हेलंग आन्दोलन के साइड इफ़ेक्ट
रमेश पाण्डेय कृषक
हेलंग और मन्दोदरी देवी आन्दोलन के उभार के साथ ही सर्वोदई यों का एक वर्ग हेलंग और मन्दोदरी देवी को रैणी और गौरादेवी के साथ जोड़ कर दिखाने और स्थापित करने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा है। थोड़ा सा पलट कर देखा जाए तो गौरादेवी और मन्दोदरी देवी दोनो भिन्न स्थितियां हैं। रैणी की जिस घटना को मीडिया ने चिपको कहा वह घटना लम्बे समय से चल रहे जंगलात के आन्दोलन के बीच की वह घटना थी जिसमें गांव की महिलाओं का सामना बाहरी मजदूरों से था तथा मजदूर भाग भी ग्रे थे।
हेलंग की घटना इस दोर की है जब पहाड़ पर कहीं कोई आन्दोलन नहीं था विपरीत इसके जुम्मा-जुम्मा दो महीने पहले बहुत ही क्रूरता के साथ सरकार ने लोहारी गांव खाली करवा कर पूरे माफिया तन्त्र को कालर खड़े करने की इजाजत जैसी दे दी थी।
हम यह भी नहीं भूल सकते हैं कि तीन एक महीने पहले रैणी गांव के आसपास आई ग़ैर चौमासी आपदा के बाद जोशी मठ छेत्र के सामाजिक कार्यकर्ताओं की उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका को बड़े जज ने याचिकाकर्ताओं पर जुर्माना लगाते हुए यह कहा कि याचिकाकर्ता सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हैं। याचिकाकर्ताओं में एक गौरादेवी का भतीजा भी था।
इस घटना के बाद पर्यावरण के नियम कानूनों की छाती पर दालें दल रहीं विनाशकारी ताकतें तो फूली नहीं समा रहीं थीं।
ऐसे समय पर जब सत्ता, न्यायपालिका, मीडिया और तमाम तमाम सामाजिक संगठन उत्तराखंड के मूल निवासियों के अधिकारों और हक हकूकों को फूटी आंख भी देखना पसंद नहीं कर रहे हैं तब हेलंग से एक नाम उभरा है मन्दोदरी देवी। यह नाम मजदूरों से नहीं वरन सीधे ताकतवर सत्ता से लोहा लेते हुए सामने आया है जिसे नयी दिशा दिखाने वाले आन्दोलन के रूप में पहाड़ हाथों हाथ ले रहा है।
मित्र स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिलाड़ी का आन्दोलन या ब्रिटिश कुमाऊं गढ़वाल में चला जंगलात का आन्दोलन ब्रिटिश द्वारा स्थापित औपनिवेशिक वन प्रबंधन को खतम कर पारम्परिक वन प्रबंध को लौटाने का आन्दोलन था जो आजादी मिलने के बाद उम्मीद के सहारे ठहर गया था कि अपनी सरकार सब ठीक कर देगी। १९४७ से १९७० तक लम्बे इन्तज़ार के बाद सत्तर के दशक में वही आन्दोलन पुनर्जीवित हुआ जिसे बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत मीडिया की ताकत से उस आन्दोलन को चिपको शब्द के सहारे भटकाया ही नहीं गया वरन् और अधिक कठोर कानून हम मूल निवासियों पर थोप दिये गये। हो सके तो कभी चिपको के साइड इफेक्ट्स पर भी विमर्श करने की हिम्मत जुटाने का प्रयास करें। बेहतर होता यदि मन्दोदरी देवी के आन्दोलन को कामरेड गोविन्द सिंह के छीनो झपटो से जोड़ कर देखने की हिम्मत करते! फिलहाल मन्दोदरी देवी वह धारा है जो पहाड़ पर पहाड़ के मूल निवासियों को उस दिशा में आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही है जो जरूरी और सही दिशा है।