रुद्रनाथ यात्रा – 4
अरुण कुकसाल
सरकार यहां लापता है, सुबह के 7 बजे हैं और मोलिखर्क में बारिश की रुण-झुण जारी है।
परन्तु मेरे लिए बेहद खुशी की बात ये है कि वर्षों बाद रात को फसोरकर (बेसुध) बचपन वाली नींद आयी। वो ऐसे कि, प्रेम सिहं की टीन वाली छत की छानी में रात को ठीक सोते वक्त 50 साल पहले अपने जोशीमठ वाले घर की याद जो आ गयी थी। तब जोशीमठ में ज्यादातर घर टीन की छत के हुआ करते थे। उस दौर में जोशीमठ में सालभर खूब लम्बी-लम्बी बारिशें हुआ करती थी। कई दिनों और रातों तक झूड़ी (लगातार धीमी गति की बारिश) लगी रहती थी। घरों की टीन की छत पर पड़ने वाली बारिश की एकसार दणमण-दणमण संगीतमय आवाज में सोने के हम बच्चे आदी हुआ करते थे। जिस रात बारिश नहीं होती थी, उसकी टीन की छत पर पड़ने वाली आवाज के बिना नींद भी अच्छी नहीं आती थी। कल रात अवचेतन मन में छुपी उस आदत को सजीव होने का मौका जो मिल गया था। खैर, ये तो बीते जमाने की बात है। इस समय का मूल प्रश्न यह है कि मोलिखर्क से पनार 3 किमी. और वहां से रुद्रनाथ 7 किमी. है। याने मोलिखर्क से 10 किमी. हुआ रुद्रनाथ। तय हुआ कि रुद्रनाथ दर्शन करके वापस यहीं मोलीखर्क आ जायेंगे। कल 8 किमी. चले थे, आज जाना-आना 20 किमी. है। है तो मुश्किल पर आज पीठ पर समान नहीं होगा और दिन पूरा है। ‘दिक्कत क्या है, बस मौसम का मोशन ठीक हो जाना चाहिए’ भूपेन्द्र का आज सुबह का यह पहला वक्तव्य है। पनार से आगे पित्रधार तक 4 किमी. की चढ़ाई और उसके बाद 6 किमी. की हल्की चढ़ाई वाला ठीक-ठाक रास्ता है। प्रेमसिंह की परिजन महिलायें हमारी गाइड़ हैं क्योंकि उनका रुद्रनाथ लगभग हर साल जाना होता है। अब साथ चलने वाले ‘हम पांच’ हैं। हमारी यात्रा की नयी साथी फागुनी देवी और देवेश्वरी देवी का जाना-पहचाना इलाका है। मोलिखर्क से चलने से पहले अपनी छानी के ठीक सामने परिवार के इष्टदेवता ‘बूढ़देवा’ के मंदिर में उन्होने पूजा-अर्चना की है। पत्थरों को बस समेट कर उसके अंदर ‘बूढ़देवा’ को प्रतिष्ठापित किया गया है। देवेश्वरी बताती हैं कि ‘जंगल में जहां भी खर्क में छानी बनती है वहां सबसे पहले ‘बूढ़देवा’ का मंदिर स्थापित किया जाता है। ‘बूढ़देवा’ प्रेत-आत्माओं से रक्षा करने वाले और धन्य-धान्य के देवता हैं। हमारे पशु उन्हीं की कृपा से यहां सुरक्षित और स्वस्थ रहते हैं।’
मोलिखर्क के ऊपरी जंगल से गुजरते हुए यहां-वहां चरते पचासों पालतू जानवरों की घंटियों की आवाज से लग ही नहीं रहा है कि हम किसी वीरान जंगल से गुजर रहे हैं। नीचे की ओर अपने दो खच्चरों के साथ आते व्यक्ति ने फागुनी को बताया कि उसके खच्चर पनार के जंगल में 2 महीने बाद आज मिल पाये हैं। ऐसा अक्सर होता है, लोगों के जानवर चरते-चरते अनजान जगह चले जाते हैं, फिर उनको खोजने में महीने भी लग जाते हैं। फागुनी बताती हैं कि ‘इस पूरे इलाके में घर के जो जानवर खेती-बाड़ी या फिर दूध देने से छूटते हैं तो उन सबको जंगलों में हांक दिया जाता है। हमारे पालतू पशु इस पूरे इलाके से परिचित हैं, इसलिए उनकी विषेश निगरानी नहीं करनी होती है। सामान्यतया जंगली जानवर उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। वे एक-दूसरे को भली-भांति जानते जो हैं। जब भी खेती-बाड़ी या अन्य के लिए हमें अपने जानवरों की जरूरत होती है तो उन्हें जंगल से घर ला जाते हैं। ’लगभग 2 किमी. चलने के बाद ल्वींटी खर्क जगह में चाय पीने रुके। चारों ओर से रिगांल और तिमूर के जंगल से घिरे ल्वींटी में चार छानियां है, जिनके आस-पास भेड़-बकरियों की लम्बी कतारें हैं। घोडे-खच्चर भी हैं। पूछा ‘ल्वींटी’ नाम क्यों है। चाय वाले भाई का हाजिर जबाब मिला कि ‘साहब ‘ल्वीं’ का तो पता नहीं पर ‘टी’ यहां सभी यात्री पीते हैं। इसीलिए ल्वींटी नाम पड़ा होगा इस जगह का।’
मोलिखर्क से ल्वींटी तक तो रास्ता लंदा-लंदा (हल्की चढ़ाई वाला) है। ल्वींटी के बाद एकदम खड़ी चढ़ाई और फिर घार ही घार का रास्ता है। घीरे-धीरे जंगलों का घनापन और पेडों की ऊंचाई भी कमत्तर होती जा रही है। जंगलों के बीच-बीच में हरी घास के छोटे-छोटे ढ़लवा मैदान हैं। उनमें जंगलों की ओर छोड़े गये पचासों पालतू जानवर (घोडे़-खच्चर, गाय-बैल) मजे से चर रहे हैं। अपने आदिमजात मालिकों की हुकूमत से दूर प्रकृत्ति एवं अपने हमजात साथियों के साथ स्वछंद सहचरी का उनका यह स्वर्णिम समय है। भेड़-बकरियां भी हैं पर वे चलताऊ रास्ते के आस-पास ही हैं। उनकी देखरेख के लिए तीन-चार झबरा कुत्ते भेड-बकरियों के चारों ओर कहीं दुबके पड़े होगें। आखें चाहे उनकी बंद होगी पर अपनी ड्यूटी पर चौकस और चौकन्नें होंगे। मजाल क्या है कि कोई उनके मालिक की भेड़-बकरियों पर हमला तो क्या उनको बेवजह छेड़ ही दे। मोनाल पक्षी अपनी लचकती स्वाभाविक चाल में सामने पानी के पास बेखौफ टहल रहा है। एक बात समझ में नहीं आती कि मोनाल अक्सर अकेला ही क्यों दिखाई देता है। रवीन्द्र नाथ टैगोर जी की ‘एकला चलो रे’ की नीति का पक्का प्रशंसक लगता है, मोनाल। दूसरी ओर जंगली मुर्गियां झुंड के झुंड में तीसरे-चौथे मोड़ों पर चहकती और दौड़ती ऐसे नजर आ रही हैं कि बस बैठने की कहां फुरसत, ढ़ेरों काम जो करने हैं उन्हें। हमारे लिए तो ये जंगल है और उनके लिए अपनी घनी बस्ती का डेरा है। भूपेन्द्र का कहना है कि ‘आप इन्हें मुर्गियां ही क्यों कह रहे हो, मुर्गे भी तो होंगे इनमें।’ अब क्या जबाब दूं ? प्रिय पाठकों, आप अपनी टिप्पणी में मालूम हो तो जबाब लिखना।
पहाड़ की धार पर पनार (समुद्रतल से 11 हजार फीट ऊंचाई) के पास पहुंचे तो लगा एक नयी दुनिया के द्वार खुल रहे हैं। नीचे की ओर सफेद बादलों का लहराता समुद्र तो आसमान में दौड़ते बादलों की आवाजाही और बीच में जहां तक नजर जाती हरा-भरा पनार बुग्याल (ऐल्पाइन मेडोज) है। पहाड़ के एक छोर पर हल्की ढ़लान के साथ पसरे बुग्याल में जगह-जगह रंग-बिरगें फूल हवा के साथ पूरी मस्ती में झूम रहे हैं। दुविधा यह कि नजरें कहां-कहां, कितना और कब तक देखें। पनार के इंट्री पांइट पर ही ‘बूढ़देवा’ और ‘भैरव’ का मंदिर है। रास्ते के बायीं ओर की सबसे ऊंची धार पर राष्ट्रध्वज तिरंगा लहरा रहा है। जिसे देखकर अचरज के साथ आंनद का भाव आना स्वाभाविक है। साथ आयी महिलायें पनार के मंदिरों में पूजा कर रही हैं। घर से लाये ककड़ी, अखरोट, मुंगरी (मक्का), चावल, पिठाई फूल-पत्ती आदि को वो देवताओं को सर्मपित करती हैं। मेरा मन है कि वो देवताओं को भोग लगाने के बाद उनको (विषेशकर अखरोट) हमें खाने को दे देती तो सुबह की भूख से तस्त्र मन को राहत के साथ आनंद आ जाता। पर मन की बात मन में ही रह गयी, कहने की हिम्मत नहीं हुयी। देवश्वरी ने कहा कि ‘ये सब देवता के नाम के हैं। जब ये पेड़ या बेल पर रहते हैं तभी इन्हें देवता का हिस्सा मान लेते हैं। और जब भी समय मिलता है तो घर का कोई आकर इनको यहां चढ़ा देते हैं। ’अब तो सारी संभावनायें धूमिल हो गयी हैं। मेन रास्ते के दांयी ओर थोड़ा हटकर छानी वाली दुकान है जिसे दिलबर सिंह भंडारी चलाते हैं। सीताराम बहुगुणा जी ने नाश्ते के लिए पहाड़ी मूला की थिंच्वाणी और रोटी का आर्डर दिया है। पहाड़ी घी और जख्या के साथ भुनी लाल मिर्च का तड़का भी लगेगा, बल। घर के दूध की चाय तो मिलने वाली ही हुयी। नाश्ता जल्दी बन जाय इसलिए फागुनी और देवेश्वरी ने रोटी बनाने का जिम्मा खुद ले लिया है। दुकानदार भंडारी उन्हीं के घर-गांव के हैं। तब दुकान क्या घर का जैसा ही हुआ। जिधर से हम आयें हैं उस पहाड़ी के ठीक पीछे वाले हिस्से की ओर एक लम्बी पंगडडी दिखाई दे रही है। यह रास्ता पनार से पांचवा केदार कल्पनाथ / कल्पेश्वर (समुद्रतल से ऊंचाई 6 हजार फीट) की ओर का है। पनार से कल्पेश्वर का पैदल रास्ता 28 किमी. का है।
दिलबर सिंह भंडारी की दुकान के ही बगल में बंद हालत में एक पक्का भवन है। उस पर पोंचिग हट, वन विभाग लिखा है। इस क्षेत्र में जंगलों की देखरेख और निगरानी के लिए यह है। देखकर ही लगता है कि महीनों से इस भवन को नहीं खोला गया है। साफ जाहिर है कि कर्मचारी यहां आते ही नहीं है। भंडारी बताते हैं कि सालों पहले सेना का एक कैम्प यहां स्थाई तौर पर रहता था। उन्हीं के द्वारा यह बनाया गया है। सेना के यहां से चले जाने के बाद इस भवन को वन विभाग को दे दिया गया है। एक बड़ी डेस्टबिन कूड़े-कचरे से भरी है। इस कूडे का निपटान कैसे और कब होगा किसी को पता नहीं है। रास्तों के आस-पास का कूड़ा तो वहीं रहने वाला है। भूपेन्द्र का कहना है कि ‘कल हम सगर से चले थे, पनार तक पूरे 12 किमी. के पैदल रास्ते में तिनका मात्र के सरकारी प्रयास / सुविधायें / कर्मचारी नजर नहीं आये। पैदल रास्ते में माइलस्टोन तक कहीं नहीं है। कोई बीमार या दुर्घटना हो जाय तो भगवान ही मालिक है। फिर इलाज के बारे सोचना ही क्यों है। सरकार का पर्यटन / तीर्थाटन विकास तमाम विज्ञापनों में ही दिखता है यहां तो सरकार लापता है। जो कुछ है बस स्थानीय लोगों का किया हुआ कमाल है। यात्रा जारी है…
यात्रा के साथी और फोटो – सीता राम बहुगुणा और भूपेन्द्र नेगी
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