रुद्रनाथ यात्रा – समापन किश्त
अरुण कुकसाल
यहां के जंगलों में रिक्ख होते हैं और रिक्ख बाघ से भी खतरनाक होता है.
ठीक सांय 4 बजे मंदिर की घंटियों ने भगवान रुद्रनाथ दर्शन के लिए यात्रियों का आवाह्न किया है। मंदिर परिसर नारद कुंड से शुरू होता है। रास्ते के ऊपरी ओर घर्मशालाओं की एक नजदीकी कतार है। मंदिर प्रवेशद्वार पर ही पुजारीजी की कुटी हेै, जिसके बाहरी दरवाजे के पास ‘रुद्रनाथ की समुद्रतल से ऊंचाई 3554 मीटर’ लिखी है। मुख्य मंदिर गुफा के रूप में दक्षिणाभिमुखी है। मंदिर प्रवेश में 2 नंदी यज्ञ मंडप हैं। मंदिर के गर्भगृह में चट्टान पर भगवान शिव की रौद्र मुखाकृत्ति मुख्य मूर्ति है। साथ में विष्णु एवं शिव परिवार की दुर्लभ मूर्तियां हैं। शिव के रौद्र रूप के कारण ही यह स्थल रुद्रनाथ कहलाया। मुख्य मंदिर के दांयी ओर वणद्यौ (वन देवता) का मंदिर है जिसमें कई शिवलिंग मौजूद हैं। वणद्यौ मंदिर के दांयी ओर 7 पूर्वामुखी मंदिरों की श्रृंखला विशाल चट्टान के ऊपरी ओर को जा रही है। इनमें एक मंदिर दुमंजिला है। सभी मंदिरों का बाहरी आवरण ताम्रवर्ण (तांबे का रंग) पत्थरों से बना है। रुद्रनाथ के पुजारी गोपेश्वर के भट्ट और तिवारी लोग हैं। अभी मंदिर परिसर मेें केवल ‘हम पांच’ यात्री हैं। ऐसा मुश्किल संयोग होता है कि किसी पौराणिक मंदिर में दर्शन के साथ पुजारीजी धैर्य और रुचि से उस मंदिर और स्थान का महात्मय भी भक्तगणों को बताते चलें। यह संयोग एवं सौभाग्य हमें मिल रहा है। बताया गया कि रुद्रनाथ मंदिर हिंवाल नामक पर्वत में विराजमान है। रुद्र शब्द रौद्र से अभिप्रेरित है। शिव का रौद्र रूप उनके मुख के माध्यम से रुद्रनाथ में प्रकट हुआ है।
सामान्यतया शिवजी की पूजा लिंग स्वरूप की जाती है, रुद्रनाथ ही एक ऐसा पौराणिक तीर्थ है, जहां महादेव मुखारविंद में हैं। लोक विश्वास है कि अन्य केदार मंदिरों की तरह रुद्रनाथ मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा किया गया। रुद्रनाथ पंचकेदार में चतुर्थ केदार माना जाता है। यहां की एक चट्टान मेें कई तलवारें एक साथ फसांई गयी हैं। यह मान्यता है कि ये तलवारें पांडवों की रही होंगी। रुद्रनाथ को रुद्रमहालय कहा गया गया है। यही कारण है कि रुद्रनाथ के आस-पास कई अन्य मंदिरों और जलकुडों की उपस्थिति है। नारायण मूर्ति, शिव प्रतिमा, उमा-महेश प्रतिमा, ज्योर्तिलिंग, त्रिशिख कार्तिकेय, गणेश विग्रह, दुर्गा, वैतरणी कुण्ड, सारस्वत कुण्ड, सूर्य कुण्ड, भीम गदा, नारद कुण्ड, स्वर्गद्वारी आदि इनमेें प्रमुख हैं। रुद्रमहालय ऐड़ी और आंछरियों (मृत प्रेत आत्मायें) का भी प्रिय स्थान है। हमें बताया गया कि पनार से रुद्रनाथ तक अनेकों खड़े पत्थरों को इन ऐड़ी अथवा आंछरियों के प्रतीक मान कर देवी एवं देवता के रूप में पूजा जाता है। रुद्रनाथ के पास स्थित वैतरणी कुण्ड में अपने पूर्वजों/पित्र आत्माओं को पिंडदान एवं तर्पण देने का सर्वाधिक पुण्य स्थान माना गया है। रुद्रनाथ मंदिर का प्रबंधन गोपेश्वर मंदिर से संचालित होता है। रुद्रनाथ जी की पूजा जेठ से कार्तिक माह तक की जाती है। शीतकाल में यहां के कपाट बंद होने पर रुद्रनाथजी गोपीनाथ मंदिर, गोपेश्वर में विराजमान रहते हैं।
रुद्रनाथ से वापसी की ओर हैं। मौसम का मिजाज फिर बिगड़ने लगा है। शाम के 5 बजे हैं और हमें 10 किमी. चलकर मोलिखर्क पहुंचना ही है। हमारी गाइड फागुनी ने कहा कि ‘भै साब, तुम लोग तो भौत धीर-धीरे चलोगे, इसलिए आप आते रहना, हम तेज चल कर टैम से मोलिर्खक पहुंच जायेगें।’ ‘यही बेहतर है आप लोग जल्दी चलो, हम लोग भी जरूर पहुंचेगे मोलिखर्क चाहे देर रात ही क्यों न हो जाय।’ सीताराम बहुगुणा उनसे जोर देकर कहते हैं। बात आगे की यह है कि पंचगंगा पहुंचने तक ही हमें निपट रात हो गयी है। अब आगे मोबाइल की लाइट के सहारे जाना है। मोबाइल 3 हैं, पर भरोसा नहीं कब कौन बंद हो जाय। इसलिए रोशनी की किफायत और मोबाइल की सुरक्षा बहुत जरूरी है। तय हुआ कि एक ही मोबाइल की लाइट में चलेगें। लाइट वाला बीच में जो आगे-पीछे वाले का ध्यान भी रखेगा। रात को पैदल चलने का एक फायदा ये जरूर है कि ध्यान बस चलने में रहता है। रास्ते की इधर-उधर की दुरुहता और विकटता ज्यादा दिखती नहीं है। पर यहां तो पित्रधार के पित्र (प्रेतात्मा/ऐड़ी/आंछरी) और घनघोर जंगल के रैवासी/रहवासी (जंगली जानवर) हम तीनों के मन-मस्तिष्क में विचरण कर ड़राते ही जा रहे हैं। परन्तु उसके कारण फायदा यह है कि चलने की गति कम नहीं वरन बढ़ती जा रही है।
हम तीनों में चलते हुए बोलचाल न के बराबर है। कल रात मोलिखर्क के पास वाले बाघ का खौफ इस रात भी साथ-साथ चल रहा है। मैने यूं ही धीरे से बोला कि ‘यहां रिक्ख (भालू) ज्यादा होते हैं और रिक्ख तो बाघ से भी खतरनाक होता है।’ ‘ये बताना इस समय जरूरी था। आपने तो डर और बड़ा दी है, भूपेन्द्र बुदबुदाया।’ ‘डरने से कुछ नहीं होगा। वैसे भी रुद्रनाथ मंदिर में पुजारीजी ने बतलाया था कि यह निर्जन और बीहड जंगली इलाका आंछरियों के प्रभुत्व में है। और आंछरियां उनका ही हरण करती जो डर जाते हैं। दायें-बायें तो कुछ दिख नहीं रहा है। इसलिए बेहतर है वही बात की जाय जो इस समय दिल-दिमाग में चल रही है। इससे डर बढ़ेगा नहीं कम ही होगा। तुम दोनों कहो तो मैं तुम्हें आंछरियों के बारे में बताऊं।’ थोड़ी चुप्पी के बाद सीताराम ने कहा ‘बताओ’। ‘तो सुनो, असल में हमारे उत्तराखंडी समाज में यह मान्यता है कि ऐड़ी और आंछरियां छोटी उम्र या असमय मुत्यु को प्राप्त अतृप्त आत्मायें होती हैं। ये पर्वत शिखर, घने जगंल, और पानी वाले स्थानों में अक्सर रात को घूमती हैं। आंछरियों को मंदोदरी और रावण की पुत्रियां भी माना जाता है। ये अप्सरा की तरह सुंदर होती है इसलिए इनको अप्सरा भी कहा जाता है। उत्तराखंड के लोकगीतों में सात बैणी या नौ बैणी आंछरी का जिक्र कई बार होता है। हमारे इष्ट देवी-देवता इसी श्रेणी में भूतांगी होते हैं। वे हमारा अनिष्ट न करें इसलिए उन्हें ध्याणी (बहिन/बेटी) का संबोधन और सम्मान दिया जाता है। इसलिए फिकर नाॅट, हमारी घ्याणियां इस घनघोर रात में हमें सकुशल मोलिखर्क पहुंचायेंगी।’
सीताराम और भूपेन्द्र का डर कितना कम या ज्यादा हुआ ये मैं इस गहरी रात में नहीं देख और महसूस कर पा रहा हूं। परन्तु उनकी खामोशी ने और बोलने से रोक दिया। पितृधार हम रात के 10 बजे के करीब पहुंचे हैं। दिन में रुद्रनाथ आते समय यह जगह जितनी खूबसूरत और सुविधाजनक लग रही थी, रात के वक्त उतनी ही खौफनाक है। हवायें अब दिन से ज्यादा तेज और ठंडी हैं, साथ ही चारों ओर हवाओं के बहते शोर ने शरीर की सिरहन और डर बड़ा दी है। ‘कुछ देर यहां बैठे क्या ? मैं मजाकिया अंदाज में कहता हूं।’ ‘अरे भाई सहाब आप भी क्या बात करते हैं, चुपचाप खिसक लो, साथ चल रहे दोनों मित्रों की चेतावनी है।’ पित्रधार पार करते ही यह उम्मीद तो बन ही गयी है कि हम मोलिखर्क पहुंच ही जायेंगे। पित्रधार से रास्ता उतार का है, रात को उतार में चलना ज्यादा कष्टकारी होता है। गिरने का भय बराबर बना रहता है। हमें बार-बार लगता कि दिन में ये रास्ता ऐसा नहीं था। कहीं हम रास्ता तो नहीं भटक रहे हैं। पर भटकेगें कैसे ? रास्ता तो एक ही है, यह भरोसा भी है।
पनार के पास पहुंचे तो वहां भेड-बकरियों की रात्रि सुरक्षा में तैनात जांबाज कई कुत्तों की एक साथ भौंकने की आवाज ने हमें कल के बाघ से अधिक भयभीत कर दिया। उनकी देखा-देखी में और जहां-जहां नजदीकी छानियां होगीं वहां से कुत्तों की भौंकने की आवाज आने लगी। अब क्या करें सिवा एक जगह खड़े रहने के। दिमाग दौड़ाया और बचपन में सीटी बजाने का हुनर इस बार काम आया 5-6 सीटी बजाने के तुरंत बाद छानी के पास से किसी सज्जन की आवाज आयी कि ‘भै सहाब, आप लोग आराम से जाओ ये कुछ नहीं करेगें, हम यहीं पर हैं।’ उन्होनें हल्की सीटियों में कुत्तों को संदेश दिया कि ये राहगीर हैं, जाने दो। ‘इन मेड-बकरीपालकों ने अपने कुत्तों को कई प्रकार की आवाजों और इशारों के मतलब समझाये होते हैं। मैं बताता हूं।’ ‘चाय पीते जाओ भाई सहाब’, दिन वाले दुकानदार भंडारी का आग्रह है। ‘रुकें क्या ?’ ‘बस, बोलो मत निकल लो’ भूपेन्द्र ने कहा। ‘घन्यवाद, फिर कभी’ इतना तो मैंने बोल ही दिया। खूबसूरत पनार बुग्याल से गुजरते हुए दिन में लगा था कि क्या-क्या देखूं, अब उसी जगह से रात को डरते-डरते जाते हुए केवल रास्तों के बेड़ोल पत्थरों पर ही नजर टिकी हैं।
गिरते-पड़ते 1 बजे रात को मोलिखर्क पहुंचे हैं तो गहरी नींद से कुछ-कुछ जागा प्रेमसिंह बड़बड़ाया कि आपकी जगह पर नये यात्री सो गये हैं और कोई जगह है नहीं, आपको भी उन्हीं के साथ सैट करता हूं। प्रेमसिंह पर गुस्सा तो बहुत आ रहा है पर उसने अभी सोने के इंतजाम के बाद खाना भी खिलाना है। ये सोच कर सीता राम बहुगुणा बोलते है कि ‘कोई बात नहीं प्रेम सिंह भाई, रात ही तो काटनी है। और खाना खाकर हम जहां-तहां पसर गये हैं। सुबह ही पता चला कौन कहां था।
यात्रा के साथी और फोटो- सीता राम बहुगुणा और भूपेन्द्र नेगी।
मित्रों कैसी रही, शब्दों के पहियों पर की गई आपकी यह रुद्रनाथ यात्रा, लिख कर बताना।
फिर मिलेंगे मित्रों, किसी और यात्रा में…
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