खतलिंग यात्रा – 1
व्योमेश जुगरान
पहाड़ में धान कटाई का मौसम है। भिलंगना घाटी, टेहरी के इन खेतों /सेरों में भांति भांति के डिजाइन उभर रहे हैं।
पलायन की पीड़ा अभी इन खेतों से उतनी बावस्ता नहीं दिखती। अपन खतलिंग ग्लेशियर की यात्रा पर निकले हैं। कल यानी 4 अक्टूबर को जनता इंटर कालेज, घुत्तू के प्रांगण में परम श्रद्धेय इंद्रमणि बडोनी की प्रतिमा के दर्शन कर आर्शीवाद भी लिया। अभी भी सड़क और रोशनी से बहुत दूर टिहरी का गंगी गांव हिमालयी लोकजीवन की लाजवाब कहानी है। समूची भिलंगना घाटी में जहां धान की मंडाई जोरों पर है, वहीं घाटी के इस अंतिम गांव के लोग घास कटाई में व्यस्त हैं। वे अपने पशुओं के वास्ते अगले पांच-छह माह के लिए घास का भरपूर भंडारण कर लेना चाहते हैं क्योंकि इनके चारागाह जल्द ही बर्फ की चादर में बदलने वाले हैं। गांव इन दिनों खाली है। यहां के लोग चारागाहों के निकट अपने वैकल्पिक / अस्थायी ठिकानों पर चले गए हैं। खूबसूरत ढलानों में बसे ठिकाने हैं – री, ल्यूणी, नल्याण और ड्योखरी। पीठ पर घास के लदान व ढुलान तथा पेड़ों व घरों में इसके भंडारण की विधि अनूठी है। हरे घास की मोटी और लंबी-लंबी मालाएं गूंथकर पेड़ों पर पहना दी जाती हैं। औरत-मर्द समान रूप से काम निपटाते हैं।
गंगी करीब सवा सौ परिवारों का गांव है। पलायन के दंश से फिलहाल अछूता है। यहां के लोग मुख्यतः पशुपालक हैं। उनमें अपनी मेहनत के बूते अत्यधिक विषम हालात को परास्त करने का माद्दा है। आसपास के क्षेत्रों में यदि उनकी सम्पन्नता के किस्से हैं तो इसका कारण यही मेहनतकशी है। नीचे घाटी में बहती भिलंगना नदी की कलकल इस समूचे इलाके का स्थाई संगीत है। बिडम्बना देखिए कि इस नदी ने देश-दुनिया को टिहरी जैसा बांध दिया, पर योजनाकारों ने इन वनवासियों को रोशनी से महरूम रखा। बिजली की आस ठप्प है। हां, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना का काम उम्मीद बंधाता है।
यह है, गंगी में मौजूद यात्री सुविधा केंद्र। इसे बेहद खूबसूरत डिजाइन के साथ वर्ष 2003- 04 में बनाया गया था। मगर अब यह खंडहर में तबदील हो चुका है। दरअसल खतलिंग, सहस्रताल और खतलिंग -केदारनाथ की कठिन / रोमांचक यात्राओं का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव गंगी ही है। आआईटी रुड़की, भारतीय प्रशासनिक अकादमी मसूरी और खासकर बंगाली युवाओं के पथारोही दल इन यात्राओं का रोमांच उठाते रहे हैं। हमें बताया गया कि इस इलाके को सेटेलाइट फोन की सुविधा से जोड़ने के लिए ही इस सुविधा केन्द्र का निर्माण किया गया था। उद्देश्य यही था कि यहां आने वाला पर्यटक बाहरी दुनिया से संपर्क के इस एकमात्र माध्यम का उपयोग कर सके। सेटेलाइट फोन तो ग्राम प्रधान को सौंप दिया गया मगर सुविधा केन्द्र का हस्तांतरण गढ़वाल मंडल विकास निगम को नहीं किया जा सका जिसे इसके रखरखाव का दायित्व निभाना था। गौरतलब है कि निगम ने 1992 में यहां आठ बैड और 12 डोरमेट्री वाले आवासगृह का निर्माण कराया था। इसकी भी हालत खस्ता है। स्थानीय लोगों ने बताया कि इन्हीं सब वजहों से इस रूट पर पर्यटकों की संख्या साल दर साल घटती चली गई है।
आलेख पर प्रतिकिर्यायें
बेद भदोला
दूरस्थ गांव है गंगी, तभी पलायन से बचा हुआ है। आलेख थोड़ा और विस्तृत होता तो बेहतर होता। रहन-सहन, खान-पान और अन्य रोचक जानकारी से अवगत करायें। पलायन क्यों नहीं हुआ, इस विषय पर जानकारी भी रोचक और ज्ञानवर्धक होगी।
जयप्रकाश उत्तराखंडी
आप आखिर गंगी पहुँचे।हम कभी घुत्तु की उपर वाली चोटी से आगे ही न बढ पाये।गंगी पहाड की मौलिक विरासत है।
चारू लता
क्या इस गांव में बिजली का नहीं होना, पलायन नहीं होने का कारण हो सकता है? जब इस गांव मेंं बिजली नहीं, तो स्वाभाविक है टीवी और सोशल मीडिया तक भी यहां के ग्रामीणों की पहुंच नहीं होगी! क्या ये पलायन न होने की एक वजह हो सकती है?
लेख़क का जवाब
पर कई बार तो सड़क और बिजली का न होना पलायन की सबसे बड़ी वजह बताई गई है। ऐसा नहीं है कि गंगी के लोग सामाजिक बदलावों से नावाकिफ़ हों। वे काफी जागरूक हैं। उनका मेहनतकश स्वभाव उन्हें अपनी मिट्टी से जोड़े हुए है। हां, कुदरत ने उन्हें आर्थिकी के लिहाज से बेहतर अवसर दिए हैं जिसका वे खूब लाभ उठाते हैं। आलू, चौलाई, ओगल, ऊन और घी उत्पादन यहां की आय के अच्छे स्रोत हैं। बिजली जैसी मूलभूत सुविधा से जीवनस्तर में इजाफा ही होगा।
सुनील जोशी
ऐसा प्रतीत होता है यह गाँव बिना सरकारी अनुकम्पा एवं संरक्षण के अपने ही बलबूते पर सशक्त है इसलिए यहाँ के निवासियों को अपने अदक परिश्रम और कर्मठता पर पूरा विश्वास है।बाहरी दिखावे से परे एक खूबसूरत स्वावलम्बी गाँव को पलायन से क्या लेना-देना।ऐसे ग्रामवासी अनुसरण करने के योग्य हैं।
हेम गैरोला
सीजनल चारागाह आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है गंगी.
डी. भंडारी
एक ओर जहाँ यह जानकर अच्छा लगा कि अपने उत्तराखंड में अभी भी ऐसे गाँव है जो पलायन के दुख और मटीरियलिस्टिक संसार से अछूते है तो वहीं दुख हुआ पढ़ कर कि आजादी के 70 साल बाद और उत्तराखंड बनने के 16/17 वर्ष बाद भी इस गाँव मे बिजली और सड़क नहीं पहुँची है।
प्रो. मिर्दुला जुगरान
पत्रकारिता का ही अध्याय है पर्यटन ।।
बढते कदम पत्रकार और पत्रकारिता के ।।
सुषमा ध्यानी
मन में कुछ करने का जज्बा हो तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता है लेकिन इसके उलट हालात में कियेे-कराये पर पानी फिरते तनिक भी देर नहीं लगती। गंगी का खंडहर हो चुका गेस्ट हाउस इसी की गवाही दे रहा है
फ़ोटो सौजन्य – व्योमेश जुगरान