November 22, 2024



हमसे पूछो मिजाज़ बारिश का

Spread the love

मनु पंवार


ऐसे मौसम में गांव आना हुआ जब हमारे गृह राज्य की सरकार बहादुर अपनी पीठ थपथपाने में मस्त है. बड़ा शोर सुना कि समान नागरिक संहिता वाला पहला राज्य होने जा रहे हैं. जहां-तहां गर्व के गुब्बारों को हवा दी जा रही थी, सो हमने भी सोचा कि ‘गर्व’ के एकाध छींटे इधर भी पड़ जाएं तो क्या पता जीवन सफल हो जाए. मगर हाय नियति !

पहाड़ में पहुंचकर एकदम रिवर्स में चले गए. पानी के लिए वही संघर्ष, वही सरकारी योजना के नलों में पानी का इंतज़ार करते बर्तन-भांडे, कुछ किलोमीटर पैदल चलकर या बाइक, स्कूटी, कार से धारों-मंगरों (प्राकृतिक जल स्रोतों) से पानी ढोते बच्चे, युवा और महिलाएं. ये तस्वीरें देखकर एकदम फ्लैशबैक में चला गया. ऐसे ही पानी सारते-सारते पले-बढ़े हैं.


तब चूंकि गागर-बनठे जैसे बर्तनों के साथ लौंडे लोग सहज नहीं होते थे, सो ज्यादातर लौड़ों के हाथ में कंटर (कनस्तर) दिखता था. इन कमबख्त टिन के कंटरों का अपना एक चरित्र भी है. हमारे जवान/तरूण कंधों पर पानी से भरे कंटर अपने निशान छोड़ जाया करते थे. इंसानी शरीर अपनी कहानी दर्ज़ करने का यह कंटरों का अपना स्टाइल है. चढ़ाई पर चढ़ते हुए जब कंटर से पानी छलकने लगता तो हमारा आधा नहाना तो वैसे ही हो जाया करता था. घर पहुंचकर अपने गीले शरीर के भूगोल पर तौलिया घुमाया और हो गए रेडी.


उन दिनों की सरकारों ने कंटर में ढक्कन लगाने का कोई पक्का इंतजाम किया नहीं था. सो हम लोग जुगाड़ के लिए कंटर पर बुजेड़ा लगा दिया करते थे. मने कंटर के मुंह पे कपड़े का टुकड़ा ठूंस देते. लेकिन जुगाड़ तो आखिर जुगाड़ ही है. कब तक ठहरता. पानी किसी असंतुष्ट विधायक की तरह बार-बार अपने बाड़े से बाहर निकल आता. पानी को बंधन मंज़ूर नहीं है. काश ये बात पहाड़ी नदियों पर बेहिसाब डैम खड़े कर देने वाली हमारी सरकारें भी समझ पातीं.

बहरहाल, हमारे गांव से लेकर हमारे शहर पौड़ी तक पानी के कई-कई किस्से ज़ेहन में ताज़ा हैं, जैसे पनघट पर पानी के लिए मारामारी, झगड़े, लड़ाइयां, हास-परिहास. पानी के लिए होने वाले झगड़ों ने पहाड़ के हमारे गांवों के सौहार्द और सामुदायिकता को भी कम नुकसान नहीं पहुंचाया. कई-कई जगह तो बैर इस हद तक पहुंचा कि फलाणे ने फलाणे को घात लगा दी. जिस पर घात लगी, वो देवी-देवता और बक्या के चक्कर लगाने लगा ताकि इस प्रकोप से मुक्ति मिले.


उन दिनों पानी का संकट हमारा दिन का एजेंडा सेट किया करता था. मतलब अगर हमें किसी तय समय पर किसी काम पर निकलना है और पानी नहीं आया या नहीं आने की पूर्व सूचना प्राप्त हो गई तो फिर पहला और इकलौता काम होता पानी का इंतजाम करना.

इसीलिए गांव आने पर इन तस्वीरों ने फिर से उन्हीं मुश्किल दिनों की यादें ताज़ा कर दीं. साथ ही इस बात की पुष्टि भी कर दी कि बदला कुछ नहीं है. पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा, रोजगार हमारी सरकारों के मुख्य एजेंडे में आज भी नहीं हैं. वो किसी और ही बात पर फूलकर कुप्पा हुए जा रही हैं. लेकिन हकीक़त उनसे जानिए जिन पर बीत रही है. किसी शायर ने भी कहा है-




‘हमसे पूछो मिजाज़ बारिश का

हम जो कच्चे मकान वाले हैं.’

लेखक इलेक्ट्रोनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं.