नदी की आंखें
नवीन जोशी
यहां कई तरह की नदियां हैं। एक नदी लेखक के गांव में बहती है। एक नदी दूर वहां सीमेण्ट-कंक्रीट-मानवों के जंगल दिल्ली में गंधाती है। एक नदी उच्च हिमालय में गल के रूप में सरकती-थमती है। एक नदी स्मृतियों में महकती है। एक नदी जीवन को तरल रखती है। एक नदी कथाओं को प्रवहमान बनाती है। बहुत सारी नदियां हैं या एक ही नदी है जिसके अनन्त रूप हैं। उस नदी की आंखें हैं। वे आंखें कितना कुछ देखती हैं!
नदी की आंखें’ सुभाष तराण की किताब है जिसे सम्भावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। पुस्तक को ‘सच्चे अनुभवों की दास्तांगोई’ कहा गया है। ये रूढ़ अर्थों में कहानियां नहीं हैं, हालांकि कहानियों का आस्वाद भी कराती हैं। सुभाष तराण खिलाड़ी हैं, यात्री हैं, पर्वतारोही हैं और उनके भीतर पहाड़ों की दुर्गम यात्राओं से उपजे अनभुवों की समृद्ध पोटली है। इस पोटली में नदियों, पहाड़ों, जंगलों, जानवरों और इनसानों के किस्से हैं। ये किस्से-कहानियां इनसानी फितरतों के खुरदरेपन के हैं तो मुहब्बतों की चासनी में डूबे हुए भी। घुमक्कड़, पहाड़-प्रेमी, नदी के आशिक और संवेदना के धनी सुभाष लेखक सबसे बाद में हैं। इसलिए इन्हें पढ़ने का सर्वथा नया आनन्द है, नई अनुभूति और खांटी मौलिकता से परिचित होना है।
क्या-क्या देखती हैं ‘नदी की आंखें’? वे ‘लोहे और पत्थरों के मंसूबों को ध्वस्त करने वाले’, नाम के सुनार लेकिन काम के लोहार को देखती हैं और उसके शिल्प एवं श्रम को गहराई से महसूस करती हैं। वे ग्वाले नूर मुहम्मद को देखती हैं जिसके बछड़े को अंधेरी-बरसती रात में तेंदुआ अधमरा कर गया था लेकिन जिसे पहाड़ी से लुढ़कते दूध के बर्तन के पीछे जान हथेली पर धर कर दौड़ना पड़ा था क्योंकि ‘गरीब की विडम्बना यह है कि अनेकों बार उसके जीवन का मोल किसी बर्तन के समकक्ष हो जाता है।’ नदी की आंखें हाशिए का वह पहाड़ देखती हैं जहां “सरकार की अनदेखी और प्रशासन की ढुल-मुल नीतियों के चलते स्थानीय बाशिंदों ने फतेह पर्वत की समृद्धि के प्रतीक पारम्परिक व्यवसाय पशुपालन और खेती-बाड़ी से विमुख होकर अपनी जमीनें धड़ाधड़ औने-पौने में बेचना शुरू कर दिया है।”
नदी की आंखें जितना गहरा देखती हैं उससे अधिक महसूस करती-कराती हैं। मेमनों से पहले-पहल उतारी गई, पश्मीने को भी मात करने वाली ऊन से बुनी मुलायम चादर से बच्चे के लिए कोट सिलवाकर जब एक पशुचारक पिता प्रफुल्लित होना चाहता है तब बच्चे की खुशी अपना वही कोट एक मेमने को पहना देने में व्यक्त होती है। वह नन्हा मेमना उस कोट को पहनकर प्रसन्नता या आतंक में ऐसी छलांगें लगाता है कि गहरी खाई में जा गिरता है, तब पिता-पुत्र ही नहीं पाठक भी सन्नाटे में आ जाता है। वह एक सुंदर कोट का जाना नहीं, मेमने के रूप में परिवार के एक सदस्य का जाना होता है। किसी त्योहार के दिन चरवाहे जातीराम के लिए गांव से आई रोटी की पोटली को जब बंदर उठा ले जाते हैं तो रोटियां वापस पाने के लिए नहीं, बल्कि घी का डिब्बा भी वानरों को सौंपने के लिए दौड़ लगाते जातीराम के साथ-साथ हमारा मन भी कह उठता है कि वानरो, रोटियों में चुपड़ने के लिए घी भी तो ले जाओ!
‘बुढ़िया की भेंट’ हो या ‘तेगसिंह की दावत’, ‘साइबो को पाप’ हो या ‘किन्नौरी लड़की’ या ‘इंसाफ का तकाजा’ और दूसरे किस्से, उनका उत्स सुदूर, दुर्गम हिमालयी समाज के बीच विचरण के उन साक्षात अनुभवों में है जिन्हें अति-संवेदनशील दिल-दिमाग ही पकड़ सकता है। ‘और घर बस गया’ में नव-ब्याहता के कोठार से निकली वह चीख पाठक के भीतर देर तक बनी रहती है जो ‘घर बसाने के लिए’ परिवार की सहमति से किसी पराए मर्द की जकड़न में “घोंसले में सांप द्वारा दबोचे गए चूजे की आखिरी कोशिश जैसी” फूटती है।
इसीलिए इन ‘कहानियों’ में खांटी मौलिकता है जो पाठक को नए आस्वाद के साथ गहरे छू जाती है। अंतिम किस्सा ‘प्रेम का प्रभाव’ इस वक्तव्य के साथ पूरा होता है- “मैं बिना किसी लाग-लपेट के इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि दुनिया में ऐसी इकलौती शै प्रेम ही है जो मनुष्य के भीतर तरलता बनाए रखती है।”
‘नदी की आंखें’ इसी तरलता से भरी हैं और पाठक के भीतर भी नमी छोड़ जाती हैं।