मण्डल घाटी – गोपेश्वर में चिपको आंदोलन
नंद किशोर हटवाल
इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी को 1973 में गौंडी, मण्डल (गोपेश्वर) के जंगलों के कटान का ठेका मिल चुका था। 30 मार्च 1973 को कम्पनी के आदमी गोपेश्वर पहुंचे तो इसके विरोध में स्थानीय लोग एकजुट हुए। जिसमें चण्डीप्रसाद भट्ट जी ने काफी सक्रिय भूमिका निभाई। दशोली ग्राम स्वराज्य संघ इन गतिविधियों के केन्द्र में होता था जिसका गठन साठ के दशक में भट्ट जी ने किया था। 1-4-1973 को गौंडी, मण्डल (गोपेश्वर) के जंगलों के कटान के विरोध की रणनीति बनाने के लिए स्थानीय लोगों की ऐतिहासिक बैठक दशोली ग्राम स्वराज्य संघ के सभाकक्ष में सम्पन्न हुई थी जिसमें विरोध के तौर-तरीकों पर चर्चा हुई.
भट्ट जी गांधीवादी सर्वोदयी विचारधारा से जुड़े थे इसलिए उनका जोर विरोध के अहिंसक तौर-तरीकों को अपनाने पर होता था। उनका लक्ष्य सिर्फ विरोध और आन्दोलन करना नहीं आन्दोलन का अहिंसक स्वरूप तय करना और सौम्यतम प्रतिकार को बनाए रखना भी होता था। उस दिन की बैठक में अहिंसक आन्दोलन की रणनीति तय करते हुए अनेक प्रकार के विचारों और सुझावों के साथ चण्डीप्रसाद भट्ट द्वारा प्रस्तावित रणनीति में पेड़ों पर ‘अंग्वाल्ठा’ मारना और चिपकने के विचार पर सहमति बनी थी।
वह ऐतिहासिक बैठक थी जिसमें चिपको आन्दोलन के विचार का जन्म हुआ था। इसके बाद जिलाधिकारी चमोली को एक ज्ञापन दिया गया। यह ऐतिहासिक ज्ञापन था जिसे चिपको आन्दोलन का शुभारम्भ कहा जा सकता है। इसे चण्डीप्रसाद भट्ट जी ने तैयार कर दशोली ग्राम स्वराज्य संघ में टाइप करवाया था। इस ज्ञापन में मण्डल घाटी में जंगल कटान के विरोध में पेड़ पर चिपकने की बात लिखी गई है तथा ‘चिपको’ शब्द का बाकायदे इस्तेमाल किया गया है। इस बात का उल्लेख तत्कालीन अन्य पत्रों और दस्तावेजों में भी मिलता है। इसी अवधि में चिपको आंदोलन शब्द चलन में आ गया था। इसे हम चिपको के विचार के जन्म के रूप में देख सकते हैं।
23 अप्रैल 73 को साइमण्ड कम्पनी के मजदूर जंगल काटने के लिए गौंडी (मण्डल) चट्टी पहुंच चुके थे। गोपेश्वर से आन्दोलनकारी ‘वन जागे, वनवासी जागे,’ ‘पेड़ों की रक्षा के लिए पेड़ों पर चिपक जायेंगे’ आदि नारे लगाते हुए वहां पहुंचे तो मजदूरों को वापस आना पड़ा। इस प्रकार वहां पेड़ों पर चिपकने की नौबत ही नहीं आयी। बिना पेड़ों पर चिपके वहां का जंगल बच गया। यह चिपको आन्दोलन का पहला व्यावहारिक और सफल प्रयोग था।उसी वर्ष केदारघाटी में रामपुर-फाटा के जंगलों को बचाने के लिए ‘चिपको’ के विचार और प्रक्रिया का इस्तेमाल किया गया जोकि मंडल घाटी की तरह ही सफल रहा। इसमें भी चण्डीप्रसाद भट्ट प्रमुख रूप से सक्रिय थे।
26 मार्च 1974 को रेणी में जो घटा वो ऐतिहासिक था। स्थानीय लोगों की जागरूकता और समर्थन, गौरादेवी के नेतृत्व में महिलाओं की भागीदारी, अहिंसक प्रतिरोध और सफलता ने उस दिन की घटना को ऐतिहासिक बना दिया। रेणी के चिपको आन्दोलन में गौरा देवी का योगदान अविस्मरणीय था। उस दिन की सफलता की बुनियाद में गोपेश्वर मण्डल और केदारघाटी के चिपको के अनुभव,
12 से 14 मार्च तक रेणी क्षेत्र के गांवों में की गई जागरूकता बैठकें, 15 मार्च को जोशीमठ का विशाल जुलूश और 24 मार्च को गोपेश्वर महाविद्यालय के छात्रों का जोशीमठ में प्रदर्शन ने भी रेणी चिपको की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बाद के वर्षों में भी उत्तराखण्ड हिमालय से लेकर पूरे देश-दुनिया में चलने वाले सामुदायिक और वनआन्दोलनों में चिपको का विचार और प्रक्रिया उत्प्रेरक के रूप में जुड़ी रही।
निश्चित तौर पर चिपको एक व्यक्ति का नहीं पूरी स्थानीय जनता का आन्दोलन था। चिपको एक विचार था, आन्दोलन का स्वरूप और प्रक्रिया थी। प्रारम्भ से लेकर आजतक चिपको की तमाम कड़ियों को जोड़ने में एक व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका थी वे व्यक्ति हैं चण्डीप्रसाद भट्ट। चिपको को देशव्यापी, विश्वव्यापी बनाने और उसे विचार के रूप में आज तक जीवित रखने में चण्डीप्रसाद भट्ट का योगदान ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है।
लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार व पर्वतीय चिंतक हैं.