‘छूटा पीछे पहाड़’- देवेंद्र मेवाड़ी
डॉ. अरुण कुकसाल
‘जांठी का घुंगुर, कैथें कनौं दुख-सुख, को दिछ हुंगर’
(लाठी के घुंघरू, किससे कहूं दुख-सुख, कौन देगा हुंकारी)
कुमाउंनी लोकगीत के ये बोल इस किताब में किस्सागोई देबी (देवेंद्र मेवाड़ीजी) को सुनने के लिए पाठकों को धाद (आवाज) लगाने जैसे ही हुआ। ‘मेरी यादों का पहाड़’ किताब में देबी ने अपने बचपन से किशोरावस्था की कथा-व्यथा लगाई थी। तब देबी ने जाते-जाते कहा था, ‘फिर मिलेंगे’। वैसे ही, जैसे एक छोटे से सफ़र को तय करने के बाद गाड़ी से उतरते ही हमारी नज़र उसके पीछे लिखे संदेश पर अक्सर जाती है कि ‘फिर मिलेंगे’। फिर ये तो, जीवन का सफ़र हुआ। मिलना ही था।
इस नई मुलाकाती किताब को देबी ने नाम दिया है ‘छूटा पीछे पहाड़’। इसमें युवा देबी की कथा-व्यथा के साथ झर-फर भी हुई। अब, जवानी में झर-फर सभी की होने वाली हुई। ‘मेरी यादों का पहाड’ की अगली कड़ी के रूप में ‘छूटा पीछे पहाड़’ देवेंद्र मेवाड़ी जी की नवीन संस्मरणात्मक किताब है। ‘मेरी यादों का पहाड’ नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया से वर्ष-2013 और ‘छूटा पीछे पहाड़’ संभावना प्रकाशन, हापुड़ से इसी वर्ष- 2022 में प्रकाशित हुई है।
देवेन्द्र मेवाड़ी जी को देश-दुनिया में लेखक, यायावर और विज्ञान किस्सागो के रूप में जाना जाता है। विज्ञान विषय को साहित्यिक शैली में लिखने में वे पारंगत हैं। उनका रचना संसार रोचकता और बहुआयामों में उजागर हुआ है। अब तक 30 से अधिक पुस्तकें उनकी प्रकाशित हुई हैं। आम जन में विज्ञान के लोकप्रियकरण के लिए उनकी 20 से अधिक पुस्तकें हैं। इनमें ‘विज्ञान और हम’, ‘विज्ञाननामा’, ‘मेरी विज्ञान डायरी’, ‘राही मैं विज्ञान का’, ‘विज्ञान वेला में’, ‘विज्ञान बारहमासा’, ‘कथा कहो यायावर’, ‘सौर मंडल की सैर’, ‘नाटक-नाटक में विज्ञान’, ‘विज्ञान की दुनिया’ ‘विज्ञान जिनका ऋणी है’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
‘किसान भारती’ पत्रिका के वे संपादक रहे हैं। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन और रेडियो एवं टेलीविज़न में लेखक और वार्ताकार के रूप में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता है। देवेन्द्र मेवाड़ी जी को उनके संस्मरणों और यात्रा वृतांतों से विशेष ख्याति मिली है। ‘मेरी यादों का पहाड़’ उनके बचपन की धरोहर के रूप में सामने आया है। बुक ट्रस्ट आफॅ इंडिया का यह प्रकाशन सर्वाधिक बिकने वाली किताबों में शामिल है। आधार प्रकाशन से ‘दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ’ और संभावना प्रकाशन से ‘कथा कहो यायावर’ किताब भी बेहद लोकप्रिय हुई है।
उत्त्कृष्ट विज्ञान लेखक और साहित्यकार के बतौर कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से देवेंद्र मेवाड़ी को नवाज़ा गया है। इनमें, ‘आत्माराम पुरस्कार’, ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार’, ‘ज्ञान-प्रौद्योगिकी सम्मान’, ‘राष्ट्रीय विज्ञान लोकप्रियकरण पुरस्कार’, ‘विज्ञान भूषण सम्मान’, ‘शिक्षा पुरस्कार’, ‘मेदिनी पुरस्कार’, ‘वनमाली विज्ञान कथा सम्मान’ आदि उल्लेखनीय हैं। सम्मानों की श्रृंखला में 30 जुलाई, 2022 को कोलकाता में देवेंन्द्र मेवाड़ी केन्द्रीय साहित्य अकादमी के प्रतिष्ठित ‘बाल साहित्य पुरस्कार-2021’ से विभूषित हुए हैं।
देवेंद्र मेवाड़ी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी है। वे विज्ञान लेखक, साहित्यकार, अध्येयता, घुमकक्ड़, प्रशिक्षक और मोटीवेटर हैं। जिंदादिल, जिम्मेदार और जानकार व्यक्तित्व में किस्सागोई की गज़ब की प्रतिभा ने उनको सामाजिक दायित्वशीलता को निभाने में मदद की है। इसलिए 79 वर्ष की उम्र में भी वे अपने जीवनीय ज्ञान, हुनर और अनुभवों को देश-दुनिया के दूर-दराज के इलाकों और स्कूल-कालेजों में जाकर बच्चों और युवाओं को सुनाते और समझाते हैं।
‘छूटा पीछे पहाड़’ के बारे में देवेंद्र मेवाड़ी जी का कहना है कि ‘मेरी जिंदगी की किताब है यह। वरक़-दर-वरक ज़िंदगी़। दूर पहाड़ के एक छोटे से गांव से चल कर पढ़ते-लिखते पहाड़ से दूर शहर-दर-शहर नौकरी करते बालक देबी के जीवन की आधी सदी से भी लंबी दास्तान है यह जिसमें पहाड़ पीछे छूटने का दर्द तो है ही, अनजान शहर में अपरिचित लोगों के बीच ज़िंदगी की राह खोजने की कोशिशों को भी बयां किया गया है। इसे वरक़-दर-वरक़ पढ़ते-पढ़ते आपको भी वे दिन, वे लोग मिलेंगे देबी को जिनका संग-साथ मिला।’
वैसे, देबी से पहाड़ कभी छूटा ही नहीं। पहाड़ छूटता कैसे? वरन, वो तो मन की सबसे नर्म तहों में और गहरा धंसता गया। मन-प्राण जो बसे हैं देबी के उसमें। देबी की ईजा (मां) ने उससे कभी बचपन में कहा था कि ‘परान उड़ गए तो ज़िन्दगी खतम, ठैरी।’ ईजा की बात थोड़ी भूलने वाला हुआ देबी उम्र के 79वें साल में भी। तभी तो, आज भी उसे पहाड़ के ही सपने आते हैं। उसने अपने मन के पंछी को साध लिया है। जब भी मन करता है, उसे पहाड़ की ओर लम्बी और ऊंची उड़ान के लिए भेज देता है, मल्यो (एक पहाड़ी पंछी/स्नो पिजन) की तरह। ‘छूटा पीछे पहाड़’ किताब देबी के जीवन की इसी लम्बी और ऊंची उड़ान का फैलाव है।
देबी को याद है कि, ओखलकांडा से इंटर करने के बाद ‘मुझे नैनीताल भेजने की तैयारी शुरू हुई। ब्लैजर का नीला कोट, सलेटी रंग की गर्म पेंट और कमीज़ तो उन्हीं दिनों सिलाई ही थी, नया पायजामा और घर पर पहनने की कमीज़ भी तैयार हो गई। ददा हल्द्वानी बाज़ार से एक दरी, गद्दा, चादर, और गांधी आश्रम की रजाई भी खरीद लाए। वे सब फोल्ड करके एक खाकी रंग के होल्डाल में चमड़े के दो लंबे फीतों से बंधे थे। कमर की पेटी की तरह उनमें भी कसने के लिए छेद और बकल थे। ददा टीन का एक बक्सा और उसके लिए एक ताला चाबी भी लाए थे ताकि मैं अपनी ज़रूरी चीजें उस बक्से में संभाल कर रखूं।’ (पृष्ठ-11)
जुलाई, 1962 के एक दिन देबी नैनीताल जाने को तैयार हुआ। घर से निकलते वक्त देबी ने अपनी भौजी (भाभी) के पैर छुये तो उन्होने आशीर्वाद दिया ‘जीते रहो देबी, ख़ूब पढ़ना और पास होना।’ और, देबी पढ़ाई और जिन्दगी के इम्तहान में पास होता गया। पर ये पास होना इतना आसान नहीं था। इसके कई पड़ाव और उतार-चढ़ाव थे। इनमें देबी जैसे ही फिसलने को हुआ कि उसे भौजी की बात चट्ट से याद आ जाती ‘जीते रहो देबी, ख़ूब पढ़ना और पास होना।’ देबी जानता था कि पहाड़ ही छूट रहा है परन्तु उसके संस्कारों से उसे कोई अलग नहीं कर सकता।
देबी के लिए नैनीताल सपनों का शहर था। उसे यह हिदायत आते ही मिल गई थी कि ‘नैनीताल आकर कोई तो अपनी जिन्दगी बना जाता है और कोई बिगड़ कर बर्बाद हो जाता है।’ उस दौर में, जिदंगी बनेगी अथवा बिगड़ेगी की कशमश में जवान हो रहा देबी विस्मत था। नैनीताल की रंगीन चकाचौंध से ही नहीं रिसते शहरी रिश्तों की असल से भी। नैनीताल के ‘नैन मट्टका’ में बिगड़नेे की आसान राह सामने थी। परन्तु, देबी जानता था कि उसकी जिंदगी का रास्ता वो नहीं है। उसे अपनी जिदंगी को संवारने का रास्ता खुद ही बनाना है।
अतंर्मुखी देबी संकोची जरूर था पर वक्त आने पर प्रतिरोध करने का साहस भी रखता था। सीनियर साथियों की जबरदस्ती चाय, सिगरेट और शराब पीने-पिलाने वाली ज्यादतियां जब हद से ज्यादा होने लगी तो उसने उनका साथ ही छोड़ना उचित समझा। गांव से सीधे शहर पहुंचे युवा देबी का स्वाभाविक संकोच, हिन्दी माध्यम से एकदम अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई, शहरी तौर-तरीकों में ढ़लना, मितव्यतता से अपनी जरूरतों को संयमित रखना, चतुर-चालाक लोगों से अपने को बचाये रखना और सबसे बड़ी बात इस अनजान शहर में सच्चे संगी-साथी का साथ पाना आसान नहीं था।
पर देर आये दुरस्त आये, चरितार्थ हुआ। देबी को अपनी अभिरुचि वाले दोस्त मिल ही गए। इसमें, लड़कपन से ही देबी के मन में अंकुरित लेखकीय प्रतिभा ने साथ दिया। ‘युवक पत्रिका’ में अपनी लिखी कहानी छपी देखी तो रात भर नींद कोसों दूर रही, पास नहीं आई। दोस्तों तक बात गई तो ‘अरे ये तो कहानीकार है’ की धूम मचनी ही थी। और, एक दिन तो गजब हो गया- ‘…सावधान! विश्राम! के बाद सुस्ताते समय एक कैडेट ने धीरे से पूछा-‘तुम देवन एकाकी हो?’ मैंने उसकी ओर अपरिचय से देख कर कहा- ‘हां’। वह बोला- ‘तुम कहानियां लिखते हो?’ ‘हां…’ मैंने सकुचा कर कहा। ‘मैं बटरोही हूं, लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’। मैं भी कहानियां लिखता हूं। फिर मिलना। तुमसे बात करनी है।’ (पृष्ठ-43)
और, आज 60 साल याने 6 दशक से भी ज्यादा का समय बीत गया है, बटरोहीजी ‘बुरांश का फूल’ तो मेवाड़ीजी ‘दाड़िम के फूल’ लिए, इन परम ज़िगरी मित्रों की बातें अनवरत जारी हैं। उस दौर में, मुखर साहित्यिक युवा बटरोही ने संकोची देबी की दोस्ती का दायरा बढ़ाया। अलग-अलग विधाओं के नव-सृजनशील युवा दोस्त यथा- लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’, देवेंन्द्र मेवाड़ी, रघुनंदन सिंह टोलिया, वीरेन्द्र डंगवाल, सईद, मिताली गांगुली, पुष्पेश पंत, बसन्ती बोरा, डी. एस. लायल, सुबोध दुबे, वेदश्रवा आदि ने मिल कर नैनीताल में ‘द क्रैंक्स’ संस्था का सूत्रपात किया।
और, ‘द क्रैंक्स’ संस्था के पहले अध्यक्ष बने प्रसिद्व शिक्षाविद प्रो. देवी दत्त पंत जो उस काल में कालेज के प्रधानाचार्य थे। उसके बाद, कहानी लिखना, ना9टक लिखना-करना, तैराकी, स्कैटिंग, घुड़सवारी और एनसीसी ने देबी के संकोच को ‘परे हट’ कहकर उसके आत्मविश्वास को बढ़ाया। नैनीताल में कालेज की पढ़ाई खत्म होने को हुई तो जीवकोपार्जन की यात्रा स्वागत में खड़ी थी। पर यह यात्रा स्वागत के साथ चुनौतियों को भी साथ लाई थी। देबी का मन-मयूर प्रांतीय वन सेवा में जाने को हुआ। परन्तु, दो बार की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी नियुक्ति नहीं मिल पाई। जीवन का आगे का रास्ता उसे कहीं और से तय जो करना था।
एमएससी, बॉटनी की उपाधि मिली ही थी कि देबी का भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (पूसा इंस्टीट्यूट), दिल्ली में शोध सहायक की नौकरी में चयन हो गया। मन-मस्तिष्क में कृषि वैज्ञानिक और साहित्यकार बनने का सपना लिए जुलाई, 1966 को दिल्ली आना हुआ। हिमालय का सुकुमार देबी को गर्मी से बेहाल होना ही था। एक बार तो काम करते-करते बेहोश तक हो गया। पर सही कहते हैं कि, जीवन और जीवका सब कुछ सिखा कर साध भी देती है।
दिल्ली तो दिल्ली हुई, उसकी दिल्लगी से भला कैसे कोई बच पाया? अच्छे और मददगार मिलते गए पर केवल फायदा उठाने वाले लोग भी अपने ही आस-पास थे। देबी सोचता ‘बचपन से हमने संस्कारों में क्या सीखा? कि, सबके साथ मिल-जुल कर रहो, झूठ मत बोलो, किसी को धोखा मत दो, ऐसा कुछ मत करो जिससे दूसरे का दिल दुखे, हर किसी की मदद करो, बग़ैरह। मैं देख रहा हूं, यहां शहर में तो हमारे आसपास कई लोग ठीक इसका उल्टा करते हैं।….सामने वाला तुमसे जो कह रहा है, पता नहीं वह सही भी कह रहा है या नहीं। ऐसा लगता है जैसे यहां हर समय ज़िन्दगी का कंपीटिशन ही चल रहा है जिसमें हर कोई एक दूसरे से आगे निकल जाने की जुगत में जुटा है। शांति नहीं है यहां। लेकिन, रोजी-रोटी ठैरी, करनी ही हुई नौकरी। वहां पहाड़ में ही रोजगार मिल जाता तो यहां परदेस आता ही क्यों?’ (पृष्ठ-118)
देबी जीवन की विसंगतियों से बैचेन होता तो उसे साहित्यकार शैलश मटियानी का उसको लिखा वो पत्र याद आ जाता जिसमें उन्होने चेताया था ‘देवेन, अपने जीवन में किसी पेड़ की तरह बढ़ने की कोशिश करना जो स्वयं अपनी जड़ों पर खड़ा रहता है, उस बेल की तरह नहीं जो दूसरों के सहारे आगे बढ़ती है और सहारा गिरने पर खुद भी गिर जाती है।’ (पृष्ठ-54) साहित्यकार भीष्म सहानी की डांट भरी सलाह तो देबी पर गज़ब का असर कर गई। उन्होने नाराज़गी के साथ कहा ‘इस बात को सदा याद रखना कि अपने काम से नाम बनता है। तुम्हें जीवन में देवेंद्र मेवाड़ी बनना है, अमोघ वर्ष नहीं। तुम्हारे लेखन से लोग कल तुम्हारा नाम जानेंगे।’ (पृष्ठ-96)
शैलेश मटियानी और भीष्म सहानी की सलाह को अपने मन-मस्तिष्क में जीवन के ध्येय विचार की तरह आज भी जीवंत रखे है, देबी। पूसा इंस्टीट्यूट की नौकरी ने एक संभावनाशील वैज्ञानिक के रूप में देबी को तराशा। एक तरफ नौकरी तो दूसरी ओर साहित्य की दुनिया। विज्ञान और साहित्य ने पहले तो देबी से दोस्ती की और फिर वे एक साथ देबी में आत्मसात हो गए। देबी की अब कहानीकार के साथ-साथ विज्ञान लेखक के रूप में पहचान बनने लगी। हिमांशु जोशी, राजेन्द्र यादव, मनोहर श्याम जोशी, बटरोही, भीष्म सहानी, शैलेश मटियानी के साथ और मार्गदर्शन ने उसकी साहित्यिक समझ को सही दिशा में विस्तार दिया।
मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़का रोजगार पर लगा और शादी की झर-फर के लिए परिवारजन लालायित हो जाने वाले हुए। देबी तो साधु बनना चाहता था, पर परिवारवालों के सामने साधुगिरी नहीं चल पायी। देबी के लक्ष्मी जी से विवाह की झर-फर 4 मई, 1969 को हुई। बटरोहीजी भी शादी में आये। दोनों फास्ट फ्रैंड जो ठैरे। देबी की बरात का किस्सा तो रोचक हुआ। इस बहाने उस समय के पहाडी जीवन की परिस्थितियां भी समझी जा सकती हैं- ‘ग्यस किलै? क्यों, पैट्रोमैक्स क्यों चाहिए? किसी घराती ने पूछा।
‘वहां गांव में कह आया हूं कि बारात पहुंच जाने पर ग्यस हिला कर इशारा करेंगे कि हम पहुंच गए हैं। तुम लोग भी घर के पास से ग्यस हिलाना।’ बाज्यू ने दो-तीन लोगों के साथ सामने की धार (पहाड़ी) से हमारे गांव-घर की ओर जलता पैट्रोमैक्स हिला कर इशारा किया कि बारात पहुंच गई है। तभी वहां से भी पैट्रोमैक्स हिलाया गया। संदेश पहुंच गया।’ (पृष्ठ-129)
शादी के तुरंत बाद देबी और ब्योली लक्ष्मीजी गृहस्थी का सामान-बाल्टी, दो थालियां, दो गिलास, एक लोटा, चार कटोरियां, दो भगौने, डाडू (करछुल), पनेऊ (पलटा) और एक कुकर। हौलडाल में दरी, गद्दा, चादर और रजाई। इस लटि-पट्टी के साथ हल्द्वानी से दिल्ली ट्रेन से पहुंचे।
(ये वर्णन मैं इसलिए भी कर रहा हूं कि मुझे याद आया कि शादी के तुरंत बाद मैं भी हू-ब-हू ऐसे ही सामान के साथ कोटद्वार से लखनऊ अपनी ब्योली दीनाजी के साथ पहुंचा था। कमोवेश, हमारी पीढ़ी के लगभग सभी मित्रों की शादी के बाद धर्मपत्नीजी के साथ पहली बार महानगरों की ओर जाने की यादें लगभग ऐसी ही होंगी।)
इधर शादी हुई और उधर देबी को दिल्ली से अलविदा कहने का समय आ गया। पूसा इंस्टिट्यूट, दिल्ली की 3 साल स्थाई नौकरी को छोड़ कर देबी ने सन् 1970 में कृषि विज्ञान में मौलिक लेखक और अनुवादक के रूप में पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में नौकरी आरंभ की। विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘किसान भारती’ और ‘पंतनगर पत्रिका’ के संपादक तथा कम्यूनिकेशन विभाग में पत्रकारिता का अध्यापन उसके कार्य-दायित्वों में शामिल रहा। इसी नौकरी के दौरान देबी ने राजस्थान विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया।
पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में कार्य करते हुए देबी को नौकरी, लेखक और नई गृहस्थी के अनुभवों का नया आयाम मिला। यहां देबी ने अनुवाद और संपादन की बारीकियां सीखी, दिन-रात खूब अध्ययन करके अपने ज्ञान को और पुख़्ता किया। वह वैज्ञानिकों, कृषकों और आम जन के बीच एक सशक्त माध्यम बनाने के काम में जुट गया। वह वैज्ञानिकों के बीच रहते हुए आम-जन की ओर मुखातिब रहता। क्योंकि, देबी जानता था कि जीवन के सच्चे सबक विद्वानों से ज्यादा आम आदमी से मिलते हैं।
पंतनगर प्रवास में पिता किशन सिंह मेवाड़ी, बटरोही, दुष्यंत कुमार, वीरेन डंगवाल, लोक कृषि वैज्ञानिक चंद्रशेखर लोहुमी, इन्द्रासन, कब्बू, शेरा और बशेश्वर के रोचक किस्सों में साहित्य पारखी सफाईकर्मी इंदर से मिली जीवनीय शिक्षा का एक अंश देखिए- ‘मैंने प्यार से पूछा- ‘इंदर तुम्हें कोई और काम नहीं मिला?’ ‘क्यों, इस काम में क्या बुराई है। मैं मेहनत से यह काम करता हूं जिसकी पगार मुझे मिलती है। मज़दूर मज़दूरी करता है, किसान खेती करता है-क्या ये काम दफ़्तरों में बैठे अफसरों और बाबुओं के काम से कमतर हैं?’ (पृष्ठ-156)
मस्तमौला मित्र वीरेन डंगवाल नैनीताल में लक्ष्मीजी के भी सहपाठी रहे। पंतनगर में मेहमान बने वीरेन ने खाना खाते हुए मजाक में लक्ष्मीजी से पूछा- ‘लछिम बौ, एक बात बताओ। हमारी क्लास की लड़कियां क्या कहती थी मेरे बारे में?’ ‘गुंडा-बदमाश और क्या! सब तुम्हें तेज़ समझती थी।’ लक्ष्मी ने कहा तो ज़ोर से हंसा और मेरी ओर मुखातिब हुआ-‘अब देखो यार देबदा, मुझ जैसे शरीफ लड़के के लिए क्या कहती थीं लड़कियां! तुम बताओ, मैं सीधा-सादा था कि नहीं?’ मैंने कहा- ‘थे, हमारे दोस्त तो सीधे-सादे ही होने वाले हुए।’ (पृष्ठ-189)
‘छूटा पीछे पहाड़’ किताब देवेंद्र मेवाड़ी जी की जीवनीय यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभवों और यादों में सिमटी नहीं है। वरन यह उससे आगे बीसवीं सदी के उत्तराखण्डी जन-जीवन की तस्वीर को भी सामने लाई है। इसमें 60 से 80 के दशक का नैनीताल, दिल्ली और पंतनगर झिलमिलाता है। उस दौर में देश-दुनिया के वैज्ञानिक और साहित्यिक मिज़ाज का उल्लेख इसे पठनीय और महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य में प्रतिष्ठित करता है।
यह किताब देवेंद्र मेवाड़ी जी के साथ-साथ नामचीन लोगों यथा- साहित्यकार हिमांशु जोशी, राजेन्द्र यादव, मनोहर श्याम जोशी, भीष्म सहानी, शैलेश मटियानी, मोहन राकेश, कमलेश्वर, गंगा प्रसाद विमल, कैलाश शाह, रमेश उपाध्याय, लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’, ‘प्रयाग शुक्ल, दुष्यंत कुमार, वीरेन डंगवाल आदि के अन्जान, अछूते जीवन पक्षों और प्रसंगों को भी सामने लायी हैं। किताब में शैलेश मटियानी कहते हैं ‘सच कहता हूं देबेन, बचपन के अभावों को आदमी जीवन भर नहीं भूलता। मन में भूख बैठी रहती है और कभी नहीं मिटती। कभी भी नहीं। समझ रहे हो?’ (पृष्ठ-102)
मैं जिंदगी की इस किताब और आगे पढ़ना चाहता हूं। पर देबी की चुप्पी मुझे कचोटती है। मैं कहता हूं- ‘तुम तो चुप हो गए? क्या हुआ देबी बोलो? कहो, कथा कहो देबी।’ ‘कहूंगा, आगे की कथा भी कहूंगा। लेकिन, गला भर आया है, अभी नहीं बोल पाऊंगा। थोड़ा विश्राम कर लूं ईजू, फिर सुनाऊंगा आगे की कथा। ठीक है?’ ‘ओं, लेकिन जल्दी आना देबी।’ ‘हां ईजू, जल्दी आऊंगा।’ (पृष्ठ-211) मुझे इस समय किसी बीते सफर में गाड़ी से उतरते ही तुरंत आगे की ओर चलती वो गाड़ी याद आ रही है, जिस पर लिखा था ‘फिर मिलेंगे’!
‘छूटा पीछे पहाड़’ किताब संभावना प्रकाशन, हापुड़ ( मोबाइल- 7017437410 ) और अमेजॉन पर उपलब्ध है।