एरवाल नृत्य
हरीश भट्ट
माथे पे बिंदिया, आंखों में काजल, कानों में कुंडल, गले में मंगल सूत्र (गुलाबंद), नाखूनों में नेल पालिश, उंगलियों में अंगूठियां, हाथों में चूड़ियां, कमर में घुंघरू घण्टियां, पांवों में पाजेब और घुंघरू एक विशेष तरह की पोशाक से सुसज्जित ये किसी महिला या लड़की का का श्रृंगार नहीं ये पहनाए जाते हैं, एक पुरुष या लड़के को, वो भी एक घंटे, एक दिन, एक हफ्ते, एक महीने के लिए नहीं, पूरे नौ महीनों के लिए सुबह से रात तक के लिए वो भी सिर्फ देखने दिखाने के लिए नहीं, उनसे उस “साधना” को जो घर परिवार बच्चों को छोड़ कर नंगे पांव एक समय ही भोजन कर, सिर्फ अपनी “ईस्ट देवी मां चंडिका” के लिए समर्पित होकर उसके गुणों की महिमा को अपने नियम धर्म संयम से तीर्थ क्षेत्रों एवम गांवों में देवरा यात्रा के नाम से भ्रमण कर विशेष तरह के “नृत्य” को करने के माध्यम से जिस नृत्य को इनके नाम से ही जाना जाता हे “एरवाल नृत्य”
और इनको इनकी इसी पोशाक से ही चंडिका का “एरवाल” कहा जाता है. अपनी “ईस्ट देवी मां चंडिका” पर अपने अटूट आस्था विश्वास श्रद्धा के कारण ही ये लोग इतनी बड़ी “साधना तपस्या” को कर पाते हैं, जो इस कलियुग में सतयुग के ऋषियों के हजार सालों की “साधना तपस्या” के बराबर है. आप सभी दशज्युला कांडई के ग्राम वासियों एवम “मां चंडिका” देवरा यात्रा के आयोजकों को इस हमारी धार्मिक आध्यामिक पारंपरिक देवभूमि उत्तराखण्ड की मान्यताओं को जीवित रखने के लिए कोटि कोटि नमन के साथ “मां चंडिका देवी” को दंडवत प्रणाम प्रभु कृपा बनी रहे! नोट – रहस्यों को जानने के लिए, पहले स्वयं को स्वयं से साक्षात होना पड़ेगा !
लेखक प्रसिद्ध फोटोग्राफर हैं.