November 21, 2024



चल चला चल राही रे

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महेश आनंद जुयाल


18 जून को मैंने कुमाऊ के रानीखेत, गगास, बग्वालीपोखर, सोमेश्वर, कौसानी, गरुड़, बैजनाथ और ग्वाल्दम से होते हुए गढ़वाल के तलवाड़ी, लोल्टी, तुंगेश्वर, थराली, नारायणबगढ़, सिमली, सिरौली, भटोली, आदिबद्री, खेती, माल्सी और दिवाली खाल से होते हुए गैरसैंण की परिक्रमा की। हमारे हर पहाड़ शिवलिंग हैं। घुमक्कड़ी मेरी पसंद रही हैं। प्रसिद्ध लेखक राहुल सांकृत्यायन ने अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा में लिखा है.

सैर कर जिंदगी की गाफिल में, जिंदगानी फिर कहां।


जिंदगी गर कुछ भी रही तो नौजवानी फिर कहां।


इन्हीं पंक्तियों से प्रेरित हो कर मैंने अपने एक हम उम्री साथी के साथ जीवन की सबसे लंबी पद यात्रा 1979 में की थी तब कैसा रहा होगा हमारा वातावरण और यातायात। हमने तब किलोमीटर नहीं गिने, जगह जगह पर माईल स्टोन मिले जो अब नहीं दिखते,कितने ही पहाड़ी खाल में कणपतिया खाल मिले। मैं जून अंतिम सप्ताह में अपने गांव पज्याणा गैरसैंण से चला पनछूया डांडा, कणपतिया, रिंगुण्यांडांडा, छीनघाट, बुंगीधार, जगतपुरी (तब जगतपुरी नहीं बसी थी), मंसारी, भगोतल्या, बयेड़ा, मासौं और रात्रि विश्राम बैजरौ उबड खाबड़ रास्तों से आज यह सोचकर भी दम सरकने लगता, वाह कैसा अल्हड़ पागलपन रहा होगा। फिर बैजरौ से बेदीखाल, संगलाकोटी, बिजोरा पानी, सतपुली, गुमखाल, द्वारीखाल, चैलूसैंण, फरसूली खाल वापसी दवारीखाल से डांडा मंडी से दुगडा से कोटद्वार। फिर कोटद्वार से बस ट्रक में गैरसैंण तक फ्री, पैसा नहीं था, केवल जाने के दिन 50 रू थे। पिता जी फौजी इंजीनियर पेंशनर थे थोड़ा मालूम है 35 रु मासिक मिलती थी. 6 रु गैरसैंण से करणप्रयाग ट्रेजरी तक आने जाने में खर्च हो जाता था। दूसरे साथी के पिता जी भी दूर बंगाल पुलिस में थे। कुल मिलाकर आर्थिक तंगी थी। लेकिन फिर भी हम दोनों ऐसे घूम रहे थे मानो राजकुमार अपने राज्य की जनता का के हाल चाल जानने दौरे पर हैं।

हमारा पहाड़ी पवित्र सौम्य समाज हमें खाना खिलाता , रास्ता बताता, सोने की व्यवस्था करता था। हमें शराबी कहीं नहीं दिखा सौगंध मातृभूमि की। रास्ते में धान की रौपाई वाले हमें बुलाते हलवा,रोटी,आलू गुटके खिलाते। रास्ते में मंडुवा गुड़ाई वाली बहनें कहती भुलू कै गों का छां, कख जांडां छां, हम ज़बाब देते, पैदल हालत ख़राब थी हमारी। भुलू तुंम भी खावा एक कतर रोटी अर लूंण, वो भी तो हम जैसे ही गरीब थे। हम तो उस समय भूखे, थके बेघर थे एक झोला ,एक कपड़े धोने का साबुन एक गमछा, दो चश्मा, दो जोड़ी पेटीशूल बिना मौजे, दो दो पेंट बैल बांटम वाले, दो दो शर्ट, एक एक कच्छे, एक एक फटे छेद वाली बंडी, गधेरों का नहाना और लकड़ी की दातून थी, दोनों के पास कुल 50 रूपये यही हमारी पूरी हैसियत थी।


सूखे चने इमरजेंसी में खाते,कहीं गधेरों में नहाने के बाद कछा सुखाने का मौका नहीं मिला तो थोड निचोडा और तलपड़े। आज साथी फौजी कैप्टन रिटायर जीवन यापन कर रहे हैं। मैं घूमते रहा साथियों को मुख्यमंत्री, कैद्रीय मंत्री तक पहुंचाया, उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए समर्पित रहा, जिपं सदस्य रहा, हैसियत अनुसार सड़क, स्कूल, पुल बनवाये, देवी स्वरुपा मेरी धर्मपत्नी जिला स्वास्थ्य निरीक्षिका रिटायर हैं जो बहुत धार्मिक हैं मैं भी हूं पर जरा कम हूं। दोनो ही वानप्रस्थाश्रम जीवन जी रहे हैं। ईश्वर की मर्जी से 11साल बाद हमारा संन्यास आश्रम शूरू हो जायेगा। आजकल हमारे पहाड़ों में और सुंदर वादियों में धान की रोपाई का कार्यक्रम चल रहा है पर्वतीय क्षेत्र के ऊंचाई वाले गांव से घाटी बाजारों में पहाड़ी आलू आ गए हैं जिसे ऋषिकेश और भाबर के क्षेत्र में तुमड़ी आलू बोला जाता हैं ये बड़े ही स्वादिष्ट होते हैं।

लेकिन इस भ्रमण में चिंता का विषय यह रहा के पर्यटन और तीर्थाटन को बढ़ावा देने के लिए सोमेश्वर में कुछ हमारे विद्वान नेताओं ने कदम उठाए थे लेकिन आज उसकी स्थिति जर्जर है एक और उत्तराखंड सरकार पलायन रोकने की बात करती है दूसरी ओर जब हम देखते हैं कि बैजनाथ की 18 मंदिरों के समूह में केवल मात्र दो में ही मूर्तियां हैं बाकी 16 में कूड़ा करकट पड़ा हुआ है। और उनकी मूर्तियां पुरातत्व विभाग ने एक कमरे में बंद किए हैं। जब मंदिरों में मूर्तियां के स्थान पर झूठे बर्तन, बेकार का कूड़ा रखा तीर्थ करने वाला भक्त देखता तो क्या संदेश ले कर जाता होगा, तब हिंदू नेता की भावनाओं को क्यों ठेस नहीं पहुंच रही होगी। क्यों झील व पार्किंग सड़क रैलिंग पर इतना पैसा बहाया। ठेकेदारी कमाई तक क्यों सीमित रह गये भाग्य विधाता गण। पलायन आयोग ने क्या देखा, क्या सोचा, सरकारी खर्चे में चकर मार कर हम पर हेकड़ी दिखा गये कि हम तुम्हारे साब हैं। ठीक है हम सरकार बनाने में सपोर्ट करते हैैं हर्जा कर वोट देने जाते हैं लोगों को मताधिकार के प्रयोग के लिए प्रेरित करते हैं तो बोलते भी हैं, इसका मतलब ए मत समझना हम आपके विरोधी हैं। भगवान की मूर्तियों को बैजनाथ मंदिर समूह में सजाओ, सच्चे हिंदू नेता हैं तो इनको संवारो, दुर्दशा देखी नहीं जा सकती। पुरातन और बिरासती हैं ये अनमोल धरोहर। कैसे रोकोगे पलायन? तीर्थाटन, पर्यटन के विकास के लिए बैजनाथ छटपटा रहा है।




मित्रों मुझे भ्रमण के दौरान दो 4 किलो आलू खरीदने का मौका मिला आज मैंने उसे बढ़िया ढंग से पर्वतीय अंदाज में प्रोसेस करके आलू के गुटके बनाए जो बड़े स्वादिष्ट बने ।कीचनकिंग बनकर इसकी इस रेमेडी को बनाने के लिए पहले आलू ब्वायल किरें उसके बाद आलू छीले और कढ़ाई में तेल गर्म करें तड़के में जीरा, मेथी, अजवाइन, काली मिर्च, जख्या, लॉन्ग, तेजपत्ता, लहसून, प्याज और हींग, कड़ी पत्ता और दालचीनी का पाउडर, अदरक का पाउडर हल्दी , धनिया को भूनें फिर उसमें हरी मिर्च, नमक और टमाटर को मिलाकर जब यह अच्छी तरह से भुन और पक जाएं तो इसमें आलू डालिए, एक चमच अलसी पावडर अच्छे फाइबर के लिए भी डाल सकते हैं। फिर 2-4 पलटी मारने के बाद उसे गरमागरम परोसें यही आलू के स्वादिष्ट गुटके हैं मुझे खाना बनाने का शौक भी कभी-कभी आता है टाइम निकाल कर पास करना पड़ता है मनोरंजन भी हो जाता है।

जीवन का तीसरा चौथा पड़ाव है और खाना बनाना मुझे बचपन से आता था पर्वतीय हूं मैं जब कभी हमारे पिताजी बाहर टूर पर होते थे और मां जी का स्वास्थ्य खराब होता था तब हम सब भाई बहनों की जिम्मेदारी खाना बनाना धारे से पानी लाना और गौशाला का कार्य करना पड़ता था इस दौरान भाईयों बहन की गुत्थम गुत्था भी योगाभ्यास से कम नहीं था। उस समय पहाड़ी क्षेत्र में आवासीय घर गांव से दूर गौशालाएं ही प्रसूती घर होता था। नवजात बच्चे 9-10दिनों तक गाय भैंसों के साथ खेलते रहते थे। महिलाएं नहाने के लिए दूर सुलधुयां नाम के स्थानों में, तीसरे, पांचवें, सातवें दिन नहाती थी, आज डिजिटल इंडिया में रुई में जन्म है, उससे आगे की लाइफस्टाइल खुद ही समझ लेवें।

मां के बिमार होने या किसी आवश्यक काम से माईका जाने पर हमारे पर जिम्मेदारी बढ़ जाती थी यही खाना बनाना भविष्य में हमारे काम आया, जब भी हम कहीं नौकरी पर है या स्टूडेंट लाइफ में रहे या पिकनिक में दोस्तों के साथ गए तो यही खाना बनाने की स्टाइल हमारे काम आई और आज भी कभी-कभी बड़ा अच्छा लगता है मैं पहाड़ी हूं, मेरा अपना पहाड़ी किचन गार्डन है. मेरे किचन गार्डन में तेजपत्ता, कड़ी पत्ता, चाय पत्ती, तुलसी, अश्वगंधा, सफेद मूसली, अपामार्गा, काली इलायची, हरी मिर्च, शिमला मिर्च, लौकी, बींस, खीरे, टमाटर, धनिया, मूली, गेंठी, तेड़ू, गडेरी, पिंडालू, हल्दी, अदरक और भिंडी, लौकी, शिमला मिर्च, तिमुला, ब्योड़ू, कंडाली और फल संतरे, बड़े नींबू, कागजी नींबू, बड़े कागजी नींबू, स्टोबेरी, कीवी, मौसमी आड़ू, चकोतरा, खुमानी, नाशपाती, अमरूद, सेब, बेर, रीठा, का फल,अखरोट, बादाम, अनार और केला आदि कई प्रजाति के उपयोगी फल और 10 से अधिक प्रजाति के गुलाब, 4 से अधिक गुड़हल की प्रजाति, बैलून फ्लावर, रातरानी, लेमन ग्रास, बोगनविलिय, नीम आदि अनेकों प्रजाति की बनस्पति हैं। और सबसे महत्वपूर्ण मेरे बगीचे में एक त्रिशूल की आकृति का लगभग 15 फिट ऊंचा शिवरूप रुद्राक्ष का पेड़ भी है।

लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता व पत्रकार हैं.