पहाड़ बचाने की जद्दोजहद
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
पहाड़ों से पलायन सदियों से अलग-अलग कारणों से होता आया है. पलायन के विविध आयाम हैं. पहाड़ों में जो लोग रह रहे हैं, किसी ज़माने में वो भी किसी अन्य भूभाग से पलायन कर पहाड़ों में बसे. पलायन का मुख्य कारण रोजगार यानि अपने परिवारों व अपने पशुधन का सतत पेट पालना था. इतिहास में अधिकांश समुदाय-कबीले अपनी पशु सम्पदा के साथ घास व चरागाहों की खोज में विचरण करते रहते थे. आज भी दुनियां में कई बंजारे समाज घुमंतु जीवन यापन करते है. पशुपालन के अतिरिक्त भी कई अन्य जीविकोपार्जन के तरीके भी समुदायों ने अपनाये जिनमें पशु आखेट, ब्यापार, श्रम, कुशल कारीगरी आदि आदि. धीरे-धीरे जब कृषि की समझ विकसित हुई तभी काफी हद तक पलायन में कमी आयी व समुदायों ने गांव के रूप में बसना शुरू किया. मानव इतिहास में यही वह क्षण था, जब दुनिया के समाजों ने आधुनिक विकास की ओर अपने कदम बढ़ाये.
उत्तराखंड की कहानी भी यही है. यहाँ सदियों पहले लोगों ने गांव के रूप में बसना शुरू किया. आज एक बार फिर परिस्थितियां बदल गयी है. भारत में अंग्रेजों के आगमन व प्रथम विश्वयुद्ध में जब सैनिकों की जरुरत पड़ी तो पहाड़ के मजबूत युवाओं को सेना में भरती किया गया. ये सुरुआती पलायन रोजगार की तलाश थी. महिलाओं की शिक्षा न होने के कारन महिलाएं गांवो में ही रही व घर पर परिवारों का पोषण, देख – रेख, पशुपालन, कृषि अधिकांस कार्य महिलाओं के हवाले था. कुछ सेना में गए, कुछ भाड़े के मजदूर बने, कुछ नौकरों व यथायोग्य रूप में पलायन करते रहे. जब तक पहाड़ के गांवों में महिलाएं रही, पहाड़ के गांव सरसब्ज रहे.
शिक्षा ने जहाँ एक ओर रोजगार प्राप्त करने के द्वार खोले, वहीँ पहाड़ों से पलायन की रफ़्तार भी बढ़ी. अपने आधुनिक विकास, रोजगार, सुनहरे भविष्य, बेहतर स्वास्थ, शिक्षा के लिये पहाड़ के गांव के गांव खाली होते चले गये. जब से पहाड़ के गांवों में लड़कियों की शिक्षा बढ़ी, गांवों के घर – गृहस्ती, खेती-पशुपालन का चक्र बदलना शुरू हुआ. पहले पुरुषों ने पलायन किया व उसके बाद महिला शिक्षा की प्रगति व रोजगार की ललक ने महिलाओं को भी गांव छोड़ने के लिये मजबूर कर दिया. जिन परिवारों के पुरुष नौकरियों, उद्यमों, व शहरी-कस्बाई क्षेत्रों में रोजगार कर रहे थे उनके परिवार गांवों से निकल पड़े. पहाड़ की नयी पीढ़ी यानि नौजवान महिला – पुरुष गांव में नहीं रहना चाहते हैं. कारण बहुत सारे हैं, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, संचार, बिजली, पानी, सड़क, घटती खेती, बंटती खेती, जंगली जानवरों का भय.
लगभग 70 प्रतिशत वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड में कृषि मात्र लगभग 8 प्रतिशत भूभाग में ही होती है. इसका मतलब यही निकलता है की लगभग 16 हजार गांवों का अस्तित्व राज्य की 8 प्रतिशत भूमि पर ही निर्वहन करता है. हर साल परिवारों में विभाजन होता रहता है. भाईयों में मकान, जायजाद, खेती का बंटवारा होने से अब हालात ये हो गए हैं, की एक परिवार के हिस्से 1-2 नाली भी नहीं आ पा रही हैं तो ऐसे परिवारों का भरण पोषण गांवों में कैसे होगा. इस पर कभी सिद्दत के साथ हमारी सरकारों ने विचार नहीं किया. 22 वर्षों से चकबंदी की बात हो रही है लेकिन आजतक कुछ नहीं हो पाया. उत्तराखंड की जमीनों पर धन्ना सेठों ने कब्ज़ा कर दिया है, गांव के गांव खरीदे जा चुके है. जो भू क़ानून राज्य के शुरू में ही बन जाना चाहिए था, अब जब सब ख़त्म हो गया तब जाकर होश आ रहा हैं. अभी सरकार ने भू – कानून को लेकर जो समिति बनायी हैं उस समिति में कथित रूप से एक पूर्व नौकरशाह है जो हिमांचल के बताये जाते हैं. कथित रूप से ये सूचनाएं मिली हैं की उनका उत्तरकाशी के मोरी विकासखंड के देवरा – गैन्च्वान गांव क्षेत्र में सेबों का बड़ा बगीचा है. अगर यह बात सही है तो क्या ऐसे लोग सही भू कानून बना पाएंगे या अपने गले में आफत लायेंगे? माननीय मुख्यमंत्री को शीघ्र इसका संज्ञान लाना चाहिए व स्थिति से जनता को अवगत करवाना चाहिए. उल्लेखनीय है की उत्तराखंड में अगर कहीं से पलायन न के बराबर है तो वह यमुना टोंस की ही घाटी है, जहाँ आज भी परिवारों के बीच जमीनों का बंटवारा बहुत कम होता है इसीलिए यहाँ के लोग अपनी आर्थिकी के लिये पलायन नहीं करते. लेकिन दुर्भाग्य की बात है की मोरी विकासखंड जैसे इलाकों में बाहरी लोगों द्वारा सैकड़ों हेक्टेयर जमीने खरीदी जा चुकी हैं.
उत्तराखंड का भविष्य सलीब पर टंका हुआ है. गांव के गांव खाली हो रहे है. बाहरी लोगों द्वारा गांवों की रही बची जमीन खरीदी जा रही है काफी खरीदी जा चुकी है. पिछले दिनों एक के बाद एक नौकरियों के घोटालों ने रही सही कसर भी निकालकर, पहाड़ के लोगों की नौकरियों पर डाका डालकर राज्य का बन्ठाधार कर दिया है. देश में अगर सबसे करप्ट राज्य उत्तराखंड को बोला जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. उत्तराखंड को एक और बड़े आन्दोलन की जरुरत महसूस हो रही है.
आजकल एक और समाचार की हेडिंग चर्चा में है की “पहाड़ की लड़कियां पहाड़ में शादी नहीं करना चाहती है” जैसा की मैंने पूर्व में ही लिख दिया है की पहाड़ के गांवों की महिलाएं रीढ़ की हड्डी है. जब तक गांवों में महिलाएं रहेंगी तभी तक पहाड़ के गांवों का अस्तित्व बचा रहेगा. महिलाओं के गांवों को छोड़ने के ही कारन बहुत से गांव भुतहा हो चुके हैं और जब पहाड़ की महिलाओं की नयी पीढ़ी ने पहाड़ के गांवों के युवकों के साथ विवाह न करने का मन बना लिया है तो पहाड़ के गांवों का आने वाला भविष्य कैसे होगा भली भांति समझा जा सकता है.
पलायन का नया इलाका
रास्ट्रीय पार्कों की एक लम्बी श्रीन्खला उत्तराखंड के अनेक जनपदों में फैली है. इस पार्कों के बफर जोन में कई गांव है जो सरकारी कानूनों के कारन विस्थापन की कगार पर है. इन गांवों में रहने वाले समुदायों, उनकी पशु सम्पदा पर जंगली जानवरों के घटक हमले आम बात हो गयी है. जमीन के बदले जमीन की बात पर यहाँ के वासिंदे विस्थापन के लिये तैयार भी हैं पर सरकारों ने ऐसे नियम बना लिये हैं की विस्थापितों को भूमि के मुआवजे के बदले पैसा दिया जायेगा जिसे लोग स्वीकार नहीं कर रहे है. फिलवक्त शिवालिक रेंज में 2 रास्ट्रीय पार्क राजाजी नेशनल पार्क व कॉर्बेट पार्क की सरहदों से लगे गांवों में पलायन की रफ़्तार बढ़ गयी है. कारन यह है की पार्कों के जंगली जानवर दिन दहाड़े मनुष्यों का शिकार कर रहे हैं. पशु मवेशी तो रोज जंगली जानवरों के शिकार हो हे रहे है. पार्कों के सरहदी गांवों के लोग मजबूरन अपनी भूमि भू, माफियाओं को होटल रिसोर्ट आदि के लिये बेचने लगे है. पहाड़ पर हर तरफ से मार पड़ रही है. आखिर मजबूरी में पहाड़ की नयी पीढ़ी को पलायन कर नया ठिकाना बनाना पहाड़ियों की नियति ही मानी जायेगी. लेकिन अभी भी जो कुछ बचा है फिलहाल उसको बचाने की लड़ाई पहाड़ियों को हर रोज लड़नी ही पड़ेगी.