड की सीमाओं की सुरक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरुरत होगी. मैं ऐसा लिखकर डराने का नहीं बल्कि जगाने की बात कर रहा हूँ.
कुछ वर्षों पूर्व तक सीमा के गांवों की महिलाओं, पुरुषों व छात्रों को सीमा ससस्त्र बल (एस.एस.बी.) बन्दूक चलाने का प्रसिक्षण देता था अब यह प्रक्रिया कुछ सालों से दिख नहीं रही है. जिस तरह चीन लगातार अपनी विस्तारवादी नीति के तहत भारत पर नजर गड़ाये हुए है उस लिहाज से देश व उत्तराखंड की सीमा से लगे गांवों मैं स्थानीय नौजवानों, विद्यार्थियों, को अत्याधुनिक सैन्य प्रसिक्षण को बढ़ावा देना होगा. जिस तरह चीन भारतीय सीमाओं के आसपास नये – नये गांव बसा रहा है, उसी प्रकार भारत को भी सीमा पर बसे गांवों को आधुनिक सुख सुविधाओं युक्त बनाना होगा, जिससे लोग सीमान्त गांवों से पलायन न करे.
उत्तराखंड की चीन तिब्बत सीमा से लगे पर्यटक स्थलों तक पर्यटन गतिविधियों को ब्यापक स्तर पर बढाने से जहाँ एक तरफ सीमाओं की चौकिसी बढेगी वहीँ लोगों का रोजगार भी बढ़ेगा. उत्तराखंड में भारत-तिब्बत सीमा तो पर्यटकों की सबसे पसंदीदा जगह है ही इसको उत्तराखंड सरकार बात तो कर रही है पर तेजी कहीं दिख नहीं रही है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण पूर्व मंत्री मोहन सिंह रावत ‘गांववासी’ जी का प्रयास है जो सीमान्त पर्यटन के विचार को धरातल पर उतार चुके है. पिछले कई सालों से गांववासी जी बद्रीनाथ के आगे माणा चौकी स्थित देवताल का हर साल भ्रमण करते रहें है और अब वहां साल दर साल पर्यटकों की आमद बढती जा रही है. इसी प्रकार उत्तरकाशी भैरव घाटी से नेलोंग सीमा तक पर्यटक पहुँचने लगे है.
अंतत: उत्तराखंड राज्य में पिछले कुछ महीनों से लगातार चिंतन शिविर चल रहे है. और अब बात गांवों में कैबिनेट की बैठकों तक पहुँच चुकी है. वहीँ दुर्भाग्य यह है की जो फैसले कैबिनेट में लिए गये उनके लिखित आदेश तक नहीं हो रहे हैं और हडतालों के मजबूर होना पड़ रहा है. नौकरशाहों के चिंतन मैं तो राज्य से ज्यादा रक़म हावी रहता है, यह पिछले २२ सालों से सभी देख रहे है. फिर भी न जाने क्यूँ मुख्यसेवकों का यहाँ की जनता से जुड़े लोगों, जनप्रतिनिधियों से ज्यादा नौकरशाहों पर भरोषा रहता है. ये वही नौकरशाह हैं जो राज्य को जोंक की तरह चूसने का काम कर रहे हैं. कितनी बड़ी बिडम्बना है की जनप्रतिनिधियों को जिस विधानसभा मैं चिंतन, मनन, विकास के लिए विचार विमर्श करना था वो विधानसभाएँ दो दिन भी नहीं चल रही. मेरी बात समझ मैं आई की नहीं. लोकतंत्र मैं चिंतन का पहला अधिकार चुने हुए जनप्रतिनिधियों का होता है, जनता का होता है, नौकरशाह को उसको धरातल पर उतारने के लिए नौकर बनाया गया है. यह तो वही बात हो गयी की मैंने ही योजना सुझाई, मैंने ही योजना बनायीं, मैंने ही ठेका दिया और मैंने ही ठेका लिया, मैंने ही कमीशन लिया और मैंने ही कमीशन दिया और योजना को मैंने ही हैण्डओवर लिया. धिक्कार है उत्तराखंड के लोकतंत्र के चुने हुए जनप्रतिनिधियों खासकर विधायकों पर जिनको अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों का सम्मान करना नहीं आता और नौकरशाह उनके कन्धों पर बैठकर नाच रहे है. लब्बोलुआब यह है की उत्तराखंड मैं जनता की नहीं नौकरशाहों की सरकार चल रही है. आशा करता हूँ हमारी उत्तराखंड की जनता ही इसका फैसला करेगी.