November 21, 2024



जयहरीखाल, लैन्सडौन, ताड़केश्वर यात्रा

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डॉ. अरुण कुकसाल


ताड़केश्वर महादेवः अनुशासन प्रिय ‘बोलंदा देवता’

14 अगस्त, 2022, नाश्ते की भरपूर थाली को मेरे सामने रखे जयहरीखाल में रहने वाली मेरी 88 वर्षीय बड़ी दीदी सामने ही बैठी है। उसका बिना ना-नुकर किये मुझे सब खाने का आदेश है। वह एक टक मुझे देखते हुए, टोकती भी जा रही है कि, भौत कमजोर हो गया है, तू। मुझे मालूम है कि वह भोर से ही तैयारी में जुट गई थी। कल देर शाम जब उसे बताया कि मैं जयहरीखाल में हूं तो तब से वह गुस्सा है कि मैं रात उसके पास क्यों नहीं रहा? और, अब वह नाराज है कि मुझे आज ही चामी गांव वापस जाना है। गुस्से और नाराज़गी के साथ वह बेहद खुश भी है कि दशकों बाद उसने अपने हाथों से आज मुझे राखी बांधी है। दशकों से कभी ऐसा संयोग ही नहीं बन पाया। गज़ब की तरंगित खुशी उसके चेहरे पर है। मां के इस इहलोक से जाने के बाद दीदी में ही तो हम मां को देख पाते हैं।


जयहरीखाल से ताड़केश्वर महादेव (समुद्रतल से ऊंचाई 1800 मीटर) के रास्ते पर हम हैं। जयहरीखाल से लैंसडोन और उसके बाद 3 किमी. पर डेरियाखाल है। अतीत में जब कोटद्वार से पहाड़ों की ओर सड़के नहीं थी तो पैदल यात्रियों के लिए रात्रि विश्राम का यह प्रमुख डेरा/पड़ाव था। उस पैदल यात्रा को ढ़ाकर (ढ़ो कर लाना) और पैदल यात्री को ढ़ाकरी (ढ़ो कर लाने वाला) कहा जाता था। सड़क के एक ओर खाली बर्तनों की लम्बी-लम्बी कतारें नल के दोनों ओर लगी हैं। सुबह के 7 बजे ही छोटे-बडे़ होटलों के आस-पास पानी के टेंकर खड़े हैं। बरसात का समय है, फिर भी पानी की किल्लत। सूखे नल के ठीक ऊपर के पेड़ की मजबूत टहनी पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहा है। कल स्वतंत्रता दिवस जो है। लोगों को अपने कष्टों को बताने में भले ही संकोच हो पर देशभक्ति को दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं है।


डेरियाखाल, चुण्डई, सिसल्डी, अधिरियाखाल, चखुल्याखाल, गुण्डलखेत के बाद आया है सिद्धपीठ ताड़केश्वर महादेव मंदिर (समुद्रतल से ऊंचाई 1800 मीटर)। जयहरीखाल से पहाड़ की एक धार से दूसरी धार जाते हुए लगभग 45 किमी. की यह सड़क ज्यादा उतार-चढ़ाव लिए नहीं है। जिस ओर की पहाड़ घार पर हम चल रहे हैं वो गहरे हरे रंग से रंगी है। और, हमारे दूसरी ओर विशाल हिमालय अपने स्वाभाविक श्वेत रंग में खिलखिला रहा है। देवदार, चीड, सुराई, बुरांश और बांज के जंगलों के बीच हर 4-5 किमी. में स्थित छोटे-छोटे बाजारों में चहल-पहल भरपूर है। स्थानीय उत्पादों की दुकानें जगह-जगह दिख रही है।

ताड़केश्वर मन्दिर आने से 1 किमी. पहले से ही गाड़ियों की एक कतार सड़क के दोनों ओर लगी हुई है। यात्रियों और ड्रायवरों की आपसी चिर-परिचित नोक-झोंक सर्वत्र है। संकरी सी सड़क पर एक तरफ गाडियों की आपसी आपा-धापी है, तो दूसरी ओर इधर-उधर बिखरे पर्यटक नुमा यात्रियों में पहाड़ी चट्टानों के ऊपर जाकर सैल्फी खींचने जिद्द है। आये दिन सैल्फी खींचते हुए पर्यटकों की खाई में गिरने की घटनायें इधर बढ़ने लगी हैं।


‘आपसे मैंने पहले ही कहा था कि अपनी गाड़ी को आगे नहीं ले जाओ। अब आपकी गाड़ी के वज़ह से जाम लग रहा है।’ एक महिला गुस्से में किसी कार चालक पर बरस रही है। ‘मैडम एक तो आप ढंगार (तीखी जगह) पर खड़ी होकर सैल्फी खींच रही हैं और गुस्से में भी हो। इससे आपकी फोटो भी अच्छी नहीं आयेगी और कहीं नीचे खाई में गिर गई तो असली जाम तब लगेगा, यहां।’ वो गाड़ी का ड्रायवर बोलते हुए मंद-मंद मुस्करा भी रहा है। सिद्धपीठ ताड़केश्वर महादेव मंदिर के मेन गेट के दोनों ओर पूजा सामाग्री की दुकानें प्रारम्भ हो गई है। मेरी नज़र सामने के बड़े से बोर्ड पर टिक गई है। इस बोर्ड पर लिखा है-

‘जय ताड़केश्वराय नमः एक स्वप्न की सूचना- प्रभु श्री ताड़केश्वर ने अपने प्रिय भक्त को स्वप्न में कहा कि यह मन्दिर मेरा मकान और सौन्दर्य युक्त देवदार वन मेरा बगीचा है। लोग प्रेम से मेरे मन्दिर दर्शन के लिए आते हैं। मुझे प्रसन्नता होती है। लेकिन, यहां आने के बाद जो दूषितता छोड़ जाते हैं उनसे मुझे दुखः होता है। ‘मेरा सन्देश लोगों से कह दो’, जो कोई भी यहां गन्दगी छोड़कर जायेगा उनसे मैं नाराज होता हूं। इसकी जगह जो दूसरों के द्वारा फेंके गये कचरे को (प्लास्टिक बैग, पेपर, छिलके की गन्दगी आदि) साफ करता है उनसे मैं प्रसन्न होता हूं। मेरा आशीर्वाद उन्हे सदैव रहेगा जो इस पवित्र स्थल की पवित्रता को बनाये रखेंगे। स्वप्न दृष्टाः एक भक्त- श्री ताड़केश्वर धाम।’ उक्त विचार एक अभिनव प्रयोग है। इसका असर निश्चित रूप में पूरे मन्दिर परिसर में दिख भी रहा है। कहीं भी कोई गन्दगी बिखरी नहीं है और ताज्जुब है कि कोई डेस्टबिन भी नहीं दिखाई दे रही है। कारण साफ है कि जब लोग गन्दगी ही नहीं करेंगे तो डेस्टबिन की क्या जरूरत है? इस सार्थक प्रयोग को अन्य मन्दिर परिसरों में भी किया जाना चाहिए।




स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार विष गंगा और मधु गंगा का उदगम स्थान ताड़केश्वर है। किवदन्ती है कि इस स्थान पर रहने वाला ताड़कासुर नामक राक्षस शिवजी का परम भक्त था। घनघोर तपस्या के बाद उसने अमरता का वरदान मांगा। परन्तु शिवजी ने यह वर देने से मना कर दिया। शिव वैरागी हैं, यह चालाक ताड़कासुर जानता था। उसने शिवजी से कहा अमरता का वरदान नहीं दे सकते हो तो आपका ही पुत्र मेरा बध करे। शिवजी ने उसे तथास्तु कहा। शिव ने वैराग्य भाव त्यागकर माता पार्वती से विवाह किया। बाद में, शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय ने ताड़कासुर का बध किया था। ताड़कासुर ने मरते समय शिव से क्षमा मांगी। शिव ने उसे क्षमा करते हुए उसे अपना नाम देकर पूजनीय बना दिया। कहा जाता है कि यहां पहले शिव लिंग था अब शिव की मूर्ति है।

ताड़केश्वर प्राचीन मंदिर है। मान्यता है कि दिन में महादेव शिव हिमालय के कैलाश पर्वत में तपस्या करते हैं और रात्रि-विश्राम ताड़ेश्वर में करते हैं। इसीलिए, इसे शिव की विश्राम स्थली भी कहा जाता है। भक्तों का मानना है कि रात्रि को शिव के आगमन से यहां कंपन महसूस किए जाते हैं। मंदिर के चारों ओर खडे़ त्रिशूल नुमा देवदार के 7 वृक्षों को पार्वतीजी का रूप माना जाता है। इनके प्रति लोगों में अगाध आस्था है। मंदिर के बाहरी ओर एक कुंड है जिसके जल का जलाभिषेक मंदिर में किया जाता है। विशेष उल्लेखनीय यह है कि सरसों का तेल यहां लाना वर्जित है।

ताड़केश्वर महादेव कड़े अनुशासन प्रिय देवता हैं। भक्तों को अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए वे आवश्यकता होने पर आवाज भी लगाते हैं। यही कारण है कि ताड़केश्वर महादेव को ‘बोलंदा देवता’ भी कहा जाता है। मंदिर परिसर में मनोकामना पूरी होने पर घंटी चढ़ाने की प्रथा है। हजारों भक्तों की भेंट की गई घटियों से समूचा मंदिर परिसर घिरा है। गांव के लोगों द्वारा नई फसल की पैदावार को सर्वप्रथम ताड़ेश्वर मन्दिर में अर्पित करने की प्रथा है। देवदार, चीड, सुराई, बुरांश और बांज के जंगलों से यह स्थल शांत और साफ-सुथल स्थल होने के कारण घ्यान और योग के लिए सर्वोत्तम स्थल है। यहां रात्रि-निवास के लिए धर्मशालायें भी हैं।

ताड़केश्वर मन्दिर की प्रशंसनीय व्यवस्था ने इस परिसर की पवित्रतता और शांति को बनाये रखा है। परन्तु यह क्या? मन्दिर से बाहर आते ही भक्तों की ना-समझी के निशान सर्वत्र पग-पग पर दिखाई दे रहे हैं। जैसे, श्मशान का वैराग्य उससे बाहर आते ही खत्म हो जाता है। और, व्यक्ति फिर अपनी दुनियादारी में रम जाता है। वैसे ही, लगता है कि मंदिर से बाहर आते ही भगवान के प्रति हमारी भक्ति और डर भी छू मंतर हो जाता है। रास्तों में फैला कचरा ये बताता कि भगवान शिव का डर मंदिर परिसर तक ही था। हमारे आगे वाली गाड़ी से बाहर हवा में उछाली गई प्लास्टिक की बोतल यही इंगित कर रही है। एक सज्जन तो बा-कायदा अपनी गाड़ी रोकर एक खाये-पिये कचरे के बैग को निर्जन जंगल में सड़क के किनारे ऐसे रख रहे हैं जैसे अभी सफाईकर्मी आकर उसे निस्तारित कर देगा। जबकि हकीकत यह है कि कूड़े के निस्तारण के लिए सजगता न सरकार के पास है और न समाज के पास।

चौमासा में जगह-जगह पर फैला कालाबांस, लैण्टाना, गाजर घास जैसी हानिकारक झाड़ियां भी खूब लहलहा रही है। ये भी हमारी लापरवाही का ही नतीज़ा है। वाकई, प्रकृति की बेपनाह खूबसूरती को हम मानव अपनी क्रूरता और खूसटपने से बरबाद करने में तुले हैं। और, इसको करने में हमें ईश्वर का भी खौफ नहीं है। ताड़केश्वर, गुण्डलखेत, चखुल्याखाल, अधिरियाखाल, सिसल्डी, चुण्डई, डेरियाखाल, लैंसडोन, जहरीखाल के बाद आया है गुमखाल। बारिश की रिम-झिम सुबह से ही साथ है। वीरेन्द्र ने मोहम्मद रफीजी का ‘आज मौसम बेईमान है, बड़ा बेईमान है, आज मौसम’ वाला गाना फिर से लगा दिया है।

गुमखाल की उतराई में सतपुली और नयार नदी दिखने लगी है। सतपुली और नयार को एक साथ देखकर यह गढ़वाली लोकगीत ‘द्वी हजार आठ भादों का मास, सतपुली मोटर बोगीन खास…..हे पापी नयार कमायें त्वैकू, मंगसीरा मैना ब्यो छायो मैकू…….मेरी मां मा बोल्यान नी रयीं आस, सतपुली मोटर बोगीन खास तुरंत याद आता है। (14 सितम्बर, 1951 को पूर्वी नयार में आयी बाढ़ से हुयी त्रासदी की भयानकता को बताता गढ़वाली लोकगीत) फिलहाल, गुमखाल से सतपुली को जाते हुए बाबा नागार्जुन की लिखी यह कविता आपके नज़र है-

‘चांदी की हंसुली’

नीचे

बहुत नीच

बहुत नी ! ! ! चे……

सतपुली की गहराई में,

अच्छी खासी पहाड़ी नदी

प्रवाहित है, जाने कब से

बीसियों पतले श्रोत्र

मिलकर धारा बनते हैं न,

चक्करदार पहाड़ी सड़कों से

देखने पर

ये नदी ‘चांदी की हंसुली’ सी

लगती है।

अरुण कुकसाल

ग्राम-चामी, पोस्ट- सीरौं-246163, पट्टी- असवालस्यूं, जनपद- पौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखंड

यात्रा के साथी– भानेश घिल्डियाल, लता घिल्डियाल,, राजीव धस्माना, दीना कुकसाल, पूजा धस्माना, हिमाली कुकसाल और सौम्या घिल्डियाल।