November 21, 2024



हिमालय को जानने-समझने की कोशिश

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डॉ. अरुण कुकसाल


‘हिमालय बहुत नया पहाड़ होते हुए भी मनुष्यों और उनके देवताओं के मुक़ाबले बहुत बूढ़ा है। यह मनुष्यों की भूमि पहले है, देवभूमि बाद में, क्योंकि मनुष्यों ने ही अपने विश्वासों तथा देवी-देवताओं को यहां की प्रकृति में स्थापित किया। हिमालय के सम्मोहक आकर्षण के कारण अक्सर यह बात अनदेखी रहती आयी है। यह आशा करनी ही होगी कि हिमालय की सन्तानों और समस्त मनुष्यों को समय पर समझ आयेगी, पर यह याद रहे कि यह समझ न अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में उपलब्ध है और न कोई बैंक या बहुराष्ट्रीय कम्पनी इसे विकसित कर सकती है। यह समझ यहां के समाजों और समुदायों में है, वहीं से उसे लेना होगा। बस, हमें और हमारे नियन्ताओं को इस समझ को समझने की समझ आये।’

शेखर पाठक की ‘दास्तान-ए-हिमालय’ किताब में लिखी उक्त पक्तियां आम जन से लेकर अध्येताओं के हिमालय के प्रति विचार और व्यवहार को सचेत करती है। हिमालय पृथ्वी का मात्र 0.3 प्रतिशत है, लेकिन पृथ्वी की जैव विविधता का 10 प्रतिशत हिमालय में सांस लेता है। परन्तु, आज जिन हालातों से हिमालय और उसका जनजीवन गुजर रहा है, उसमें उसकी इस अदभुत वन्यता की सांसों की हिफाज़त करना चुनौती बनता जा रहा है।


शेखर पाठक की चिन्ता और चिन्तन का आरम्भिक बिन्दु यही है कि हिमालय को उसके मित्रों से ज्यादा उसके शत्रु जानने लगे हैं। हिमालय अप्रीतम ही नहीं यहां के मनुष्यों के साथ तमाम जीव प्रजातियों के लिए अपरिहार्य भी है। इसीलिए, इसके अस्तित्व के खतरे भी बेहद गंभीर हैं। अतः हिमालय के अद्वितीय सौंदर्य के साथ ही इसके स्वयं के जीवन और इस पर निर्भर जीवनों के मर्म को सबसे पहले समझा जाना चाहिए। तभी हिमालय हमारा और हम हिमालय के रह पायेंगे।


‘दास्तान-ए-हिमालय’ के 18 अध्याय हिमालय के इसी जीवन दर्शन, दर्द और भविष्य की दूर-दृष्टि को उद्घाटित करते हैं।

कुमाऊं विश्वविद्यालय में प्रोफेसर, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, और नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में फैलो रहे शेखर पाठक की हिमालयी इतिहास, संस्कृति, सामाजिक आन्दोलनों के अध्येयता, लेखक और एक घुमक्कड़शास्त्री की लोकप्रिय पहचान देश-दुनिया में है। कुली बेगार प्रथा, पण्डित नैनसिंह रावत और हाल ही में उनकी वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला से प्रकाशित ‘हरी भरी उम्मीद’ (चिपको आन्दोलन और अन्य जंगलात प्रतिरोधों की परम्परा) किताब चर्चित रही है। इसी क्रम में वाणी प्रकाशन और रज़ा फ़ाउण्डेशन के सह-प्रकाशन से प्रो. शेखर पाठक की नवीन पुस्तक ‘दास्तान-ए -हिमालय’ (दो खंडों में) प्रकाशित हुई है।


‘दास्तान-ए-हिमालय’ शेखर पाठक के हिमालय के इतिहास, प्रकृति, समाज-संस्कृति, तीर्थाटन, अन्वेषण, व्यक्तित्वों और आन्दोलनों पर व्याख्यानों और लेखों का महत्वपूर्ण संग्रह है। वर्ष-1979 से 2016 तक के अंतराल के इन व्याख्यानों और लेखों के केन्द्र में हिमालय या उसका कई आयाम है। इस नाते ये किताब मानवीय समाज के लिए हिमालय को आत्मीयता से जानने, समझने और उसके प्रति व्यवहार को सजग करने का लेखकीय आवाह्न है।

इस किताब की पृष्ठभूमि को सार्वजनिक करते हुए शेखर पाठक स्वीकारते हैं कि ‘‘ये कुछ व्याख्यान और लेख बहुत सारी पत्रिकाओं या किताबों में सोये पड़े थे। ये नींद में थे कि किसी किताब की शक्ल लेने के ख़्वाब में, कह नहीं सकता।…पर जिस हिमालय की हम सन्तान हैं उसका आकर्षण, उसके भौगोलिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक विस्तार में भटकने तथा उसे समझने की बेचैनी से निकली ये रचनाएं हैं। अधूरी और अनमनी। मैं अभी हिमालय पर्वत की प्रकृति और इसके समाजों को समझने की लार्वा अवस्था से ज़रा-सा आगे हूं। अतः अधूरा और अनमनापन स्वाभाविक और क्षमा लायक समझा जाय। सच कहूं तो यह दास्तान एक अधूरा मंगलाचरण भर है।’’




किताब के रूप में हिमालय का यह मंगलाचरण उसकी विराटता और गूढ़ रहस्यों के एकांत में हल्की सी आहट है। क्योंकि, हिमालय को अभी तो मानव जानने की प्रक्रिया भर में है, उसको समझने के लिए वक्त का एक लम्बा सफ़र अभी बहुत आगे तक तय करना होगा। अनेक अनुशासनों के अनेक लोग लगातार जुटेंगे तो कुछ और उजागर हो सकेगा।

किताब के शुरुआती लेखों में हिमालय की उत्पत्ति, उसके बनने की आरंभिक दास्तान और उसमें विकसित समाजों की विकास यात्रा का फैलाव है। लगभग 6 करोड़ साल पहले अफ्रीका से सरककर आये भारतीय उपमहाद्वीप द्वारा एशिया भूखण्ड को निरंतर धकियाये जाने के कारण टैथिस सागर की जगह पर नया भूगोल उग आया था। टैथिस सागर के भूगर्भ से निर्मित इस भूगोल को हिमालय कहा गया। हिमालय एक तरफ आज भी स्वयं निर्माण की प्रक्रिया में है, तो दूसरी ओर यहां की वन्यता और जनजीवन का मां-पिता के रूप में पालनहार भी है। शेखर पाठक लिखते हैं कि ‘‘हिमालय का विशिष्ट संसाधन वन्यता (Wilderness) यानी यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य है। दरअसल, यह हिमालयी प्रकृति के विभिन्न घटकों का समुच्चय है। अनेक बार इसमें मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत भी जुड़ जाती है। यह एक पूर्ण प्राकृतिक अवदान है। आज की पूंजी, तकनीक और युद्ध से ग्रस्त दुनिया में वन्यता का असाधारण महत्त्व है और यह विभिन्न व्यवस्थाओं के दबाव के कारण लील लिये गये मानवीय तत्त्वों को पुनर्सृजित कर सकती है।’’ (पृष्ठ-71)

हिमालय और उसके समाजों की इतिहास-गाथा बताती है कि हिमालय की वन्यता ने ही उसे देवभूमि की पहचान दी है। यह गौरतलब है कि हिमालयी वन्यता की न तो पुनर्रचना हो सकती है और न ही इसकी वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है। अतः यहां के समाजों और समुदायों को यह मजबूती से समझना होगा कि उनके सुरक्षित और खुशहाल जीने का एक मात्र आधार हिमालय की हिफ़ाजत और सलामती में ही है।

‘दास्तान-ए-हिमालय’ पुस्तक के प्रथम खंड में हिमालयी पारिस्थिकीय की उत्पति और उसमें विकसित मानव समाजों एवं समुदायों की तस्वीर है। प्रथम खंड के पहले दो लम्बे आलेख हिमालय के इतिहास का एक गहन खाका खींच लेते हैं। प्रकृति और मानव के आपसी नैसर्गिक रिश्तों में विकसित संस्कृति के कई रंग इसमें हैं। बतलाया गया है कि ‘‘भूगर्भ कैसे भूगोल और भूगोल कैसे खान-पान, गान, नृत्य और पहनावे को प्रभावित करता है, यह हिमालय में सरलता से समझा जा सकता है।’’ (पृष्ठ-25)

यह किताब हिमालय के मानवशास्त्रीय इतिहास की विस्तृत चर्चा करती है कि किस तरह हिमालयी समाज बन रहा है। इस क्रम में यह भारत देश और हिमालय में यात्रा अभियानों के प्राचीन सूत्रों को सामने लायी है। पांचवी सदी में चीनी यात्री फ़ाहियान और सातवीं सदी में श्वेन त्साङ के विवरण अचंभित करते हैं। श्वेन त्साङ ने लद्दाख, कश्मीर, हिमांचल और उत्तराखंड की यात्रा करते हुए यहां के भूगोल, इतिहास, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक व्यवस्था पर जानकारी लिपिबद्ध की थी।

लेखक ने राजवंशों के इतिहास को बताते हुए हिमालयी सामन्तवाद जैसा एक नया संबोधन इस्तेमाल कर उसका विश्लेषण किया है। इन अर्थों में लेखक ने हिमालयी साम्राज्यों को नये आलोक में देखा है। हिमालय में बिट्रिश सत्ता का आगमन और उनके अन्वेषण अभियानों से हिमालय के द्वार दुनिया के लिए खुलने का सिलसिलेवार और रोचकता से भरा विवरण किताब में है। इस दौर के बारे में शेखर पाठक लिखते हैं कि ‘‘18वीं तथा 19वीं सदियों में हिमालय में नयी व्यवस्था तथा विभिन्न प्रणालियों का आगमन हुआ और जिस तरह का सामाजिक-सांस्कृतिक, प्रशासनिक-राजनीतिक, आर्थिक-पारिस्थितिक आधार बना, उस पर औपनिवेशिक सत्ता बीसवीं सदी में भी चलती रही। यह ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की पराकाष्ठा थी, जो उन्हें मुग़लों, सुल्तानों, हर्ष या अशोक के भारतीय साम्राज्य से भिन्न सिद्व करती थी।’’ (पृष्ठ-138)

यह किताब समग्रता में हिमालय की प्रकृति, प्रवृति, वन्यता, जनजीवन, प्रसंगों और व्यवस्थाओं का उल्लेख और विश्लेषण करते हुए विविध कालखंडों के हिमालयी व्यक्तित्वों से भी परिचय कराना नहीं भूलती है। राहुल सांस्कृत्यायन, चन्द्रसिंह गढ़वाली और सरला बहन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर तीन अध्याय हैं। इनके माध्यम से लेखक हिमालयी अध्येताओं, सेनानियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के समग्र ज्ञान, अदम्य साहस और निस्वार्थ सेवा के भाव को पाठकों के मन-मस्तिष्क को सौंपते हैं।

बहुआयामी और बहुपरती प्रतिभा राहुल सांकृत्यायन के जीवन, लेखन और घुमक्कड़ी के अद्भुत आयाम दुर्लभ फोटो के साथ हैं। लेकिन, उनके लिए लेखक के ये प्रश्न भी हैं कि ‘‘बाबा, कभी-कभी लगता है कि आपकी भी सीमाएं थीं। कुछेक बार आप ज़्यादा स्पष्ट बोलने से कतरा गये या आप नहीं समझ सके कि आपको इन मामलों में ज़्यादा बोलना है, जैसे रूस की भीतरी हालत के बारे में। जिस तिब्बत की आपने चार विराट यात्राएं की, उसकी स्वतन्त्रा और स्वायत्तता के बाबत आपका स्टैंड ज़्यादा स्पष्ट होना चाहिए था। असली साम्यवादी कभी विस्तारवादी नहीं हो सकते।’’ (पृष्ठ-150)

अन्याय के विरुद्ध बुलंद आवाज़ के प्रतीक वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली और उनके साथी हिमालयी समाज और उसकी सैनिक परम्परा के अन्तर्मन के हिस्से हैं। शेखर पाठक लिखते हैं कि ‘‘चन्द्र सिंह गढ़वाली ब्रिटिश फ़ौज में रह कर भी संवेदनशील और फ़ौज से निकाले जाने पर भी सिपाही बना रहा, एक ऐसा सिपाही जो अपनी सरकार के अन्यायों के खि़लाफ बोलता रहा। वह मानता रहा कि असली सिपाही जनता को कुचलने वाला नहीं, उसकी भाषा-भृकुटि समझने वाला होता है। यही बिन्दु चन्द्र सिंह गढ़वाली तथा उसके साथियों को समझने की कुंजी है।’’ (पृष्ठ-192)

लन्दन में जन्मी और युवा हुई कैथरीन मेरी हाइलामन उत्तराखंड में आकर देश-दुनिया की सरला बहन बनी। लक्ष्मी आश्रम, कौसानी में रहकर उत्तराखंडी जनजीवन में सामाजिक चेतना की वो मजबूत संवाहक थी। चन्द्र सिंह गढ़वाली की तरह सरला बहन आज़ादी से पहले और उसके बाद अपनी सामाजिक सक्रियता के बल पर सरकारों को आगाह करती रही। गांधीजी के बताये रास्ते पर आजन्म चलते वह गांधीवाद को ढ़ोंग की तरह ढ़ोने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं से दूर रही।

इसी खण्ड में उत्तराखण्ड के भाषा परिदृश्य पर एक विस्तृत और पठनीय आलेख हैं, जिसमें मौखिक परम्परा से लिपि और लिखित में आते पहाड़ी समाज को समझने का प्रयास किया गया है। इस प्रयास में सामान्ती और औपनिवेशिक दौर से आज तक भाषा के समाज और राजनीति से रिश्तों को बेबाकी से सामने रखा गया है।

इस किताब के पहले खण्ड का एक खूबसूरत हिस्सा अतुल्य कैलास मानसरोवर है। भारत, तिब्बत-चीन, और नेपाल की सीमाओं से घिरे इस क्षेत्र में देशों की परिधि से बेफिक्र एक मानव समाज अपनी जीवंतता और समग्रता में जीता है। जिनके, दिलों में देश की सीमाओं का कोई मतलब नहीं है। कैलास के महत्व और महानता के संदर्भों से परिचित कराते हुए किताब बताती है कि कैलास के आसपास से जन्म लेने वाली चार नदियां यथा- सिन्धु, सतलुज, गंगा और बहृमपुत्र भारत के 44 प्रतिशत भू-भाग की प्राण रूपी जलवाहिनी हैं। देश की कुल जल सम्पदा का 63 प्रतिशत का श्रोत हिमालय है। हिमालय को इसीलिए ‘पानी की प्राचीर’ का खि़ताब दिया गया है।

किताब का द्वितीय भाग उत्तराखंड के इतिहास और सामाजिक आन्दोलनों आदि पर केन्द्रित है। शेखर पाठक इनके बारे में जानकारी से ज्यादा इनको वर्तमान एवं भविष्य के संदर्भों में पारिभाषित और विश्लेषित करते हैं। हिमालय के प्रति लेखक अपनी चिन्ता में हमारी याने पाठकों की चिन्ता को शामिल करते हुए हिमालयी वन्यता और जनजीवन के भविष्य की दिशा की ओर इंगित करते हैं। हिमालय के बीचों-बीच उत्तराखंड है। किताब में इतिहास, रीति-रिवाज, भाषा, पषु-पक्षी, प्रतिरोध की परम्परा, नशे के षड्यन्त्र, खेती-किसानी और आपदा के स्वरूपों में उत्तराखंड का चेहरा यहां झलकता है।

किताब में मानवशास्त्री बेरीमन की उत्तराखंड के एक गांव के सामाजिक अध्ययन पर लिखी गई चर्चित पुस्तक ‘हिन्दूज़ ऑफ़ द हिमालय’ की गहन समीक्षा करते हुए शेखर पाठक लिखते हैं कि ‘‘…हमारी कोशिश सदा अपने सामाजिक अतीत को महान दिखाने की होती है।…दरअसल, हमारी दिलचस्पी ‘हम क्या थे’ से ज़्यादा ‘हम क्या नहीं थे’ या ‘हम क्या हैं’ से ज़्यादा ‘हम क्या नहीं हैं’ में है और यह दृष्टि कभी भी अतीत को समझने, वर्तमान को झेलने तथा भविष्य को बनाने नहीं देती है।’’ (पृष्ठ-110)

उदाहरणार्थ, यह सामान्य धारणा है कि उत्तराखंडी समाज में जातीय भेदभाव ज्यादा प्रभावी नहीं हैं। परन्तु समय-समय पर जातीय संघर्षों ने इस धारणा को नकारा है। किताब में 9 मई, 1980 को अल्मोड़ा जनपद के कफल्टा गांव में घटी घटना ‘श्याम प्रसाद लुहार की बारात’ का जिक्र इस ओर इशारा करती है। यह आलेख इतिहास से वर्तमान को जोड़ते हुये सम्वेदना और सवालों से भरा हुआ है।

यह खण्ड उत्तराखंड में विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में आम जनता के प्रतिरोधों के विश्लेषणात्मक विवरण को सामने लायी है। उत्तराखंड में उभरे सामाजिक आन्दोलनों के तीन रूप किताब में दिखाई देते हैं। पहला- सभी वर्णों और वर्गों के हितों के लिए, दूसरा- अपनी जाति और वर्ण के हितों के रक्षार्थ और तीसरा- संपूर्ण समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य और कुरीतियों को समाप्त करने के निमित्त हुए आन्दोलनों की पड़ताल किताब में गहराई से है। आज के उत्तराखंड की सामाजिक नब्ज टटोलने लिए पिछली शताब्दी में हुए इन आन्दोलनों के गर्भ और मर्म को अवश्य समझा जाना चाहिए।

उत्तराखंड में सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोधों की प्रभावी अभिव्यक्ति ‘बेगार आन्दोलन’ और टिहरी रियासत के ‘ढण्डकों’ (ढण्डक का अर्थ विद्रोह से है।) से कही जा सकती है। बिट्रिश कुमाऊं और टिहरी रियासत में 19वीं और 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर तक बेगार को आम जनता के नियमित और संगठित शोषण का रूप दिया गया था। बेगार आन्दोलन और ढण्डकों के साथ उपजे अन्य समवर्ती आन्दोलनों ने बाद में, उत्तराखंड के जनमानस को देश के स्वाधीनता आन्दोलनों से जोड़ा था।

उत्तराखंड में अस्सी के दशक में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में संचालित ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन की गहरी पड़ताल करते हुए शेखर पाठक ने बखूबी बताया है कि ‘नशा एक षड्यंत्र है’ (महत्वपूर्ण है कि उत्तराखण्ड में जन्मे चिपको आन्दोलन के विस्तार और विकास से अभिप्रेरित युवाओं ने 25 मई, 1977 को गोपेश्वर में ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन किया था।) नशे के इसी षड्यंत्र की कारगुजारी से आज उत्तराखंड के सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य में शराब लाबी की पकड़ बहुत मज़बूत हो गई है। गम्भीर बात यह भी है कि यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। कहना होगा कि, ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन के चार दशक बाद, तब से अब तक इतना बड़ा फर्क हुआ कि तब शराब उत्तराखंड में कुछ लोगों की आय का ज़रिया थी। आज़ शराब उत्तराखंड सरकार की आय का मुख्य ज़रिया है। नये राज्य की यह सबसे बड़ी विडम्बना है।

उत्तराखंड में चौपट्ट होती खेती से मुहं फेर कर गांवों से नगरों की ओर आम जन से लेकर जनप्रतिनिधि तक भागने में हैं। ज़मीन, जंगल, जल, जानवर और जन से वीरान होते गांव उनकी चिन्ता और चिन्तन में ज्यादा मायने नहीं रखते हैं। इस प्रवृति पर शेखर पाठक का तंज है कि ‘‘यह सिर्फ शहरीकरण भी नहीं है, यह जड़ विहीन हो जाना है।…सिर्फ ‘नराई’ (याद) से पहाड़ को याद करने वालों के लिए भी उनके गांव का होना और गांव में उनके लोगों का होना ज़रूरी है।’’ (पृष्ठ-288) इस आलेख में संसाधनों और विशेष रूप से जमीन के आयामों पर गहरी नजर डाली गई है और कहा गया है कि प्रदेश सरकार को अपनी जमीन के सही आंकडे़ पता नहीं हैं, क्योंकि पिछले 55-60 साल से जमीन का बन्दोबस्त नहीं हुआ है। पिछला बन्दोबस्त 1960-64 में हुआ जो 40 साल के लिये था। इस प्रकार उत्तराखण्ड में 2000-04 के बीच नया भूमि बन्दोबस्त होना चाहिए था, पर राजनीति इधर देखना नहीं चाहती है।

विगत दो शताब्दियों की आपदाओं की कई कथायें कहते हुए यह किताब अपने विराम पर पहुंचती है। हिमालय में आपदाओं की अपरिहार्यता को स्वीकारते हुए उनके मूल कारणों, परिणामों और भविष्य के भय के प्रति लेखक का मानना है कि आज की सतर्कता से ही इसे कम किया जा सकता है। सन् 1803 के महा भूकम्प से 2013 की महा आपदा पर विपुल सामाग्री और विश्लेषण के साथ कहा गया है कि अब हिमालय में शुद्ध प्राकृतिक आपदा में मनुष्य और उसको चलाने वाली व्यवस्था का योग जुड़ गया है।

और अंत में, ‘दास्तान-ए-हिमालय’ बस इतनी सी है कि ‘‘मनुष्य की जल्दबाज़ी से हिमालय से मिट्टी के जाने की गति बढ़ गयी है।…और यह दरअसल, मिट्टी ही है जो हमें मिट्टी नहीं होने देती है। हिमालय की लड़ाइयां इसी मिट्टी की हिफाज़त के लिए चल रही हैं।’’ (पृष्ठ-40) हां, किताब के दुर्लभ फोटो, दस्तावेज और नक्शे सामान्य पाठक को भी रमाये रखते हैं। संदर्भो की विविधता इसका दूसरा आयाम है।

डाॅ. अरुण कुकसाल

पुस्तक- ‘दास्तान-ए-हिमालय’ (दो खंडों में)
पेज संख्या- 340 तथा 363
लेखक- शेखर पाठक
आमुख- अशोक वाजपेयी
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन और रज़ा फ़ाउण्डेशन
मूल्य- प्रत्येक खण्ड ₹ 595