राणा की पुतली फिरी नहीं
राजीव नयन बहुगुणा
राणा की पुतली फिरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था.
मेवाड़ यात्रा मुझे सदैव मुग़ल – राजपूत सम्बन्धों को परखने की एक नई दृष्टि देती है। यहां के सूर्योपासक राजपूत राजा, सिर्फ शासक ही नहीं, अपितु भील आदि आदिम जन जातियों के नेता भी थे। प्रकृति के निकटस्थ रहने के कारण उनमे स्वाभिमान और स्वाधीनता की भावना कूट कूट भरी थी। उनका सम्राज्य अजमेर , मध्यप्रदेश तथा गुजरात तक विस्तीर्ण था।
सोलहवीं शताब्दी में राणा उदय सिंह राजधानी को चित्तौड़ से उदयपुर लाये। इसकी वजह यहां जल की अधिकता एवं सुरक्षित गिरी श्रृंग रहे होंगे। उनके पुत्र प्रताप सिंह राणा अपने वंश में सर्वाधिक यशस्वी और उद्भट योद्धा रहे। अनेक महान कर्मों के फलस्वरूप वह महाराणा प्रताप कहलाये।
कभी कभी इतिहास की अधिष्ठात्री देवी दो महा नायकों को आमने सामने खड़ा कर देती थी। ऐसा ही सोलहवीं शताब्दी में भी हुआ, जब अकबर और महाराणा दोनों रणकुशल, कल्पनाशील, उदार एवं प्रजा प्रेमी सम्राट आमने सामने हो गए। महाराणा के समक्ष अकबर की बजाय कोई हल्का फुल्का बादशाह आन खड़ा होता, तो इतिहास अपना श्रृंगार कैसे करता ? अकबर के हृदय में भारत को एक राष्ट्र राज्य के रूप में एकीकरण का जज़्बा था, तो महान राणा अपनी मातृभूमि, संस्कृति और परम्पराओं की रक्षा हेतु सर्वोच्च बलिदान देने को उद्यत थे। हल्दी घाटी के रण में अकबर की सेना को जान के लाले पड़ गए, तथा उसने मन ही मन महाराणा की महत्ता स्वीकार की।
अन्य समकालीन राजाओं की तरह राणा प्रताप भी अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेते, तो निसन्देह अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण रख दिल्ली में उच्च राजपद पर आसीन हो सुख का जीवन जीते। पर उन्होंने स्वाभिमान की रक्षा हेतु संघर्ष का मार्ग चुना। अकबर ने भी महाराणा से कठिन युद्ध लड़े, पर उनकी शान में कभी नीचता न की। उसने न तो देवी देवताओं की प्रतिमाओं का भंजन किया, न किले के स्थापत्य को क्षति पहुंचाई। युद्ध की तोड़फोड़ अलग विषय है।
मैंने उदयपुर के महल में जाकर परमवीर महाराणा के सम्मुख शीश नवाया। लौटती में आगरा जाते हुए अकबर महान को कोर्निश करूँगा। एक भारतीय के नाते मेरे मन मे दोनों के प्रति श्रद्धा भाव है।