धारा के विरुद्ध ‘मेरा जीवन प्रवाह’
डॉ. अरुण कुकसाल
अग्रज चमनलाल प्रद्योत जी 7 अगस्त, 2022 की सांय को इस इहलोक से बैकुण्ठ धाम की अनंत यात्रा में विलीन हो गए। उनकी सम्पूर्ण शानदार जीवन-यात्रा हमारे लिए असल जीवनीय शिक्षा है। ‘सनद रहे, नई पीढ़ी इस किताब को इसलिए भी पढ़े कि वे गम्भीरतापूर्वक यह समझ सके कि उनके सुखद और सम्पन्न वर्तमान को लाने के लिए अग्रज पीढियों ने अपने जीवनकाल के सर्वोत्तम समय और संसाधनों को कैसे खपाया था।’
‘घोड़ीखाल के इर्द-गिर्द ढलानों पर मैं बैठा-बैठा प्राइमरी स्कूल के प्रांगण में अध्ययनरत बच्चों की तरफ देखता। वे पंक्तिबद्ध होकर ईश-वंदना गाते, कवितांए पढ़ते, अध्यापक उन्हें पढ़ाते और मध्यान्तर में वे खेलते। मेरा मन करता कि मैं भी स्कूल में होता तो कितना अच्छा होता। मैं ललचाता।
उम्र बढ़ती गई और मेरी यह चाह तीव्र होती रही। परन्तु स्कूल से विरक्त रखने के लिए मैंने अपने मां-बाप को कभी नहीं कोसा। मां-बाप की मजबूरी मेरे अन्तर्मन में गहरे से बैठ गई थी। अतः उनके सामने स्कूल जाने की मेरी ललक कहीं दब सी जाती थी। मैं दिवास्वप्न देखता और अपने को स्कूल में बच्चों के बीच पाता। बहुत आनन्दित होता। छुट्टी होती और छात्र के रूप में मैं घर पहुंचता। तभी जानवरों की आवाज से हड़बड़ाहट में मेरी तंद्रा टूट जाती और मैं फिर चरवाहा बन जाता।
स्कूल की छुट्टी होते ही मैं भी स्कूल से वापस आने वाले दोस्तों के साथ-साथ घर की राह पर होता। बस फर्क इतना होता उनके कंधों में स्कूली बस्ते का बोझ होता और मेरा बोझ मेरी जिम्मेदारी में साथ-साथ चल रहे गांव भर के जानवर होते। इस बोझ से मैं पीछा छुड़ा कर स्कूल जाना चाहता था। मेरी स्कूल जाने की तीव्र इच्छा, वर्षों इसी तरह ललकती रही और उसे मैं आकाश से तारे तोड़ने के समान समझता रहा।
मैं दसवीं कक्षा में चला गया था और तिमाही-छमाही परीक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहा। उन दिनों पौड़ी-कोटद्वार मोटर मार्ग को पक्का करने के लिए रोड़ियां तोड़ी जा रही थी। मैं भी इसी काम में शामिल हो गया। ग्राम डोबल्या और परसुण्डाखाल के मध्य मार्ग पर रोड़ियां तोड़कर मैंने अपनी आगे की पढ़ाई के लिए कुछ मुद्रा अर्जित कर ली थी। आज जब मैं उस सड़क पर गुजरता हूं तो सड़क-निर्माण में अपने योगदान को याद करके अपनी कर्मठता और आत्म विश्वास पर गर्व होता है।
मैं आई.पी.एस. में चयन के उपरान्त सीधे अपने गांव गया तो मेरी मां बजाय खुश होने के रोने लगी। मां से रोने का कारण पूछा। उसका विचार था कि पुलिस की नौकरी पकड़कर मैं लोगों को सताऊंगा, वह मुझे समझाने लगी, ‘बेटा इस अफसरी को छोड़। इससे बेहतर तो यह होगा कि तू कहीं बाबू या चपड़ासी बन जा. मैने मां का समझाया और उसे आश्वस्त किया कि मैं, उसकी अपेक्षानुसार ही अपने पुलिस दायित्व का निर्वाह करूंगा।
मैंने न कोई बडे सपने देखे, न कोई महत्वाकांक्षाए ही पाली। जो प्राप्त हुआ उसे विनम्रता/कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया और उसी में सन्तुष्ट रहा। जो नहीं मिला उससे निराश नहीं हुआ। लेकिन यह अहसास हमेशा साथ रहा कि जो भी और जब भी मिलेगा, वह कर्म ही का फल होगा। अतः कर्म-पथ पर डटे रहो, लापरवाह मत होओ और निराशा के चंगुल में मत फंसो। जीवनभर इसी सिद्धांत पर चला और बहुत कुछ मिला भी।
उक्त अशं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी वरिष्ठ आई.पी.एस. अधिकारी एवं यशस्वी साहित्यकार चमन लाल प्रद्योत की आत्मकथा ‘मेरा जीवन प्रवाह’ पुस्तक के हैं। इस किताब में उनके जीवन के क्रमबद्ध पड़ावों के ऐसे कई अन्य संघर्षों का लेखा-जोखा है। प्रद्योत जी ने सीधी-सपाट भाषा में जीवन में जो भोगा, हुआ, देखा और समझा उसे बेबाकी से अपनी आत्मकथा में सार्वजनिक कर दिया।
यह उनकी लेखकीय ईमानदारी, हिम्मत, उदारता और साफगोई का ही कमाल है। ऐसा करके उन्होने पाठकों को भी अपनी-अपनी जिन्दगी के सच को स्वीकार करने का हौसला प्रदान किया है। इन अर्थों में यह जीवनगाथा केवल प्रद्योत जी की न होकर एक आम व्यक्ति की कथा-व्यथा का बहीखाता है। प्रद्योत ने अपनी आत्मकथा को संवेदनाओं की सरिता में निर्बाध रूप से बहने दिया है। उसे बांध कर एक निश्चित दिशा देने की उन्होने अनावश्यक चेष्टा नहीं की है। पहाड़ी नदी की तरह एक ठेठ पहाड़ी आदमी के निरंतर प्रवाहमान व्यक्तित्व की कहानी है यह, जिसे कहीं ठौर नहीं। और जिसकी नियति मैदान की ओर ही बहने की होती है।
किताब में आज से 80 साल पूर्व के पहाड़ी जीवन जिसमें चारों और अभाव ही अभाव थे परन्तु प्रकृति प्रदत्त जीवंतता हर जगह मौजूद थी को टटोला जा सकता है। ग्राम- भीमली तल्ली (पालसैंण तोक), पट्टी- पैडुलस्यूं, जनपद- पौडी गढवाल में 3 मई 1936 को जन्में चमन लाल प्रद्योत आर्थिक अभावों के कारण 9 साल की उम्र तक स्कूल नहीं जा पाये थे।
इस किताब में घनघोर आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक विषमताओं और विपदाओं से जूझते हुए आत्मकथा का नायक अपने जीवन के समय दर समय के दृड संकल्पों को कठोर संयम, मेहनत और निष्ठा के बल पर हासिल करता जाता है। पर ऐसा कुछ है कि, जो उससे हर समय अनायास ही छूटता जाता है। यद्यपि उसको पाने की लालसा और चाह उसमें दिखती नहीं है, परन्तु उसकी भावनात्मक बैचैनी उसे हर समय इनसे बांधे रखती है।
वास्तव में, यह अकेले प्रद्योत जी की ही बैचेनी नहीं है वरन उस पीढ़ी के हर उस पहाड़ी व्यक्ति की है, जिसने नाम एवं धन तो खूब कमाया परन्तु जिस समाज में वह पला-बढ़ा और पढ़ा-लिखा वह समाज वहीं का वहीं रह गया। नतीजन उसके मूल समाज से अलगाव की पीड़ा उसे हर समय उद्धेलित करती रहती है। यह पुस्तक इन अर्थों में भी महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंडी समाज से पहली पीढ़ी के रूप में भारतीय पुलिस सेवा में चयनित चमन लाल प्रद्योत ने अपने 32 साल के पुलिस महकमे के अनुभवों को उद्घाटित किया है। पुलिसिया रौब-दाब से दूर रहकर विकट से विकट परिस्थितियों में भी सामान्य व्यवहार से समस्याओं को सुलझाया जा सकता है, इसके अनेकों उदाहरण इस पुस्तक में है।
नमन पुण्य आत्मा नमन!