November 21, 2024



17 – साल का उत्तराखंड

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रमेश पाण्डेय 
 
मुझे तो याद नही है कि पहाड़ को बचाने की कोई ईमानदार पहल इन 17 सालों में कभी हुई हो।

क्या इन 17 सालों में नदियों, पहाड़ों, खेतों, बगीचों, नौलों, धारों, को बचाने के लिये कोई कानून उत्तराखण्ड की विधान सभा में बन सका है। क्या कोई ऐसा कानून बना जो उत्तराखण्ड की जनता के हक हकूकों को संरक्षित करता हो। क्या ऐसा कोई कानून बना जो नये गांवों को बसाने का रास्ता खोलता हो। क्या ऐसा कोई कानून बना जो वन पंचायतों को पूरी स्वयत्तता देता हो। क्या ऐसा कोई कानून बना जो कानून कृषि क्षेत्र को घटने से रोकता हो। क्या ऐसा कोई कानून बना जो राज्य के लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की गारण्टी देता हो। क्या ऐसा कोई कानून बना जो वन्य पशुओं से यहां की जनता को बचाने का ठोस उपाय सुझाता हो।
 
हिमालय बचाओ या पहाड़ बचाओ का जो शेर कभी कभी राजनैतिक घड़ों से खास अवसरों पर उठता है या एक दो एन जी ओ वाले जो इस शोर को वार्षिक कार्यक्रत की तरह मचाते है वह ईमानदारी से है। 
पहाड़ पर भूमि बन्दोवस्त किये बिना चक बन्दी थोपने का जुगाड़ तो अन्दर ही अन्दर हो रहे हैं पर भूमि बन्दोबस्त करने का साहस कोई नही दिखा सक रहा तो कारण साफ है कि वे ऐसा चाहते ही नही हैं। 
उत्तराखण्ड को सुन्दर, सरल, सहज और अन्रराष्ट्रीय पहचान देना कठिन नही है पर यह तभी सम्भव है जब यहां की बागडोर राजनैतिक दल के नेताओं के पास नही वरन उत्तराखण्ड की जनता के नेताओं के हाथों में हो। उत्तराखण्ड में राजनैतिक दल सन्तुस्ट हैं कि उन की कृपा से यहां का समाज पूरी तरह से दलों में विभक्त है जो छोटे मोटे प्रयासें से तो टूटने वाला नही है।