झंगोरा (Indian Barnyard Millet)
रामकृष्ण पोखरियाल
झंगोरा वानस्पतिक नाम: इकाइनोक्लोवा फ्रूमेन्टेसिआ (Echinochloa frumentacea) Syn-Oplismenus frumentaceus) कुल : पोयेसी Poaceae से संबंधित है। संस्कृत में इसे श्यामाक, श्यामक, श्याम, त्रिबीज, अविप्रिय, सुकुमार, राजधान्य, तृणबीजोत्तम; हिन्दी में शमूला, सांवा, सावाँ मोरधन, समा, वरई, कोदरी, समवत और सामक चाव तथा अंग्रेजी में इसे इंडियन बर्नयार्ड मिलेट (Indian Barnyard Millet) या बिलियन डॉलर ग्रास (Billion Dollar grass), जैपैनीज बार्नयार्ड मिलेट (Japanese barnyard millet), साइबेरियन मिलेट (Saiberian millet), साँवा मिलेट (Sawa millet) कहते हैं।
उत्तराखंड सहित भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग 2200 मी की ऊँचाई तक इसकी खेती की जाती है। यह सेवन करने में रुचिकर तथा बल्य होता है। यह ऊँचा, पुष्ट, चिकना, वर्षायु, शाकीय पौधा होता है। इसकी बाली अरोमश तथा भूरे वर्ण की होती हैं। इसके बीज गोल, चपटे तथा चिकने होते हैं। व्रतों व पर्वों में फलाहार के रूप में इसका प्रयोग किया जाता है। यह अत्यन्त पौष्टिक होता है। आयुर्वेद में सावाँ मधुर, कषाय, शीत, रूक्ष, लघु, कफपित्तशामक, वातकारक, क्लेद का शोषण करने वाला, अवृष्य, संग्राही तथा लेखन करने वाला होता है। यह दाह, रक्त विकार तथा विषनाशक होता है। सावाँ का पौधा विबन्ध तथा पैत्तिकविकारों में लाभप्रद होता है। झंगोरा पहाड़ का एक झटपट पकने वाला भोज्य पदार्थ है, जो झंगोरे के चावल (झंगरियाल) से तैयार होता है।
एक दौर में झंगोरा पर्वतीय अंचल में दोपहर के भोजन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। लेकिन, नए दौर में लोगों ने इसका लगभग परित्याग-सा कर दिया। हालांकि, वर्तमान में गांवों से निकलकर शहरों में आ बसे प्रवासी पहाड़ी झंगोरा को महंगे दाम पर खरीदने को भी
झंगोरा सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु चीन, नेपाल, जापान, पाकिस्तान, अफ्रीका के साथ ही कुछ यूरोपीय देशों में भी पैदा किया जाता है. झंगोरे में विपरीत वातावरण में भी पैदा हो जाने की अद्भुत क्षमता होती है. यह बिना किसी उन्नत तकनीक के, कम लागत और न्यूनतम देखभाल में पैदा होने वाला आनाज है। यह उन खेतों में भी आसानी से पैदा किया जा सकता है जहाँ धान और गेहूं नहीं उग पाता है। अक्सर इसे धान या खरीफ की अन्य फसलों के साथ मेढ़ों में ही बो दिया जाता है।
धान के साथ मेढ़ों पर बोये गए झंगोरे की तुलना करें तो इसकी पैदावार ज्यादा होती है, जबकि इसे उपयुक्त जमीन और देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती। इसकी बुवाई मार्च से मई के महीनों में की जाती है। इसके बाद इसे अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती यह बरसात के पानी पर ही पनपकर अच्छी फसल दे देता है। सितम्बर, अक्टूबर में इसकी फसल पककर तैयार हो जाती है। झंगोरे से अनाज के साथ पशुचारा भी उपलब्ध होता है। बर्फबारी के मौसम में पशुचारे की कमी हो जाने पर यह काफी उपयोगी साबित होता है।
मध्य एशिया से भारत पहुंचा झंगोरा उत्तराखण्ड के पारंपरिक खान-पान का अहम हिस्सा रहा है। बाद के समय में इसे भी गरीबों का भोजन मानकर तिरस्कृत कर दिया गया। वेदों तक में झंगरू नाम से इस अनाज का वर्णन एक पौष्टिक आहार के रूप में किया गया है। हिंदी पट्टी में आज भी झंगोरा व्रत वाला चावल के रूप में अपनी पहचान रखता है। झंगोरे में कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, प्रोटीन, वसा, कैल्शियम, आयरन, मैगनीशियम तथा फास्फोरस आदि पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्र में पाए जाते हैं।
कार्बोहाइड्रेट की मात्रा सामान्य चावल की अपेक्षा कम होने तथा धीमी गति से पाचन होने के कारण यह शुगर के मरीजों के लिए उपयोगी भोजन है। इसमें मौजूद हाई डाईटरी फाइबर शरीर में ग्लूकोज के स्तर को संतुलित रखते हैं। अपने पौष्टिक तत्वों के कारण यह दिल के मरीजों के लिए भी काफी फायदेमंद है। आज देश-विदेश में झंगोरे से कई तरह के व्यंजन बनाए-खाए जा रहे हैं। झंगोरा की खीर के अलावा बड़ा व डोसा भी बनाये जा रहे है.
लेखक पारंपरिक वैध है