गढ़वाल हिमाचल होता या हिमाचल ही गढ़वाल होता
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
अगर आधुनिक हिमाचल प्रदेश के निर्माता डा0 यशवन्त सिंह परमार और हिमालयन हिल रीजनल काउंसिल तथा टिहरी प्रजामण्डल के अध्यक्ष तथा परिपूर्णानन्द के गुटों के बीच वर्चस्व के लिये संघर्ष न होता तो आज समूचा हिमाचल प्रदेश उत्तराखण्ड होता या टिहरी गढ़वाल हिमाचल प्रदेश का अंग होता।
इसका नाम चाहे जो भी होता मगर टिहरी से लेकर चम्बा तक एक ही प्रदेश होता। इस एकीकरण में टिहरी के नेताओं में एकजुटता, एक राय और राजनीतिक परिपक्वता का अभाव भी बाधक रहा है।हिमाचल शब्द की उत्पत्ति १९४८ में २८ रियासतों के राजाओं और प्रजामण्डलों की उस बैठक में हुयी जिसमें सभी ने एक मत से पंजाब मिलाये जाने का विरोध कर हिमाचल प्रदेश के नाम से अलग इकाई बनाने का प्रस्ताव पारित कर भारत सरकार को भेजा था। जबकि गढ़वाल या टिहरी या फिर उत्तराखंड प्राचीन नाम थे। यह रहस्योद्घाटन वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत की नवीनतम् पुस्तक ‘‘टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह’’ में किया गया है। प्रख्यात पत्रकार, पूर्व सांसद एवं क्रांतिकारी परिपूर्णानन्द पर केन्द्रित इस पुस्तक में लेखक का दावा है कि 10 जून 1947 को अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद द्वारा हिमालयी प्रजामण्डलों के लिये गठित हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउंसिल के चुनाव में अध्यक्ष पद पर परिपूर्णानन्द पैन्यूली के हाथों डा0 यशवन्त सिंह परमार की हार के बाद काउंसिल के सदस्य रियासती प्रजामण्डल दो धड़ों में बंटने लगे और इसके साथ ही डा0 परमार हिमालयन हिल स्टेट्स रीजनल काउंसिल से अलगाव शुरू हो गया। पुस्तक में दावा किया गया है कि टिहरी रियासत के विशाल आकार के कारण काउंसिल के चुनाव में टिहरी और बुशहर आदि रियासतों के धड़े से जीत पाना नामुमकिन मानकर डा0 परमार ने टिहरी को किनारे करने के लिये शिमला हिल स्टेट् सब रीजनल कांउसिल का गठन कर डाला और धीरे-धीरे उसके रियासती प्रजामण्डलों की संख्या 28 तक जा पहुंची और इन्होंने सन् 1848 में हिमाचल प्रदेश का गठन कर डाला। पुस्तक में कहा गया कि हिमाचल प्रदेश के गठन के लिये वहां के शासक और प्रजामण्डल एजजुट और एक राय थे। उन्होंने अपनी संास्कृतिक पहचान बनाये रखने तथा अपनी विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये पंजाब में मिलने का कड़ा विरोध किया था। जबकि टिहरी ने नेता रियासत के भविष्य को लेकर एकराय नहीं थे। हर कोई अपनी ढपली अपना राग अलाप रहा था। बाद में सत्यदेव बुशहरी और परिपूर्णानन्द पैन्यूली जैसे नेताओं ने ग्रेटर हिमाचल की मांग भी उठाई जो कि परवान न चढ़ सकी। यह वर्णन पुस्तक के पांचवें खण्ड में है। लेखक जयसिंह रावत ने इस पुस्तक में टिहरी राज्य के महाराजा सुदर्शन शाह से लेकर अंतिम शासक महाराजा मानवेन्द्र शाह तक के जनसंघर्षों का विवरण देने के साथ ही उनकी पृष्ठभूमि पर निष्पक्ष प्रकाश डालने का प्रयास किया है। पुस्तक में कहा गया कि टिहरी का महाराजा देश के उन बहुत थोड़े राजाओं में से एक था जिसने लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर कदम बढा़ते हुये अपने यहां 1923 में निर्वाचित प्रतिनिधि सभा का गठन किया था। लेखक ने सवाल उठाया है कि अगर पंवार वंशीय शासक इतने शोषक दमनकारी थे तो फिर सन् 1949 में टिहरी के भारत संघ में विलय और वहां लोकतंत्र की बहाली के इतने सालों बाद भी वहां की प्रजा के दिलोदिमाग से महाराजा की छाप बोलान्दा बदरीनाथ की क्यों बनी रही और महाराजा कैसे 8 बार चुनाव जीतता रहा। नौ खण्डों में विभाजित इस पुस्तक के पहले खण्ड ‘विप्लवों में डूबी टिहरी राजशाही’ के अन्तर्गत टिहरी रियासत में व्याप्त कुप्रथाओं, राजशाही की ज्यादातियों और इन ज्यादातियों के खिलाफ हुए अनेक जनसंघर्षों का वर्णन किया गया है। इसमें दास प्रथा, बेगार प्रथा, वन नीति और इसे लेकर हुए अनेक जनविद्रोहों, रंवाई काण्ड, रामा सिंराई कांड, सकलाना विद्रोह, कीर्तिनगर कांड आदि के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। पुस्तक का दूसरा खण्ड ‘बागी पैन्यूली’ और ‘सूरजकुण्ड बम कांड’ टिहरी क्रान्ति के जननायक परिपूर्णा नन्द पैन्यूली के पारिवारिक जीवन के बारे में हैं। पुस्तक का चौथा खण्ड टिहरी के निर्णायक जन विद्रोह से से संबंधित है। इस खण्ड में श्री पैन्यूली की टिहरी वापसी, गिरफ्तारी, टिहरी जेल से फरार होने, दिल्ली और मुंबई में अनेक राष्ट्रीय नेताओं के साथ भेंट होने, टिहरी लौट कर फिर गिरफ्तारी, सकलाना सत्याग्रह, नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत और टिहरी राजा के तख्तापलट की जानकारी है।
छठे खंड ‘ टिहरी की जनक्रान्ति के बाद’ में उस स्थिति का वर्णन किया गया है, जब राजशाही का तख्ता पलटा जा चुका था और टिहरी में पूरी तरह से अराजकता की स्थिति थी। यह स्थिति टिहरी के भारतीय संघ में विलय के बाद ही नियंत्रित हो पाई थी। पुस्तक के सातवें खण्ड में सन् 1971 के चुनाव का उल्लेख है। उस चुनाव में पैन्यूली ने अजेय माने जाने वाले महाराजा मानवन्द्र शाह को भारी मतों से हरा दिया था। इस खण्ड में पैन्यूली के चुनाव के खिलाफ इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनाव याचिका का उल्लेख है। उस केस में याचिकाकर्ता ब्रह्मदत्त की दयनीय आर्थिक हालत और ऋणग्रस्तता का वर्णन दिया गया है। ब्रह्मदत्त बाद में उत्तर प्रदेश और फिर केन्द्र में मंत्री रहे। पुस्तक के आठवें खण्ड में श्री पैन्यूली का साक्षात्कार प्रकाशित किया गया है, जबकि नौवें खण्ड में टहरी राजशाही और श्री पैन्यूली से संबंधित अनेक प्रमाणिक दस्तावेज प्रकशित किये गये हैं। लेखक जयसिंह रावत की इस पांचवीं पुस्तक के प्रकाशक भी विनसर पब्लिशिंग कम्पनी के कीर्ति नवानी ही हैं। प्रकाशक अब तक हिमालय और खास कर उत्तराखण्ड के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और जन सरोकारों पर दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित कर चुके हैं। इस प्रकाशन गृह ने गढ़वाली, कुमाऊंनी और अंग्रेजी की डिक्शनरी के साथ ही क्षेत्रीय बोलियों पर भी कई पुस्तकें प्रकाशित की हैं।
लेखकः-जयसिंह रावत
प्रकाशकः-कीर्ति नवानी
विनसर पब्लिशिंग कंपनी,
8,प्रथम तल, के.सी. सिटी सेंटर (गांधी स्कूल के सामने)
4 डिस्पेंसरी रोड, देहरादून, उत्तराखण्ड
आएसबीएन-9789382830139
मूल्य-495 रुपये