‘पिता और पुत्र’ एक किताब
अरुण कुकसाल
किताब के खुलते ही हस्ताक्षर के साथ 12/12/94 की तिथि और कोटद्वार अंकित है।
उस दिन/रात को ट्रेन में कोटद्वार से लखनऊ जाते हुए यह किताब मेरी हमसफर रही थी। लेकिन लेखक की लोकप्रियता और आर्कषक शीर्षक के बावजूद भी किताब विशेष रुचिकर नहीं लगी थी। कुछ दिनों बाद मौका मिला तो ‘एक पुत्र के नजरिये से पिता के साथ के संबधों’ की पड़ताल के दृष्टिगत दुबारा भी पढ़ी थी। तब मुझे किताब में निहित रोचकता और विषयगत गम्भीरता का अहसास हुआ था। अब लगभग 23 साल बाद अचानक फिर यह किताब दिख गई तो पढ़े बिना रह न सका। और इस बार एक पिता की नजर को किताब में टटोलने का प्रयास किया। कहना होगा कि, पिता-पुत्र / पुत्र-पिता संबधों और उनकी आपसी कैमेस्ट्री की इवान सेर्गेयेविच तुर्गेनेव ने 150 साल पहले जो व्याख्या की थी वह आज भी प्रासंगिक है।
इवान तुर्गेनेव (सन् 1818-1883) 19वीं शताब्दी के विश्व प्रसिद्व अग्रणी लेखकों में शामिल रहे हैं। टाॅलस्टाय, चिख़ोव, दोस्तोयेव्स्की, गेटे, डिकेन्स आदि के समकक्ष तुर्गेनेव के लेखन को विश्व प्रतिष्ठा मिली है। ‘पिता और पुत्र’ तुर्गेनेव का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। सर्वप्रथम सन् 1862 में ‘मास्को पत्रिका’ में यह धारावाहिक के रूप में छपा और इसी वर्ष पुस्तक स्वरूप भी प्रकाशित हुआ था। विश्वस्तर पर इसकी जबरदस्त लोकप्रियता का यह आलम था कि सन् 1862 का साल भी बीत नहीं पाया कि जर्मनी, अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषा में भी यह उपन्यास प्रकाशित हो गया था। तुर्गेनेव रूस के सर्वाधिक धनी और कुलीन परिवार से संबध रखते थे। लेकिन सामन्ती व्यस्था के प्रबल बिरोधी थे। अतः घर-परिवार छोड़ कर स्वतंत्र लेखक के माध्यम से सामाजिक समानता के लिए सर्मपित हो गये थे।
क्रूर शासक निकोलाई के सन् 1855 में हुई मृत्यु के बाद रूस में सामाजिक प्रगति की पृष्ठभूमि ‘पिता और पुत्र’ उपन्यास का कथानक है। डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा येवगेनी बज़ारोव उपन्यास का नायक है। बज़ारोव परम्पराओं का बोझ ढ़ो रहे ‘पिताओं’ के विरोध में नयी रूसी पीढ़ी ‘निहिलिस्ट’ (क्रातिंकारी) का प्रतिनिधि है। बज़ारोव के समानान्तर पावेल किरसानोव है, जो रुढ़िवादिता को अपनाना शान समझता है। बाज़ारोव अपनी साफगोई और तर्कशीलता से अन्य पात्रों पर हावी है, परन्तु इन्हीं कारणों से वह अन्य पात्रों की कठोर आलोचनाओं का शिकार है।
‘पिता और पुत्र’ को पढ़ने के बाद प्रसिद्व लेखक अंतोन चेख़ोव ने लिखा कि ‘चीख़ उठने को मन करता है ! क्योंकि पाठक बज़ारोव के सम्मुख अपने को बहुत दुर्लभ महसूस करता है’। पिछली शताब्दी से भी पहले तुर्गेनेव का यह उपन्यास आज भी उसी तरह सजीव और रोचक है। लाखों पाठकों और कई पीढ़ियों ने इस उपन्यास के जरिये ‘पिता और पुत्र’ के संबधों का ताप महसूस किया होगा। जो आज भी कमोवेश उसी रूप में बरकरार है।
‘पिता और पुत्र’ के आपसी संबधों का भी अजीब भाग्य है। सामान्यतया वे साथ रहना चाहते हैं पर साथ रहते हुए भी वैचारिक रूप में आपस में साम्य नहीं रख पाते हैं। दोनों में से एक को तो एकाकी रहना ही पड़ता है परिवारिक और सामाजिक रिश्तों को निभाने में। पिता-पुत्र के संबधों की यही श्वाश्त नियति है। इस उपन्यास में यह एकाकीपन पुत्र बज़ारोव के हिस्से आयी है। और इसका कारण यही है कि बज़ारोव की वैचारिक दृष्टि और व्यवहार तत्कालीन रूसी समाज से कहीं आगे की थी। तुर्गेनेव ने माना कि ‘अभी बज़ारोव का जमाना नहीं आया है’। मुझे लगता है कि पिता के सम्मुख पुत्र बज़ारोव का जमाना आज 150 साल बाद भी नहीं आया है’।
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