नंदा के लोकोत्सव में डूबा पहाड़
संजय चौहान
भादो के महीने उत्तराखंड में हिमालय की अधिष्टात्री देवी माँ नंदा के लोकोत्सवों की अलग ही पहचान है। इन दिनों नंदा का मायका लोकोत्सव में डूबा हुआ है चारों ओर नंदा के जयकारों से नंदा का लोक गुंजयमान है। नंदा से मिलने और विदा करनें के लिए इन दिनों गाँव की ध्याणी (शादी हुई बेटियाँ) बीते एक पखवाड़े से अपने मायके में है। ध्याणियां गाँवों में मां नंदा के पारम्परिक झुमेलो, चौंफुला, दांकुणी के गीतों और जागरों पर देर रात तक पारम्परिक लोकनृत्य करते दिखाई दे रहे है। जिससे नंदा का मायका लोकसंस्कृति के रंग में डूब गया है। गाँवों मे ध्याणियों की चहल पहल से गाँवों की खोई रौनक लौट आई है। हमारे पास मां नंदा देवी राजजात और वार्षिक लोकजात यात्रा का कोई लिखित इतिहास नहीं है। हमें जो भी जानकारी मिलती है वो नंदा के लोकगीतों और लोकजागरों में ही मिलती है। जो पीढी दर पीढी एक दूसरे को हस्तांतरित होती है।
जय भगौती नंदा, नंदा ऊंचा कैलाश की,
नंदा तेरी जात कैलाश लिजोला,
जय देवी नंदुला तेरी,
खोल जा माता खोल भवानी,
जय बद्रीनाथ जी की जामको,
भादों का मैना की नंदा अष्टमी,
मेरी मैत की धियाणी तेरू बाटू हेरदु रोलू,
पैर पैर गौरा तु, हाथों की.
जैसे मां नंदा के पारम्परिक लोकगीतों और जागरों से से आजकल गाँवों में बरसों से पसरा सन्नाटा भी टूट गया है। गाँव के वीरान पड़े घरों में आजकल खुशियाँ लौट आई है। लोगों का कहना है कि नंदा लोकजात यात्रा से हम अपनी पौराणिक सांस्कृतिक विरासत को संजो तो रहे है अपितु गाँव की रौनक भी लौट आई है। नंदा से मिलने के बहाने बरसों बाद मिल रहे ध्याणी और नाते रिश्तेदारों को भी एक दूसरे की कुशलछेम पूछने का अवसर भी मिल रहा है।
इन्होने नंदा के लोकगीतों और जागरों को संरक्षित कर नयी पीढ़ी तक पहुंचाया है।
गढरत्न नरेन्द्र सिंह नेगी जी के नंदा राजजात 2000 में आई नंदा के गीतों नें तो राजजात यात्रा में चार चाँद लगाये। जिसके बाद विगत 20 बरसों से राजजात यात्रा हो या लोकजात या नंदा का कोई लोकोत्सव नेगी जी के गीतों और जागरों के बिना कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। पद्मश्री और बोलांदी नंदा बसंती बिष्ट नें माँ नंदा के पौराणिक लोकगीतों और जागरों को पूरे देश में नयी पहचान दिलाई है। लोकसंस्कृतिकर्मी और हिमालयी लोकोत्सवों के धनी व्यक्तित्व डाॅ. डी. आर. पुरोहित जी नें माँ नंदा के लोकगीतों और जागरों को संरक्षित कर नयी पीढ़ी तक पहुंचाया है। लोकगायक किशन महिपाल, दर्शन सिंह फरस्वाण, हेमा नेगी करासी, दरबान नैथवाल, लोकजागर गित्योर हुकुम सिंह सहित दर्जनों गायकों नें माँ नंदा के लोकजात यात्रा और राजजात यात्रा को एक अलग ही पहचान दी है। प्रख्यात साहित्यकार और लोकसंस्कृतिकर्मी डाॅ नंदकिशोर हटवाल जी नें माँ नंदा के लोकगीतों और जागरों को एकत्रित करके इन्हें एक किताब के जरिए लोक के सामने लाये। साहित्यकार और लेखक रमांकात बेंजवाल नें नंदा देवी राजजात यात्रा पर एक किताब भी लिखी है। वहीं पत्रकार दिनेश कुकरेती नें माँ नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रा और राजजात यात्रा के दौरान गाये जाने वाले लोकगीतों और जागरों को अपनी लेखनी से जन जन तक पहुंचाया।
मां नंदा के लोकगीतों और जागरों को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर नयी पहचान दे रही है नंदा सती.
इन दिनों जहां नंदा का मायका लोकोत्सव में डूबा हुआ है वहीं डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी माँ नंदा के लोकगीतों और जागरों की प्रस्तुति भी सुनने और देखने को मिल रही है। नारायणबगड ब्लाॅक की युवा पीढ़ी के प्रतिभावान गायिका और मांगल गर्ल के नाम से जाने जानी वाली किरन नेगी मां नंदा के लोकगीतों और जागरों को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाखों लोगों तक पहुंचाने का कार्य कर रही हैं जिन्हें हर कोई पसंद कर रहा है।
वाण गांव का गित्योर परिवार चार पीढ़ियों से संजो रहा है नंदा के जागरों को!
चमोली जनपद के सीमांत ब्लाॅक देवाल के वाण गांव का गित्योर परिवार पिछले चार पीढ़ियों से नंदा के जागरों को संजोता आ रहा है। वर्तमान में हुकुम सिंह, महिपाल सिंह, हुकुम सिंह (द्वितीय) बीरबल सिंह, हरपाल और मान सिंह अपने परिवार की जागर परम्परा को आगे बढाने में बड़ी शिद्दत से जुटे हुए हैं। नंदा का कोई लोकउत्सव हो या फिर लाटू धाम में कोई कौथिग सब जगह इसी परिवार के लोग जागर गित्योर के रूप में जागर गातें हैं और अपनी पौराणिक सांस्कृतिक विरासत को आज भी विगत चार पीढ़ियों से संजोते आ रहे हैं। बकौल हुकुम सिंह ये सब माँ नंदा की कृपा और आशीर्वाद से है। मैंने अपने पिताजी को दिए वचन को पूरा करने की कोशिशें की है और आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो बहुत ही सुकून मिलता है। मैंने कभी भी जागर गाने की विधिवत ट्रेनिंग नहीं ली। जो कुछ भी सीखा वो माँ भगवती की कृपा और परिवार, बुजुर्गों के आशीर्वाद से है। मां नंदा के जागर की ये विधा पीढी दर पीढी एक से दूसरे को हस्तांतरित होती आई है।
मैं ही नही बल्कि हमारा पूरा परिवार विगत चार पीढ़ियों से भी ज्यादा समय से माँ नंदा के जागरों को संजोता आ रहा है। कहतें हैं की हमारी लोकसंस्कृति ही हमारी असली पहचान है। यदि अपनी संस्कृति को हमें बचाना है और सांकृतिक विरासत को आने वाली पीढ़ियों के लिए संजोना है तो इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए आगे आना होगा। खासतौर पर इस क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यक्तियों का उत्साहवर्धन और हौंसलाफजाई के साथ साथ उन्हें आर्थिक रूप से संपन्न करना होगा ताकि वो पूरे मनोयोग से इस कार्य को कर सके। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है इन दिनों न केवल नंदा का मायका लोकोत्सव में डूबा हुआ है अपितु घर गांव से लेकर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी माँ नंदा के लोकगीतों और जागरों की धूम है।
जय मां नंदा…