गढ़वाली भाषा के ‘की बोर्ड’ हैं ‘नरेन्द्र सिंह नेगी’
बीना बेंजवाल
शब्दविभूति एवं लोकानुभूति के माध्यम से गढ़वाली भाषा के संरक्षण, उसके प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व योगदान देने वाले नरेन्द्र सिंह नेगी युग प्रतिनिधि गीतकार एवं गायक हैं। उन्होंने शुरुआती दौर में पारंपरिक लोकगीतों को गाकर गढ़वाली भाषा को एक पहचान दी। लगभग तीन दर्जन कैसेट्स में लोकगीतों, गढ़वाली गीतकारों द्वारा रचे गीतों को गाने के साथ-साथ स्वयं 200 से अधिक गीत रचकर, उन गीतों को संगीत एवं स्वर देते हुए गढ़वाली भाषा के विकास में अपना ऐतिहासिक योगदान देते आ रहे हैं। गढ़वाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात जोर-शोर से उठ रही है। बोलने वालों की संख्या कम होते जाने के कारण इसे उस मुकाम तक पहुँचाना चुनौतीपूर्ण है। ऐसी स्थिति में आप गीत, कविता, संगीत एवं गायन के साथ विभिन्न मंचों और अब सोशल मीडिया के माध्यम से भी गढ़वाली भाषा के प्रति जन-जन में लगाव पैदा करते आ रहे हैं। भाषा के जिस मानक रूप को आपने अपनाया है, वह सर्वमान्य एवं सर्वस्वीकृत है। यही कारण है कि आपके गीतों को इतनी ख्याति मिली है।
अभी तक नेगी जी के चार गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं इनके गीत साहित्य में लोक संस्कृति का आलोक तथा प्रकृति का अपार वैभव बिखरा पड़ा है। ‘खुचकण्डी’ में संजोई गई गीतों की धरोहर लेकर अपनी गीत यात्रा में आगे बढ़ते हुए ‘गाण्यूँ की गंगा अर स्याण्यूँ का समोदर’ के गीत गुनगुनाकर सबको आह्लादित करते हुए फिर जनपक्षीय रचनाओं की पोथी ‘मुट्ट बोटिकि रख’ की सौगात भी आपने समाज को दी है। आपका चौथा गीत संग्रह ‘तेरी खुद तेरु ख्याल’ फिल्मों के लिए लिखे गए गीतों का संकलन है।
पहाड़ की अत्यंत विविधतापूर्ण जीवन चेतना को वाणी देने वाले गीतकार नेगी जी ने श्रुतिमधुर शब्दावली का प्रयोग करके गढ़वाली की अकूत शब्द-संपदा से परिचित कराया है। आम बोलचाल की भाषा को आधार बनाकर उन्होंने एक से बढ़कर एक गीतों का प्रणयन किया है। प्रकृति एवं मानव दोनों के रूप चित्रों को इन्होंने बड़े सुंदर ढंग से अपने गीतों में उकेरा है। सूक्ष्म सौंदर्य चेतना एवं विचारों का औदात्य इनके गीतों का प्राण तत्व है। इनकी भाषा कभी बुरांस की लालिमा से मन को रंग देती है तो कभी फ्यूंली की पीताभा से उसे बासंती बना देती है। जहाँ एक ओर हिमालय की भव्यता, उसकी रमणीयता का वर्णन करने वाली इनकी लोकभाषा उसके सौंदर्य से जगमगाती है वहीं दूसरी ओर खाली मकानों, प्यासे बर्तनों, दरकते पहाडों तथा पलायन करते लोगों का दु:ख-दर्द बयां करते हुए अंतर्मन को झकझोर देती है।
नरेन्द्र सिंह नेगी जी की भाषा में स्थानीयता के सभी रंग बिखरे पड़े हैं। ग्रामीण संवेदना के इस गीतकार के गीत लोकभाषा की लयात्मक शक्ति से संपन्न हैं। इन्होंने लोकमाटी का मन पढ़ा है। पहाड़ का लोकजीवन इनके शब्द-शब्द में धड़कता है। खेतों की गूलों से होकर गाड-गदन्यों के संगीत से लयबद्ध इनकी भाषा गंगा-सा रूप धर लेती है। उसमें ‘पैंणै’ की पकोड़ी का स्वाद है। किसी ‘कौथिगेर’ के गहनों की छणमणाहट है, बाँसुरी की भौण है और है ‘म्वारियोंं’ का रुमणाट।
लोकजीवन से ऊर्जा ग्रहण करने वाली इनकी भाषा की जड़ें लोकमाटी में गहराई तक धंसी हैं। जिस गढ़वाली को बोलने में हम कतराते हैं इन्होंने उसी की शक्ति को पहचाना और उसे प्रसिद्धि दिलाई । गढ़वाली का शब्द वैभव इनके काव्य में अपनी स्निग्धता एवं भव्यता के साथ दमकता है। अपनी उर्वर कल्पनाशक्ति के बल पर इन्होंने लय और छंद के अनुसार शब्दों को ध्वनियों के सांचों में बखूबी फिट किया है। किसी छुंयाळ की पोल-पट्टी खोलने वाला ये गीतकार खुद खेत, जंगल, धारा, मंगरा, ऊँचे पर्वत, गहरी घाटी तथा डांडी-कांठियों की छ्वीं लगाते नहीं थकता। अनुभवप्रवण इस गीतकार की काव्य प्रेरणा छिल्लों की तरह जलकर अपनी भाषा के प्रति मन में फैले उदासीनता के घटाटोप अंधेरे को पिघलाकर उस परिदृश्य पर एक उजास की तरह छा जाती है। और तब वबरा, खोळी, चौक, खेत, जंगल इतने करीब आ जाते हैं कि उन्हें भेंटने का मन करता है।
नेगी जी के पास शब्दों की टकसाल है जिससे निकले शब्दों की खनखनाहट इनके गीतों में साफ सुनी जा सकती है और जिसने गढ़वाली के शब्द भण्डार में वृद्धि करके उसे समृद्ध किया है। इनके व्यक्तित्व की सरलता एवं सहजता इनकी भाषा में भी स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। यांत्रिकता के बहरा बना देने वाले इस शोर में ये झरने, हवा, पंदेरों, गधेरों, वनपाखियों तथा रिमझिम बरखा से धुनें लेकर गढ़वाली को प्राणवान बनाए हुए हैं। जब व्यावसायिकता के इस अंधड़ में हमारी लोक संस्कृति तथा लोकभाषा नष्ट-भ्रष्ट हो रही हैं, ये एक ग्वाले की तरह भाषा के सुरम्य जंगल में कलम की सोटगी पकड़ उन शब्दों की भी रखवाली कर रहे हैं जो लोकस्मृति से विस्मृत होते जा रहे हैं। संस्कृति और भाषा के ह्रास के इस भयावह समय में भी कलम और सुर का यह सिपाही अपनी भाषा और संस्कृति को बचाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
नेगी जी शब्दों से बट्टी खेलते हैं। लोकमाटी में से खोज-खोजकर उठाए गए ये शब्द इनकी लेखनी से खेले जाते हुए इनके गीतों में अपनी स्फटिक आभा बिखेरते हैं। इनका शब्द वैशिष्ट्य भाषा के बुग्यालों, फूलों की घाटियों, हिंवाळी कांठियों की सैर का ही परिणाम है। एक फुलारी की तरह लोक से चुनकर हर हृदय के द्वार पर रखे जाते उनके पुष्प रूपी कतिपय शब्दों का वैभव इस प्रकार है :-
प्रकृति एवं जनजीवन संबंधी शब्दावली-
प्रकृति एवं जनजीवन संबंधी शब्दों के माध्यम से नेगी जी ने हमारी संवेदना की रक्षा का काम किया है। पहाड़ के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक वैभव को उजागर करने वाले शब्दों का इनके गीतों में समारोहपूर्वक प्रयोग हुआ है। इनकी लेखनी का स्पर्श पाते ही ये शब्द रसीले काफलों की तरह अंतर्मन में एक छपछपी लगा जाते हैं। लोकजीवन एवं लोक संस्कृति के अक्षय रस-स्रोतों से शक्ति प्राप्त करके ही इन्होंने गढ़वाली भाषा को ऊर्जा प्रदान की है। तभी तो ये आत्मविश्वास पूर्वक कह सके हैं –
मिट्ठी बोली मिट्ठी भाषा, ल्हीजा ई च समळौंण मेरा गौं मा….. । नेगी जी के गीतों में इसी मिट्ठी भाषा का शब्द सौष्ठव –
प्रकृति – हिमालै, सुर्ज, जोनि, गैणा, सर्ग, अगास, बरखा, गंगा, जमुना, पाणि, नयार
वनस्पति- बांज, बुरांस, कांस, देवदार, कुळैं, पय्यां, अयांर, माळू, ग्वीर्याळ, रंसुळा, कैल, रिंगाळ, सेमल, तोण, डैंकण, भीमल, खड़ीक, गैंठी, पीपळ, खर्सु, मोरु, कण्डाळि, मळसु, भंगेलु
फल- काफळ, बेडु, भमोरा, तिमला, मेळु, घिंघोरा, हिंसर, किलमोड़, तोतर, आम, अखोड़, स्यो, आरु, अनार, नारंगी
फूल- बुरांस, फ्यूंली, जई, सकीना
जीव-जंतु – गौड़ि, बळ्द, बछुरु, भैंसि, बागि, कुकूर, बिराळि, ढेबरा, बखरा, खाडु, लगोठ्या, बुगठ्या, स्याळ, घ्वीड़, बाघ, बांदर, मूसा, छिपाड़ा, मैर, पोतळी, चिमाड़ा, म्वारि, भौंर, गरूड़, चकोर, कफ्फू, घुघुती, घिंडुड़ि, हिलांस, चोळि
महीने (बारामास) – चैत, बैसाख, जेठ, असाड़, सौंण, भादों, कातिक, मंगसीर, पूस, मोऊ, फागुण
ऋतुएँ- मौळ्यार, बसंत, रूड़, बसग्याळ, चौमास, ह्यूंद
पहर- सुबेर, दोफरा, ब्यखुनि, रुमुक
मकान संबंधी- खोळी, देळी, द्वार-मोर, मोरि, डंड्याळि, तिबारि, छज्जा, सतीर, धुर्पुळू, ढैपुरा, ओबरा, पठाळि
बर्तन -ठेकि, कितली, परोठी, तौलि, डिग्चि, थकुलि, डौली, कसेरी
अनाज- ग्यूं, जौ, झंगोरु, कौंणि, चौंळ, भट्ट, गौथ, लय्या
भोजन सामग्री – खीर, दुदभाति भात, दाळ, खिचड़ी, मुंगाणी, रोटि, कोदाळी, भुज्जि, पकोड़ि, मूळै थिंच्वाणी, जख्या की तड़का, माण्ड, च्यापति, ग्यूंकि फुल्की, घ्यू, दूद दै छांछ, नौण , गुड़, चणा, भेली, खाजा, बुखणा, काखड़ी, मुंगरी, ऊमि, सैत
घरेलू एवं कृषि उपकरण- थमाळि, दाथि, कुटळि, जूड़ी, बक्सा जंदरी उरख्याळु, गंजेळी, कुलाड़ि, आरि, छतरु, सिलोटी, हौळ, डिल्लु
त्योहार – बिखोति, बग्वाळ, इगास, पंचमी, फूलपाती, होरी
देवी-देवता- गणेस, सिव, नारैण, नरसिंग, नागरजा, भैंरों, बजरंग, भगवती, सरसुती, केदार, बदरी, पण्डौं
लोकगीत/लोकनृत्य- झुमैलो, थड़्या, चौंफला, बाजूबंद
वस्त्र- झुलि, साड़ी, धोती, बिलोज, सदिरि, चदिरि, टल्खि, टोपलि
गहने- नथुलि, हंसुळि, मुरखलि, बिसार, सूत, चूड़ी, धागुला, झंवरा
श्रृंगार सामग्री -बिन्दी, बेंदुली, फोन्दि, सुरमा, टिकुलि, लालि, पौडर
रिश्ते-नाते-ब्वे, बोई, बाबा, नौनि, नौनु, बोडा, बोडी, कक्का, काकी, दादि, दादा, भै, बैण, भैजि, दिदा, बौ, भौजि, स्वामी, द्यूर, द्यूराण, जेठ, जिठाण, भेना, स्याळी, सासु, ससुर, ब्वारि, नाति, नतेणा, मयेड़ी, समदेण, सौत, गैल्या, सौंजड़्या
शरीरांग -दंतुड़ि, उंठिड़ि, आंखि, डेबळि , कंदुड़ि, मुक्क, मुखड़ि, गिच्चु, जीब, चौंठि, गौळि, मूण, कांध, जिकुड़ि, मुंड, अंगोठु, भट्यूड़, खोपरि, कपाळि, कंदुड़ि, लटुलि, धौंपेलि, हात, गलोड़ि, हटगि, हत्थि-खुट्टि, हतगुळि, पोटगी, गेर, फांड, घुण्डा, फिफना, कळेजी, कमर,
बीमारी – मुण्डारु, बुखार, दाड़ पिड़ा, पिसड़ा
समूहवाची -घिमसाण, फौज, कछड़ी, भीड़, पंचैत, कुटुमदारि, मौ, मवासि, पट्टी, कौथिग, रैली
जीवन की अवस्थाएँ- बाळापन, ज्वानि, बुढ़ापा
भाव एवं कार्य – भल्यार, खुद, सुदबुद, सक्क, स्येळि, निवाति, पुजै, अंग्वाळ, फाळ, बौलु, बिस्वास, सेवा, निंद, सगोर, मान, निसाब, भलै, बुरै, मजुरि, बिरधी, भयात, मनख्यात, चाल, जस, असंद, भरम, घंघतोळ, हौंस, यकुलांस, बैराग, बैम, भरमणा, भमाण, सांसु, टक, पिड़ा, आस, सेक्कि, उमाळ, त्रास, माया, प्रेम, खैरि, चैन, सरधा, सर्म, गैलु, तीस, कुतगळि, भताग, छुछकार, पाण, पछ्याण, किरपा स्याणि, असगार, फजितु, बिणास,
विशेषण शब्दों का सौंदर्य-
नरेन्द्र सिंह नेगी जी की रंगों की छटा बिखेरती शब्दावली में हिंवाळी कांठी चांदी तथा पितलण्यां मुखड़ी सूनै के रंग में रंगी नजर आती हैं। ‘किरमिची केसरी रंग की बार प्रेम के रंग में भिगो देती है। भाषा भी नीली, पिंगळी, हैरि लाल मुखड़ी लिए गुलाल मलने को उत्सुक दिखाई देती है।
स्वभाव संबंधी शब्द द्रष्टव्य हैं-
मयाळु, जिदेरि, हौंसिया, रंगमतु, रसिया, बौळ्या, मायादार, उदमातो, लाटी, खुदेड़, निरदैई, निठुर, रिसाड़, नखर्याळि, छुंयाळ, ज़ुल्मी, झूटा, खुसमिजाज
स्वाद-
मिट्ठी, खट्टि, कड़ि, चटपटु चरचरु, बरबरु, चलमला, मरचण्या
स्पर्श -गुंदक्यळी, निवाति, ताती, कठोर, कुंगळी
(नेगी जी की लेखनी से नि:सृत खड्योणी, निहोण्या, निरभागी तथा बेमान जैसे नकारात्मक विशेषण भी शिकवे-शिकायत के लहजे में ही सही पर संबोधित व्यक्ति के प्रति विशेष लगाव एवं अनुराग की प्रतीति कराते हैं।
सुपिन्या अर्थात् सपनों के लिए ‘चलमला’, मजाक के लिए ‘खट्टि’, गाळी के लिए ‘मिट्ठी’, माया के लिए ‘खोटी’ तथा बाटों यानी रास्तों के लिए ‘सौतेला’ जैसे विशेषणों का प्रयोग अनूठा है।)
उनके गीतों में प्रयुक्त कुछ विशेषण विशेष्य इस प्रकार हैं –
मायादार आँखि, तैलु घाम, बिगरैला बैख, रौंत्यळो मुलुक, अधीतो पराण, चटपटु ठुंगार, रूखा डांडा, मौळ्यां घौ, कंकर्याळू घ्यू, हौंसिया उमर, छुंयाळ आँखि, झुटा सुपिन्या आदि।
अनुकरणमूलक क्रिया विशेषणों का सौंदर्य-
नेगी जी के गीतों में अनुकरणमूलक शब्दों की द्विरुक्ति से बनने वाले क्रिया विशेषण शब्दों का प्रयोग बड़ी खूबसूरती से हुआ है। यथा- खिल्ल-खिल्ल हैंसद जांद, खित-खित हैंसण, धमा-धम्म हिटण, टप्प-टप्प ह्यूं -सी गळण, ठुमुक -ठुमुक हिटीकि ऐ, सुरक सुपिन्यों मा ऐक, घळ्ळ घूळण, चट्ट चीमिली, घट्ट घूट्यालि, झम्म झौळ लगण, खळ्ळ खतेण, खस्स रड़दि गयूं, गर्र निंद पड़ण, सराररा कुयेड़ी छैगे, हिरिरिरि बर्खा झुकी आंद, तराररा झुलि रुझैगे, झराररा जिकुड़ि झुराण तथा छुळ्ळ-छुळ्ळ देखण।
नरेन्द्र सिंह नेगी जी की शब्दावली को जब समूचा उत्तराखंड समझता है तो उनके गीतों में प्रयुक्त गढ़वाली शब्दों को ही मानक मानने में एतराज नहीं होना चाहिए। साफ शब्दों में हम कह सकते हैं कि नेगी जी गढ़वाली भाषा के ‘की बोर्ड’ हैं।
बीना बेंजवाल
(गढ़ नंदनी 2011-12 में प्रकाशित लेख का अंश)