पहाड़ की घसियारी व खेती के सवाल
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
हाल ही में प्रसिद्ध लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी का एक गीत “सयाली रामदेई” रिलीज हुआ है जिसे लोग खूब पसंद कर रहे हैं. गीत का सार तत्व यह है की फोरेस्टर जंगल में अपनी ड्यूटी पर है तभी कुछ महिलाओं का झुण्ड जंगल में बांज घास काटने आना होता है. और महिलाएं मौका देकर भाग जाती हैं लेकिन रामदेई पकड़ में आ जाती है. इतिफाक से फोरेस्टर रामदेई का रिश्ते में जीजा लगता है. फोरेस्टर रामदेई की रिपोर्ट नोट कर देता है. रामदेई रोती, बिलखती मिन्नतें करती है आखिरकार, फोरेस्टर रामदेई को भविष्य की हिदायत देकर छोड़ देता है. अपने पहाड़ के जंगलों की इन ब्यथा कथाओं को हम न जाने कब से सुन रहे है, जंगलात वाले इतने निरीह फिर भी कभी नहीं रहे की गिरफ़्तारी की नौबत आ जाये. और आज जबकि पहाड़ों से लोग भाग रहे है सरकार कह रही है की सीमान्त के लोगों को गांव छोड़ने से रोकने के उपाय किये जायें वही सीमान्त जनपद चमोली में एक पूरा पुलिसिया टाइप दस्ता गसियारिनों का घास छीनकर गिरफ्तार कर दे रहा है. आखिर हम पहाड़ के लोग किस दुनिया में जी रहे है एक और बड़ा सवाल खड़ा हो जा रहा है.
पहाड़ की माता बहिनें पहाड़ की धरती से अपने निरीह पशुओं के लिये चारा पत्ती लेने गयी, बरसात के इस मौसम में किसी तरह ढलुआ पहाड़ी से घास चारा लेकर सड़क पर क्या पहुंची की सामने देखा तो पुलिस भी नहीं बल्कि फौजियों जैसी पोसाक में महिला पुरुष सैनिक टाइप दर्जनों उन महिलाओं पर इस कदर टूट पड़े जैसे चमोली के सीमान्त पर कोई चीनी महिलाएं घुस आये हों, फिर छीना- झपटी का दौर चला, महिलों को गिरफ्तार कर घंटों भूके प्यासे कैद में बिठा कर रखा गया. भला हो सोशल मीडिया का जिसने इसकी विडियो को प्रसारित कर उत्तराखंड की मात्र शक्ति व उसके अस्तित्व व उसकी बर्तमान औकात को सामने ला दिया.
इस प्रकरण का भी वही हाल होना है जैसे होता आया है, कुछ दिन तक हो हल्ला होगा, धरना- प्रदर्शन, ज्ञापन फिर मुख्य सेवक का ट्वीट आ ही गया है की प्रकरण की जांच के आदेश कर दिए गये है. यानी घसियारी योजना पर मिटटी पढ़ जायेगी. पिछले दो दसक से अपने पहाड़ी राज्य में यही तो हो रहा है. जहाँ भी जल विद्युत या इस तरह की परियोजना क्षेत्र हैं, वहां सबसे पहले केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल तैनात कर, वहां के स्थानीय भोले भाले लोगों को परियोजना के इलाके से दर बदर कर दिया जाता है. उनको अपने घर, छानियों, गांवों, जंगलों, मठ-मंदिरों, समशान घाटों तक पहुँचने के लिये जूझना पड़ता है. टिहरी बांध की कहानी से सभी परिचित है घनसाली-जाखनिधार- श्रीनगर आने जाने वालों को कई बार बांध के ऊपर की सड़क से नहीं जाने दिया गया, लोगों को इस हेतु कई सालों तक जूझना पड़ा था.
ये तो थी घसियारी प्रकरण से उपजे सवाल. बड़े जोर शोर से कहा जाता है की उत्तराखंड की रीढ़ पशुपालन व खेती है. पशुपालन की बची खुची रीढ़ की हड्डी टूटते तो सभी देख रहे हैं. इधर जैविक खेती का सपना पालते – पालते उत्तराखंड के नेता व राजनीतिक पार्टियाँ दो दसकों से अभी तक सोयी हुई सपनों में ही जी रही है और दूसरी और कथित तौर पर जैविक खेती में लगे प्रसासनिक बैल इतने मुटिया गये की वे अपनी जगह से उठ भी नहीं पा रहे. ऐसे प्रसासनिक बैलों व उनके घर्या बैलों की करतूतों का भंडाफोड़ की तो सुरुआत हुई है. जब तक और निचले स्तर तक जांच नहीं हो पाती, तब तक समझो कि यह केवल ट्रेलर है.
उत्तराखंड राज्य बनने के 2-3 सालों में कृषि विविधिकरण परियोजना लागू की गयी थी सपना था खेती, पशुपालन, उद्यानिकी, बानिकी, सिंचाई, जलागम जैसे मिलते जुलते विभाग समन्वित रूप से मिलकर राज्य में जैविक खेती, उन्नत पशुपालन आदि कार्यों को आगे बढ़ाये. उस वक्त पहाड़ के प्रसाशनिक अधिकारी डॉ. आर.एस. टोलिया ने इस अभियान को काफी मेहनत से आगे बढ़ाया, एक आशा की किरण दिख रही थी. उनके पास से जैसे ही यह विभाग हटा, कारिंदों की करतूतों ने ऐसा समां बांधा की उसके बाद हिमालयी आजीविका परियोजना व बाद में एकीकृत आजीविका परियोजना यानीं नाम बदलता रहा और परियोजना अधिकारीयों व उनके कारिंदों की आजीविका का प्रमुख आधार बनता चला गया. जमकर खरीद फरोख्त पर ही फोकस रहा. करोड़ों रुपये के कृषि औजार गांव – गांव में जंक लगकर सड़ते रहे, आज भी सड़ रहे है. किसानों को बिचौलियों से बचाने के लिये सहकारी संघटन बनाये गये, लेकिन आज तक बिचौलियों के चक्र को नहीं तोड़ पाए, सहकारिता भवनों का निर्माण किया गया वे सफ़ेद हाथी बने हुए है. सहकारी समितियों को लाखों रुपये बांटे गये उसका हिसाब किताब कर लिया जाये तो भ्रस्टाचार की गंगा का उद्गम पता चल जायेगा. गांव की खेती किसानी की हालात आज भी वही है बल्कि उससे भी बुरी है जहाँ से सुरुआत हुई थी.
मूलभूत सवाल यह है की जब तक जो भी बची कृषि भूमि है उसकी चकबंदी नहीं की जाती तब तक जैविक खेती की परिकल्पना पूरी नहीं हो सकती. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है की जैविक प्रमाणीकरण एक कठिन प्रक्रिया है. जिस को पूरा कर पाना किसानों के लिये किसी बबाल से कम नहीं. जैविक कृषि प्रमाणीकरण एक अंतर रास्ट्रीय बैज्ञानिक प्रक्रिया है. जो कई चरणों से गुजरती है. इस वजह से हमारे देश का कृषि उत्पाद विशेषकर जड़ी – बूटीयां अंतर रास्ट्रीय बाजारों में नहीं बिक पाता, लिहाजा किसानों को मन मारकर अपने उत्पादों को बिचौलियों को बेचने के लिये मजबूर होना पड़ता है.
आजकल पहाड़ के गांवों में धान की रोपाई चल रही है. अच्छी पैदावार के लिये किसानों को उर्वरकों का इस्तेमाल करना पढ़ रहा है. इतने सालों बाद भी वे इस हेतु मजबूर है. उत्तराखंड में उद्यान, सब्जी से लेकर हर फसल में जमकर रासायनिक उर्वरकों व कीट नाशकों का प्रयोग हो रहा है. किसान कम कृषि जोत व समय में अधिक पैदावार चाहते है. जैविक खेती के उत्पाद लम्बा समय लेते है, अगर इस तरह के उत्पाद तैयार कर भी दिए, तो बाज़ार समय पर उपलब्ध नहीं हो पाता, लिहाजा किसान हतोत्साहित होकर फिर वापस पुराने ढर्रे पर आ जाता है.
कुल मिलकर लब्बोलुआब यह है कि जब तक भूमि की चकबंदी नहीं होती या चकबंदी जैसी कुछ ब्यवस्ता नहीं होती तब तक इन सारी एक्सरसाइज का कोई मतलब नहीं बनता. अब चाहे मंत्री-संतरी यूरोप की सैर करे या श्रीलंका की हाथ कुछ आने वाला नहीं. वैसे सरकार के इन विदेशी कृषि पर्यटकों को यूरोप की बजाय भारत के उत्तर पूर्व के राज्यों व विशेषकर श्रीलंका की यात्रा पर जाकर वहां के हालातों को देखना चाहिये था कि जबरदस्ती जैविक खेती की सनक से देश कैसे भुखमरी के कगार पर खड़ा हो जाता है. आशा की जा सकती हैं कि हमारे गरीब उत्तराखंड राज्य के, विदेशी कृषि पर्यटक वापस आकर जनता के सामने, धरातलीय जैविक खेती का स्वरुप प्रस्तुत करें की वे वहां से क्या शीखकर आये है व उसे कब से धरातल पर उतारना शुरू कर रहे हैं.
अंततः
हमारे उत्तराखंड के पर्दे के पीछे गुमनाम पत्रकारिता, लेखन, शोध व सामाजिक कार्यों के पुरोधा रहे साबली, चंबा, टिहरी के रामराज बडोनी व अल्मोड़ा के डॉ. दीवान नगरकोटी चुपचाप हमसे विदा हो लिये. बडोनी जी जहाँ मस्तमौला ब्यक्ति थे वहीँ नगरकोटी जी बड़े सरल ब्यक्तित्व, श्रीनगर प्रवास के दौरान मुझ जैसे छात्र के वे लेखन, पत्रकारिता व सामाजिक कार्यों के सुरुआती प्रोफ़ेसर थे. दोनों महान विभूतियों को मेरी सादर स्रदांजलि.