फौज में भर्ती – एक नजरिया
रमेश पांडे कृषक
इस नजर से भी देखा जाना चाहिए फौज में भर्ती के बदलाव से उपजे आक्रोश को। 2011 में की गई जनगणना के अनुसार बागेश्वर जनपद की आवादी 259898 लोग थे। दशक में जनसंख्या वृद्धि 5.15 प्रतिशत मानी गई है के अनुसार अभी आवादी 273200 के करीब होनी चाहिये। जनपद में यह आवादी 407 ग्राम पंचायतों और दो नगरों में फैली है। यदि इस आवादी को एकल परिवार की संख्या में विभाजित करें तो करीब 54000 परिवार बागेश्वर जनपद में बनते हैं।
सरकारों के अनुसार विकास को आर्थिक आधार पर नापा तौला जाता है। आर्थिक स्थिति में इस आवादी पर फौज से आने वाली आय के आंकड़े काफी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। बागेश्वर जनपद से करीब 5600 पुरुष फौज और पैरामिलिट्री में कार्यरत रहते हुए फौज और पैरामिलिट्री से वेतन ले रहे हैं। इन आंकड़ों में फौज और पैरामिलिट्री अलग अलग कर के देखें तो करीब 3600 पुरुष जल, थल और नभ सेना में हैं और करीब 2000 पुरुष BSF, CISF, ITBP, आदि में कार्यरत हैं। यदि कोरोना की वजह से भर्ति में रोक नही लगी होती तो यह संख्या 6250 के करीब तो होती ही। फौज और पैरामिलिट्री में कार्यरतों के अलावा 11500 के करीब परिवार हैं जिन्हें फौज से पेन्शन मिलती है। इन पेन्शनरों में 7500 के करीब जीवित फौजी हैं तथा 4000 के करीब पारिवारिक (विधवा) पेन्शनर हैं। इन संख्याओं को यदि प्रति गांव में विभाजित करें तो करीब औसतन प्रति ग्राम पंचायत करीग 13.5 परिवार फौज और पैरामिलिट्री से मिल रहे वेतन से जुड़े हैं तथा करीब औसतन 26 परिवार फौज और पैरामिलिट्री से मिल रही पेन्शन से जुड़े है।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि फौज और पैरामिलिट्री में भर्ति की उमर जरनल ड्यूटी (GD) के लिये 17.5 वर्ष से 21 वर्ष है और ट्रेड ड्यूटी (क्लर्क, नाई, मोची, धोबी आदि) के लिये 17.5 से 23 वर्ष निर्धारित है। जान लेना यह भी जरूरी है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दौर में स्थापित कुमायू रेजीमेण्ट और गढ़वाल राइफल कुमायू गढ़वाल के युवाओं के लिये सम्मान जनक रोजगार का सबसे नजदीकी ऐसा सहारा रहा है जिसमें दुश्मन से लड़ते हुए शहीद हो जाने के बाद भी शहीद फौजी के परिवार की सम्मान जनक परवरिश की जुम्मेदारी फौज ने सम्हाली हुई है।
कुमायू रेजीमेण्ट और गढ़वाल राइफल ने उत्तराखण्ड में युवाओं के लिये सीधी भर्ति के कई सरल रास्ते खोले हुए थे जो कोरोना के बाद से बन्द पड़े हैं। इन रास्तों में कुमायू रेजीमेण्ट प्रतिवर्ष अल्मोड़ा में एक तथा रानीखेत में दो रैलियों का आयोजन करता था। इन रैलियों के अलावा रेजिमेण्ट केन्द्रों पर भी छुटपुट भर्तियों के आयोजन खुलते हैं।
केन्द्र सरकार द्वारा सेना में भर्तियों की रीति नीति को ले कर किये गए बदलावों के बाद देश भर में जो आक्रोश खुला है वह सम्मान जनक रोजगार का रास्ता बन्द होने के डर से ओत प्रोत है। सरकार को लगता था कि उसके इसारों पर नाचने वाले मीडिया ने फौज/फौजी, वर्दी, झण्डे, सीमा, दुश्मन देश पाकिस्तान/चीन को सामने रख कर राष्ट्रवाद का जो माहौल तैयार किया है उस रास्ते ने सरकार की राह आसान बना दी है और वो जैसा बदलाव करेगी जनता उस बदलाव को हाथों हाथ लेगी। सरकार ने आव देखा ना ताव देखा भर्ती की उमर 17 से 21 वर्ष तय कर के फरमान जारी कर दिया कि भर्ती की प्रकृया चार साल की होगी और चार साल बाद जो सरकार के तब के मानकों में खरा उतरेगा वही फौज के लायक माना जाएगा शेष को चार साल का मेहनताना दे कर घर भेज दिया जाएगा।
यदि सरकार ने मान लिया है कि नौजवानों के अपने कोई सपने और पारिवरिक जिम्मेदारियां नही होती हैं तो सरकार के ऐसा मानने को खरिज किये जाने के लिये नौजवान सड़कों पर उतर गया है। वैसे भी सरकार में इतनी भर समझ तो जीवित होनी ही चाहिये कि हर नौजवान के अपने सपने भी होते हैं और परिवारिक जिम्मेदारियां भी होती हैं।
राज्य आन्दोलन के दौरान दुनियां ने हमारे इस तर्क को स्वीकारा था कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र की अर्थ व्यवस्था मनीआर्डर आधरित है। उन मनीआर्डरों में बड़ा प्रतिशत फौज से आने वाले मनिआर्डरों का ही था। पहाड़ पर कृषि चौपट्ट होने की वजह से हमारी अर्थ व्यवस्था उस स्थान से भी पीछे सरकी है जहां सन 2000 ई0 में खड़ी थी।
फौज में भर्ती के नियमों में सिरे से उलटफेर के अपने मकसद को सायद सरकार ही खुद नही समझ पा रही है तभी तो सिर्फ चार दिन में ही वह अपनी बनाई लाइन को जगह जगह से तोड़ने का अस्वासन भी देती दिख रही है। फिलहाल तो उततराखण्ड के क्षेत्रीय संगठनों को चाहिये कि वे पर्वतीय क्षेत्र की जनता को साथ ले कर सरकार से दो टूक मांग करे कि वह कुमायू रेजीमेण्ट और गढ़वाल राइफल में भर्ती होना चाहने वाले पर्वतीय क्षेत्र के नौजवानो को भर्ती के नये नियम से मुक्त रखने का कानूनी प्राविधान बनाए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.