रुद्रनाथ यात्रा – 5
अरुण कुकसाल
सै (सच) बोलूं भै (भाई) साब, आज का आदमी अपने अंदर ही दुबक गया है, पनार बुग्याल के ऊपरी छोर वाले रास्ते पर अब हम चल रहे हैं।
पनार चोटी के गले पर हार की तरह दूर तक लहराता हुआ यह रास्ता, रुद्रनाथ की ओर घनघोर कुहरा लगे होने की वजह से, घीरे-धीरे गुम होता नज़र आ रहा है। गनीमत यह है कि बारिश फिलहाल पनार की ओर आराम फरमा रही है। आगे के रास्ते के दोनों ओर छोटे-बढ़े पत्थरों के बुत कोहरे में दूर से किसी आदमी के होने का भ्रम देते हैं। लगता है कि कोई थक कर बैठा होगा। पहले पहल तो ऐसा ही समझ के उनमें से किसी एक को पूछने को हुआ कि ‘भाई आगे रास्ता कैसा है।’ परन्तु अपनी बेवकूफी अपने तक ही सीमित रही। कुछ पत्थर लोगों ने जगह-जगह पर खुद भी खड़े किये हैं। कहीं पर उनके ढ़ेर बनाये गये हैं। उनके आस-पास सफेद कपड़े की चीर, झंडा, पिठाई और फूल-पत्तियां उनकी विशिष्ट उपस्थिति की सूचक है। फागुनी बताती है कि ‘ये मनौती के पत्थर है। किसी पत्थर के पास जाकर उससे चुपचाप अपने मन की मुराद कही जाती है। फिर उसको सम्मान के साथ किसी सुरक्षित जगह पर रखा जाता है। मुराद पूरी होने के बाद यहां आकर पुनः उस पत्थर को पूजा जाता है।’
‘आपका जन्म फागुन के महीने हुआ होगा’ मैने कहा। ‘हां भै (भाई) साब, इसी तरह मेरी बहिनों का नाम भी चैता (चैत) और सौणी (सावन) है। मेरा पोता भी आने की जिद्द कर रहा था, पर कहां लाती उसे, फिर मौसम ऐसा खराब हुआ है। अब पोते को खुश करने में बौत टैम लगेगा। शादी हो गयी थी मेरी जब में 13 साल की थी। अब हो गये होगें शादी को 35-36 साल, गिना तो हमने कभी नहीं। गिनते कहां से, पढ़ा-लिखा तो हमने है नहीं। बस, खेती-बाड़ी और घर-परिवार में ही बीत गया जीवन। पर भै साब, पैले का टैम भौत (बहुत) अच्छा था। कष्ट भौत थे, गरीबी भी थी, पर लोगों में प्रेम-भाव उससे ज्यादा था। गांव की सारी सुविधायें और खेती-बाड़ी संजैती (सामुहिक) थी। आज गांव-समाज में सुविधायें तो बड़ी हैं पर उनका स्वरूप व्यक्तिगत ज्यादा हो गया है। संजैती खेती अब रही नहीं, तब अकेला परिवार कैसे करेगा खेती-किसानी। सै (सच) बोलूं भै साब, आज का आदमी अपने अंदर ही दुबक गया है।’ मैं रुककर, साथियों को आगे बढ़ने दे रहा हूं। मेरा घ्यान उन पेडों की तरफ है जहां से किसी पक्षी की एकाकी आवाज आ रही है। घ्यान आया हिलांस है वो। पहाड़ का गितांग (गीत गाने वाला) पक्षी। पहाड़ के खुदेड़ (कारुणिक) गीतों में हिलांस खूब आया है। फागुनी की बातें हिंलास के एकाकीपन को लिए पहाड़ी महिलाओं के खुदेड़ गीत जैसे ही तो हैं।
फागुनी बताती है कि कुछ साल पहले तक वो गांव की महिलाओं के साथ कभी-कभार पनार तक (16 किमी. जाना-आना) घास लेने आती थी। अपने घर से सुबह का नाश्ता लेकर वे देर शाम ही वापस घर पहुंच पाती थी। देवी-देवताओं की पूजा-पाठ करने, जड़ी-बूटी एवं जंगली फल-फूलों को लेने के लिए इलाके के सभी गांवों के लोग पनार तक अक्सर आते-जाते रहते हैं। फागुनी देवी बोलती जा रही है और बस बोलती ही जा रही है। इसके बावजूद, चढ़ाई के इस ऊबड़-खाबड़ रास्ते में उसका चलना ऐसे ही है, जैसे आराम से अपने घर-आंगन में चल रही होगी। एक हम हैं थकान कम करने का मन होता है तो थोडा रुक कर कहते हैं ‘क्या घना जंगल है, समाने हिमालय या झरने का सीन गजब का है। कितनी शांति और ताजी हवा है यहां, शहर में ऐसा कहां मिलेगा। इस बहाने रुक कर अपनी सांसों को आराम देते तो जरूर हैं, पर साथ वाले से कह नहीं पाते हैं कि यार, रुका इसलिए कि थकान हो गयी है।
पित्रधार (समुद्रतल से 17 हजार फीट ऊंचाई) पर पहुंचे हैं। नंदा राजजात का कलुवा विनायक याद आ गया है। वैसी ही धार और वैसी ही चारों ओर से फर-फर चलने वाली सख्त ठंडी हवायें है। रुद्रनाथ जाने के लिए पितृधार सबसे ऊंची जगह है। यहां से इस पहाड़ का दूसरा छोर शुरू होता है। रुद्रनाथ वाले रास्ते के लिए यहां से चढ़ाई लगभग खत्म हो जाती है। आगे का रास्ता सीधा और कम उतार-चढ़ाव वाला है। पित्रों को सर्मपित इस धार में मंदिरों के कई छोटे-छोटे समूह हैं। दिवंगत परिजनों की पित्रलोड़ी (पित्र प्रतीक पत्थर) यहां जहां-तहां है। पितृधार से आगे पंचगंगा का खूबसूरत ढ़लुवा मैदान है। रास्ते के बांयी ओर बड़े और समतल सिलोटे/चबूतरानुमा कई पत्थरों के समूह बिखरे हैं। देवश्वरी का कहना है कि ‘ये पत्थर नमक पीसने के काम आते हैं। इन्हीं पत्थरों में जंगल की ओर चरने को छोड़े गए पालतू जानवरों को नमक खिलाया जाता है। जब भी इन जानवरों को अपने शरीर में नमक की कमी महसूस होती है तो वे इन पत्थरों को चाटने इनके पास आ जाते हैं।’ एक छोटे धारे पर पंचगंगा लिखा है। इस स्थल पर निकलने वाली पांच पानी की धाराओं का यह मिलन स्थल है। पास ही चाय की दुकान है, पर दुकानदार जी अपने जानवरों की खोज में सामने की धार में खड़े हैं। आवाज दी पर उन सज्जन ने वहीं से ऊंची आवाज में कहा कि उसे देर लगेगी, आप चाहें तो अपने आप चाय बना लीजिये। अब हमारा स्वयं चाय बनाना तो ठीक नहीं है, बेेहतर है आगे चलते बनो। पंचगगा से आगे लगता है जैसे फूलों की घाटी में चल रहे हों। फलुकंडी, तोन्नासैंण के बाद आया है देवदर्शनी। देवेश्वरी और फागुनी को रास्ते की प्रत्येक वनस्पति के बारे में जानकारी है। वनस्पतियों के नाम, खिलने का समय और उपयोग उनको जुबानी याद है। अदभुत है उनका परिवेश प्रदत ज्ञान और हुनर। वो चलते हुए बताती जाती हैं कि ‘ये पूरा क्षेत्र औषधियों का भंडार है। पर करें क्या न उनका सही उपयोग और न ही उनका संरक्षण हम कर पायें हैं। कई वनस्पतियां जिनको हमने कुछ साल पहले देखा था वो अब है ही नहीं।’
देवदर्शनी से रुद्रनाथ के प्रथम दर्शन होते हैं। देवदर्शनी से मात्र 1 किमी. दूरी पर भगवान रुद्रनाथ का मंदिर है। साफ मौसम में विशाल पत्थरों की ओट में चमकते हुए मंदिर का आलोक अदभुत दिखाई देता है। थोड़ा आगे जाने पर लोगों की चहल-पहल है। सुबह आने वाले यात्री वापस जा चुके हैं। शाम को आने वालों में हम 5 यात्री सबसे पहले पंहुचे हैं। प्रातःकालीन पूजा के बाद मंदिर के दर्शन शाम 4 बजे के बाद होगें। अभी शाम के 3 बजे हैं। आराम करने और भात-दाल खाने का अच्छा मौका मिल गया है। घीरे-धीरे और यात्रियों का आना शुरू हो गया है। मेरे मित्र प्रेमप्रकाश पुरोहित, गोपेश्वर से परिवार और दोस्तों के साथ अभी आये हैं। उनसे रुद्रनाथ में मिलना एक सुखद संयोग है। शाम को आने वाले सभी यात्री रात को रुद्रनाथ में रुकेगें परन्तु हमें तो वापस जाना है। अपना झोला-तुमड़ा (यात्रा का सामान) मोलिखर्क में जो छोड़ आये है हम। यात्रा जारी है…
यात्रा के साथी और फोटो – सीता राम बहुगुणा और भूपेन्द्र नेगी
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