फाटा-रामपुर में चिपको
नंद किशोर हटवाल
अप्रैल 1973 को गोपेश्वर के निकट गौंडी, (मंडल) के जंगलों को बचाने के लिए चिपको आन्दोलन का प्रथम प्रयोग सफल हो गया था। जंगल काटने वाले मजदूर वापस चले गए थे और सरकार को गौंडी, (मंडल) के जंगल कटाई का आदेश रद्द करना पड़ा था। उसी साल अर्थात् 1973 के जून माह में सरकार ने साइमंड कम्पनी को केदारनाथ वनप्रभाग के अन्तर्गत सीला के जंगलों के कटान का आदेश दे दिया। यह जंगल इस प्रभाग के मैखंडा वन-क्षेत्र में आता था और फाटा-रामपुर के बीच स्थित बड़ासू के ऊपर फैला था।
सीला के जंगल में पेड़ छापे जाने लगे तो इसकी जानकारी मिलते ही चण्डीप्रसाद भट्ट दशोली ग्राम स्वराज्य संघ के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ वहां पहुंचे और केदार सिंह रावत से मिले। केदार सिंह रावत तब ऊखीमठ क्षेत्र के कनिष्ठ ब्लाकप्रमुख थे और सर्वोदयी विचारधारा से जुड़े थे। उनका दशोली ग्राम स्वराज्य संघ गोपेश्वर में विभिन्न बैठकों में आना-जाना था। 21 जून 1973 को फाटा-रामपुर के जंगलों की कटाई के विरोध में रामपुर (न्यालसू) से गुप्तकाशी तक विशाल रैली निकाली गई। उसके बाद गुप्तकाशी, फाटा त्रिजुगीनारायण में स्थानीय लोगों की अध्यक्षता में सभाएं हुई तथा वनो को बचाने का संकल्प लिया गया। 27 जून को फाटा में विशाल रैली का आयोजन किया गया। ठेकेदार अपने मजदूरां और आरे-कुल्हाड़ों के साथ पेड़ काटने के लिए फाटा पहुँच गया था।
उन पर नजर रखने के लिए केदार सिंह रावत के नेतृत्व में एक निगरानी समिति बनाई गई जिसमें त्रिजुगीनारायण, न्यालसू, बड़ासू, फाटा तथा तरसाली गाँवों के लोग थे। तय हुआ कि जैसे ही मजदूर पेड़ों को काटने के लिए जंगल में घुसेंगे आस-पास के गाँवों के लोग जंगल जाकर पेड़ों को बचाएंगे। प्रक्रिया वही होगी, जो गौंडी (मण्डल) के जंगलों को बचाने के लिए तय हुई थी। अर्थात अहिंसक, सौम्यतम विरोध करते हुए पेड़ों पर चिपक कर उनकी रक्षा करना। चण्डीप्रसाद भट्ट तथा अन्य लोग फाटा में ठेकेदार एवं मजदूरों पर नजर रखते रहे। परिणाम ये हुआ कि अगले दिन सुबह अर्थात 28 जून 1973 को ठेकेदार-मजदूर अपने आरे-कुल्हाड़ों के साथ वापस लौट गए और यह प्रतिरोध अहिंसक रूप से सफल हो गया।
पांच महीने बाद 22 दिसम्बर 1973 को चण्डीप्रसाद भट्ट सर्वोदय केन्द्र गोपेश्वर में बैठे थे कि केदारसिंह रावत का पत्र मिला-‘तत्काल पहुँचें। साइमंड कम्पनी वाले फिर लौट आए हैं।’ चण्डीप्रसाद भट्ट ने दशोली ग्राम स्वराज्य संघ के मंत्री शिशुपाल कुंवर और खादी कमीशन के राजेन्द्र सिंह बिष्ट को तुरन्त वहां पहुंचने को कहा और खुद वन विभाग के अधिकारियों और दूसरे स्थानीय लोगों के साथ सम्पर्क में जुट गए।
दूसरे ही दिन 23 दिसम्बर को सुबह-सुबह फाटा से 5 मील की दूरी पर स्थित सीला के जंगल में ठेकेदार ने पांच अंगू के पेड़ कटवा दिए। सूचना मिलते ही केदारसिंह रावत के नेतृत्व में न्यालसू-रामपुर का युवक मंगल दल, बड़ासू, सेरसी, सीतापुर आदि गाँवों के सौ से अधिक लोग शंख, ढोल-दमाऊ, भंकोर की गंँज के साथ सीला के जंगल पहुँचे और नारे लगाने लगे ‘बणसुंघो (वन शोषकां) हमारी पीठ पर कुल्हाड़ी मारो’, ‘केदारघाटी की यह ललकार, वन नीति बदले सरकार’। लोगां के हुजूम को देख कर और नारों को सुनकर पेड़ काटने वाले मजदूर कुल्हाड़ी लेकर भाग खड़े हुए। पर वे तब तक अंगू के पाँच पेड़ काट चुके थे। दो घंटे पहले सूचना मिल जाती तो ये भी नहीं कट पाते।
पेड़ काटने वाले ठेकेदार और मजदूरों का डेरा अभी भी फाटा में था। 25 दिसम्बर को आंदोलनकारी फाटा पहुँचे। वहाँ पर एक आम सभा में वन बचाने का संकल्प दुहराया गया एवं चिपको आंदोलन को सतत चलाने का निश्चय किया गया। 26 दिसम्बर को वन विभाग के उच्चाधिकारी सीला के जंगल में गए परन्तु वहाँ पर चिपको आन्दोलनकारियों का कड़ा विरोध देखते हुए उन्हें वापस लौटना पड़ा। उसके बाद 30 दिसम्बर को फाटा में त्रिजुगीनारायण के प्रधान की अध्यक्षता में केदार घाटी में सभा हुई। जिसमें घोषणा की गई कि जब तक वन-नीति में परिवर्तन नहीं होता, चिपको आंदोलन चलता रहेगा।
इस आन्दोलन में केदारघाटी के युवाओं, महिलाओं और ग्रामप्रधानों ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। स्थानीय लोगों के साथ इसमें गोपेश्वर से श्यामा देवी, इन्द्रा देवी, जेठुली देवी, पार्वती देवी, जयंती देवी, अनसूया प्रसाद भट्ट और दिल्ली से अनुपम मिश्र भी पहुँचे थे। अनुपम मिश्र ने केदारसिंह रावत तथा अनुसूया प्रसाद भट्ट का अधकटे पेड़ पर चिपकने का फोटो खींचा था। निश्चित तौर पर यह स्थानीय जनता का आन्दोलन था। यह आन्दोलन जनपद चमोली में उस दौर में उत्पन्न वनों के संरक्षण के प्रति जागृति और चेतना का परिणाम था। इसे जगाने, आंदोलन का स्वरूप तय करने, उसे अहिंसक बनाए रखने, आन्दोलन को फैलाने और उसकी कड़ियों को जोड़ने में चण्डीप्रसाद भट्ट की भूमिका ऐतिहासिक थी। दशोली ग्राम स्वराज्य संघ उस समय इन समस्त गतिविधियों का केन्द्र बिंदु होता था।
कम्पनी वालों ने इस आंदोलन को तोड़ने के लिए कई तरह के प्रयास किए। दुष्प्रचार किया कि चण्डीप्रसाद भट्ट को हमने पैंसे दे दिए हैं वे आन्दोलन में शामिल नहीं होंगे, उन्होंने आन्दोलन वापस ले लिया है। 22 दिसम्बर को गुप्तकाशी में सिनेमा दिखाने की झूठी अफवाह भी फैलाई गई, ताकि लोग सिनेमा देखने वहां चले जाएं और आन्दोलन असफल हो जाय। कई ग्रामवासी गए भी लेकिन स्थानीय लोगों की चेतना, जागरूकता और मुस्तैदी से आखिर चिपको का दूसरा प्रयोग भी सफल रहा। पेड़ काटने की अवधि 31 दिसंबर 1973 तक ही थी, जो कि समाप्त हो गई थी। इस प्रकार नये वर्ष जनवरी 1974 की पहली तारीख को साइमंड कम्पनी के ठेकेदार एवं उसके मजदूर अपने हथियारों के साथ वापस चले गए थे।
लेखक प्रसिद्द साहित्यकार व अध्येता हैं