हिंदी – खड़ी बोली का साहित्य
चंद्रशेखर तिवारी
कुमाऊं अंचल में हिंदी की खड़ी बोली में साहित्य की परंपरा लम्बे समय तक मौखिक रही।
कुमाऊं में हिंदी की खड़ी बोली में साहित्य का लिखित रूप प्रायः सन 1800 के बाद ही दिखाई देता है। 1816 के आसपास स्व. लोकरत्न पंत ‘गुमानी ‘ द्वारा रचित साहित्य यहां का प्रारम्भिक साहित्य माना जाता है। 1790 में जन्मे गुमानी की रचनाओं में ब्रिटिश शासकों के उत्पीड़न से त्रस्त समाज व तत्कालीन ग्रामीण जन-जीवन का चित्रण मिलता है। इनकी कुछ कविताओं में एक साथ हिंदी, कुमाऊनी, संस्कृत व नेपाली शब्दों का अद्भुत समावेश देखने को मिलता है। अल्मोड़ा में अंग्रेजों के आने पर वहां के हालात को गुमानी ने अपनी हिंदी कविता में इस तरह वर्णित किया है।
बिष्णु का देवाल उखाड़ा, ऊपर बंगला बना खरा
महाराज का महल ढहाया, बेड़ी खाना तहां धरा
मल्ले महल उड़ाई नंदा, बंगलों से भी तहां भरा
अंग्रेजों ने अल्मोड़े का नक्शा और ही और करा
गुमानी के पश्चात अल्मोड़ा के निकट पाटिया गाँव में जन्मे श्री गौरी दत्त पांडे ‘गौर्दा’ ने कुमाऊनी साहित्य को आगे ले जाने का काम किया। गौर्दा की कविताओं में राष्ट्रीय स्तर पर जहां देश की स्वाधीनता व देशप्रेम के प्रति जो अकुलाहट व संघर्ष का भाव दिखाई देता है वहीं उनकी रचनाओं में स्थानीय प्रकृति व भौगोलिक परिवेश की भी विशेषताएं भी उभर कर आयी हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उनकी रचनाओं में कहीं कहीं हास्य व्यंग्य का पुट भी मिलता है। गौर्दा के एक प्रसिद्ध गीत ‘हमरौ कुमाऊं’ (जो आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित उत्तरायण कार्यक्रम में भी सुनाई देता था) में पहाड़ के सम्पूर्ण परिवेश व समाज का अलौकिक चित्रण इस प्रकार आया है।
हमरो कुमाऊं हम छों कुमइयां,
हमरी छ सब खेति बाड़ी
तराई भाबर, बण, बोट घट गाड़
हमारा पहाड़ पहाड़ी
यांई भयां हम याईं रौंला
याईं छुटलिन नाड़ी
पितर कुड़ी छ याईं हमरी
कां जुंला यैकन छाड़ी
याईं जनम फिर फिर ल्युलों
यो थाती हमन लाड़ी
बदरी केदारक धाम लै याईं छन
कसि कसि छन फुलवाड़ी
पंच प्रयाग उत्तरकाशी
सब छन हमर अघ्याडी
सभन है ठूलो हिमाचल यां छ
कैलास जैक पिछहाडी
रूंछिया दै दूध घ्यू भरि ठेका
नाज कुथलि भरि ठाड़ी
ऊंचा में रई ऊंचा छियां हम
नि छियां क्वे लै अनाड़ी
पनघट, गोचर सब छिया आपुण
तार लगी नै पिछाड़ी
दार पिरूल पतेल लाकड़ी
ल्यूछियां छिलुकन फाड़ी
अखोड दाड़िम निमुवा नारंगी
फूल रूंछि बाड़ा अघ्याडी
गोरु भैंस बाकरा घर-घर सितुकै
पालछियां ग्वाला घसियारी।
(इस कविता में कुमाऊँ शब्द मात्र प्रतीक स्वरूप आया है। वास्तविक रूप में कवि गौर्दा का आशय सिर्फ कुंमाऊं अंचल तक सीमित न होकर संपूर्ण पर्वतीय इलाके यानि उत्तराखंड के भौगोलिक परिवेश से है।)