मानव और पर्यावरण
चंद्रशेखर तिवारी
मानव का प्रकृति से बहुत गहरा सम्बन्ध है। प्रकृति और वायुमंडल से मिलकर बने पर्यावरण के तत्व जहां मानव को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करतेे रहे हैं वहीं मानव प्रकृति में विद्यमान प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने हित के लिये भी करता आया है। पर्यावरण के प्रभावों को मानव आदिकाल से ही महसूस करता आया है। यही नहीं वह अपने विवेक से वह इन प्रभावों को एक सीमा तक दूर करने का प्रयत्न भी करता रहा है।
पर्यावरण और मानव के सह सम्बन्धों के बारे में लोगों के अलग-अलग मत हैं। कुछ लोग पर्यावरण को स्वामी मानते हैं। उनके विचार में मानव पर्यावरण का दास है और मानव को स्थान विशेष के पर्यावरण के अनुरुप ही जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। ‘नियतिवाद’ अथवा ‘निश्चितवाद की इस विचारधारा को वर्तमान में विशेष महत्व नहीं दिया जाता लेकिन प्राचीन समय में हिप्पोक्रेटस व अरस्तू सरीखे विद्वान इस विचारधारा को मानते थे। इस विचारधारा को मानने वाले लोगों का मत था कि क्षेत्र विशेष के पर्यावरण से प्रभावित होकर मानव वहां के पर्यावरण के अनुरूप ढल जाता है। शीत जलवायु वाले टुंड्रा प्रदेश के निवासी वहां की विकट जलवायु तथा भू सरंचना में जीवन यापन करते हैं, जिस कारण उनके जीवन निर्वाह व विचार की शैली अन्य प्रदेश के निवासियों से भिन्न होती है। मध्य एशिया के चरवाहे अपने पशुओं के साथ जगह-जगह घूमते रहते हैं क्योंकि वहां की भौगोलिक बनावट ही इस तरह की है कि न तो वहां स्थायी खेती के लिए अच्छी व उपजाऊ मिट्टी है और न ही जल संसाधनों की उपलब्धता। इस तरह उनकी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के पीछे स्थानीय पर्यावरण को उत्तरदायी माना जा सकता है। भारत के राजस्थान, बुंदेलखण्ड व पहाड़ी इलाकों के निवासियों में वीरता व साहस जैसी विशेषताओं का पनपाने में भी दरअसल उस क्षेत्र की विषम भौगोलिक परिस्थितियों का हाथ माना जाता है।
मानव अपने बुद्वि कौशल व ज्ञान के बल पर पर्यावरण के तमाम तत्वों – वनस्पति, खनिज, मिट्टी, जल तथा वन्य जीव-जन्तुओं का उपयोग अपने जीवन यापन के लिए करता रहा है। वैज्ञानिक काल में नवीन तकनीकाे के प्रचलन से कृषि पद्वति, उद्योग व व्यवसाय के क्षेत्र में असाधारण बदलाव होने लगा। प्राकृतिक संसाधनों का वृहद उपयोग करने में खुद को सक्षम पाकर मानव महसूस करने लगा कि अब वह पर्यावरण के बंधन में जकड़ा हुआ नहीं है। पर्यावरण पर विजय प्राप्त कर लेने से उसे अब ‘नियतिवाद’ विचारधारा में पिछडे़पन की बू आने लगी। इसके फलस्वरुप ‘सम्भववाद’ के नाम से नयी विचारधारा का जन्म लेने लगी। इस विचारधारा को मानने वाले विद्वान फैब्बरे का मत था ‘सब ओर सम्भावनाएं हैं, मानव इन संभावनाओं का मालिक है, इस कारण वह इसके उपयोग का हकदार है। सम्भववाद को मानने वाले लोगों का मानना था कि मानव अपने लिए पर्यावरण का बेहतर उपयोग करने के लिए स्वतंत्र है।
कालान्तर में ‘नियतिवाद’ तथा ‘सम्भववाद’ विचार के सम्मिश्रण ने एक तीसरे नये विचारधारा को जन्म दिया जो ‘समन्वयवाद’ कहलायी। इस विचारधारा के समर्थक जहां मानव को पूरी तरह पर्यावरण का दास मानने से इनकार करते हैं वहीं वे पर्यावरण के विरुद्व कार्य करने की सम्भावनाओं को भी एक निश्चित सीमा तक मानते हैं। इस विचारधारा को मानने वाले लोगों का कहना था कि मानव को पर्यावरण के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए और मानव जो स्वंय में पर्यावरण का ही एक अंग है उसे पर्यावरण की विशेेषताओं को समझ-बूझ कर उसके समुचित उपयोग और उसके साथ समन्वय व सहयोग करने की जरुरत है। इस ‘समन्वयवादी’ नीति को ‘नियतिवादी’ तथा ‘सम्भववादी दोनों अलग-अलग दृष्टि से देखते हैं। सम्भववादी कहते हैं कि मानव ने पर्यावरण पर विजय पाकर उसे अपने नियंत्रण में किया है जबकि ’नियतिवादी पर्यावरण के प्रभाव में मानव की जड़ता व सीमित कार्य करने की अधीनता का दर्शन करते हैं।
समन्वयवाद विचारधारा के बारे में प्रसिद्व विद्वान टेलर का मत था कि ‘मानव किसी भी क्षेत्र की उन्नति को कम या अधिक कर सकता है और यह उसकी बुद्धिमत्ता होगी कि वह प्रकृति के निर्देशित मार्ग से अलग जाने की कोशिश न करे। उनके अनुसार मानव को पूर्णतः पर्यावरण का स्वामी नहीं माना जा सकता। उसने मानव की तुलना चैराहे पर खड़े ट्रेफिक पुलिस के उस व्यक्ति से की है जो वाहन के चलने की गति को नियंत्रित तो कर सकता है पर उसकी गंतव्य दिशा को परिवर्तित नहीं कर सकता।
वत्र्तमान वैश्विक दौर में जिस तरह पर्यावरण पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं वह हम सबके लिये गहन चिन्ता की बात है। प्रश्न चाहे हिमालयी क्षेत्र की लुप्त होती जैव विविधता का हो अथवा नगरों – महानगरों में बढ़ती जनसंख्या व प्रदूषण का। आखिर इन सारे सवालों के समाधान के लिये हमें ‘सम्भववाद तथा ‘नियतिवाद जैसी विचारधाराओं से बाहर निकलकर ‘समन्वयवाद‘ की ओर उन्मुख होना श्रेयकर होगा। सही रुप में प्रकृति के साथ समन्वय करके ही उस पर विजय पायी जा सकती है। पर्यावरण के सिद्वान्तों के अनुरूप ही हम सभी को अपनी सुविधाओं एवं आकांक्षाओं में परस्पर तालमेल बिठाना होगा। इसके लिये पग-पग पर पर्यावरण से सहयोग करना उतना ही जरुरी समझा जाना चाहिए जितना कि उससे लाभ उठाने की इच्छा। इस दृष्टि से भारतीय परंपरा का जिक्र करना उचित होगा। यहां के लोकजीवन के विविध पक्षों में पर्यावरण की महत्ता को पग-पग पर स्वीकार किया गया हैै। मांगलिक कार्यों में देवी देवताओं के साथ ही यहां प्रकृति पूजा का भी विधान है। विभिन्न व्रत-पर्वों में धरती के प्रतीक कलश की स्थापना कर सूर्य, चन्द्र, नवग्रह, जल, अग्नि सहित दूर्वा, वृक्ष, बेल व पत्तियों को पूजने की परम्परा चली आ रही है। पूजा अर्चना में प्रयुक्त इनकी उपस्थ्तिि हमें इस बात का अहसास कराती है कि यही प्राकृतिक तत्व हमें जीवन प्रदान करते हैं।
भारतीय परंपरा में धरती को हमवेशा से ही माता कह कर पुकारा गया है। ‘माता भूमिः पुत्रो ऽहम् पृथिव्याः‘ यानी धरती मेरी मां और मैं उसका पुत्र हूँ। भारतीय साहित्य व लोक मान्यताओं में प्रकृति को सर्वोच्च सत्ता के रुप में आसीन करने और भूमि को देवत्व स्वरुप प्रदान करने की परिकल्पना रची गयी है। अगर गहराई से देखें तो मातृदेवो भव का मतलब जन्म देने वाली मां के अलावा उस धरती मां की सेवा और सुरक्षा से भी है जो हमें अपने अन्न जल से पोषित कर रही है। उत्तराखण्ड में आज भी लोग खेती का कार्य करने से पहिले और नयी फसल को देवताओं को अर्पित करते समय भूमि के रक्षक भूम्याल (भूमिपाल) का आह्वान करते हैं। यहां कई जगहों पर देववनों की स्थापना भी की गयी है। संरक्षण की दृष्टि से गांव समाज के सामूहिक जंगलों को पांच साल के लिये स्थानीय देवी देवताओं को अर्पित किया गया है। लोक नियमानुसार इस अवधि में इन देववनों से पेड़ की एक भी पत्ती नहीं तोड़ी जा सकती। पहाड़ के पारम्परिक जल स्रोत नौलों/धारों की दीवारों पर अंकित वनस्पतियों व फूलों के चित्र भी कतिपय रुप से प्रकृति संरक्षण का संदेश देते हैं। हमारी भारतीय परम्परा में धरती माता के प्रति इससे बड़ी आस्था और क्या हो सकती है।
निश्चय ही ’समन्वयवाद के इस नजरिये से हमें पर्यावरण पर पूर्ण रूप से हावी होने के स्थान पर अपनी बढ़ती भोगवादी संस्कृति पर लगाम लगानी होगी। अन्ततः धरती की पीडा़ को समझते हुए उसकी सुरक्षा के लिये अपने व्यक्तिगत जीवन शैली में बदलाव लाने जैसी तमाम कोशिसें हमारी सर्वाेच्च प्राथमिकताओं में दर्ज की जानी चाहिए। इस तरह पर्यावरण के साथ सतत रुप से समन्वय बिठा कर हम भूमण्डल की सुरक्षा में अपने योगदान का प्रयास कर सकते हैं।
लेखक दून पुस्तकालय में वरिष्ठ एसोसियेट हैं
छायाचित्र : रमेश पांडे ‘कृषक’