November 26, 2024



रुद्रनाथ यात्रा – 3

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अरुण कुकसाल


बोलती तो हमारी, बाघ की गुर्राहट से कब की बंद हो चुकी है. अब पहले पहुंचना है पुंग।


ये कैसा नाम है भाई, पुंग, भूपेन्द्र मुस्कराता है। वहीं जाकर पता चलेगा। पर पुंगी तो बजने वाली ही हुयी। ऊपर चढ़ते जाओ और चढ़ते जाओ। अचानक कहीं पर 50 कदम सीधा चलने को मिल जाय तो भगवान रुद्रनाथ की ही कृपा है। गांव, खेत और छानियों को पीछा छोड़ते हुए निर्जन जंगल है। मन में हर समय इच्छा होती कि रुद्रनाथ से वापसी वाले यात्री मिल जाते तब उनसे पूछते कि भाई, आगे कितना दूर है और रास्ता कैसा है। पर ‘मन मांगी मुराद’ इतनी जल्दी कहां पूरी होती है। एक धार पर पहुंचे और यह सोचकर कि चलो, कुछ देर बैठा जाय।‌ बैठ भी नहीं पाया कि चगपता नहीं, कैसे अपनी पीठ का पिठ्ठू नीचे की ढ़लान पर लुड़कते हुए अलविदा वाली मुद्रा में आ गया। पर ताजुब्ब यह कि हम तीनों पकड़ने के बजाय उसको घिरमिंडी / पलटी खाते हुए देखने का आनंद लेते रहे। लगा कि अब तो हाथ आने से रहा क्योंकि नीचे तो गहरी खाई और तीखा ढ़लान है। पर किस्मत का धनी में, एक छोटी सी झाड़ी ने पिठ्ठू को संभाल लिया। अब उसको तकरीबन 50 मीटर नीचे से लाने का जोखिम तो लेना ही था। साथी लोग भाईसाहब संभलकर जाना कह तो रहे हैं, पर साथ में उनकी लगातार हंसी बता रही है कि अभी भी उन पर बैग लुड़कने का आनंद बरकरार है। बैग जहां अटका उससे नीचे देखना भी खतरे को दावत देना है, ये सोच कर दबे पांव वापस आया तो लगा कि जग जीत लिया। चलो, इस बहाने तीनों की थकान तो हल्की हुई। वरना फूली हुयी सांसों के साथ लगातार पैदल चढ़ाई चढ़ते हुए हंसी का आ जाना कम ही होता है।


पुंग पहुंचे तो एक बड़ा मखमली खूबसूरत मैदान नजर आया। चारों ओर से जंगल से घिरा। बायें ओर के पर्वत शिखर मेें जहां जगंल नहीं हैं वहां 4 झरने अपनी भव्य उपस्थिति दे रहे हैं। दायें ओर का पहाड़ घने जगंल से घिरा है। हमें उसी ओर जाना है। पुंग में दो छानियां हैं, जो आजकल यात्रियों के खाने-पीने और रहने के काम आ रहे हैं। रुद्रनाथ से वापस 10-12 यात्रियों की चहल-पहल भी है, जो रात को यहीं रुकेंगे। प्रेम सिंह के बारे में पूछते हैं तो पता लगा ‘प्रेम सिंह तो अपनी महिला साथियों के साथ प्रेम से आगे चले गये हैं। उनका यह संदेशा भी कि वे धीरे-धीरे चल रहे हैं, इसलिए आप लोगों से रास्ते में मुलाकात हो ही जायेगी। ’पूछा, ‘किधर को है मोलिखर्क।’ पुंग वाले छोटे कद के सज्जन ने अपनी मुंडी जितना ऊपर उठा सकते हैं करके बोले ‘मोलिखर्क वो सामने वाली चोटी से थोड़ा और आगे है। यहां से 4 किमी. है। ’शरीर में हिर्र- हिर्र तो हो ही गयी हमारी। पर चलना तो है ही। क्योंकि पुंग में तो रहने की व्यवस्था फुल हो गयी है। कुछ और यात्रियों ने पहले से ही बुक कराया है। सीताराम पूछते हैं कि ‘इस जगह का नाम पुंग कैसे पड़ा।  ‘पता नहीं जी पुराने लोग कहते आ रहे हैं।’  ‘अब बोलना क्या है यहां आकर महसूस ही हो गया कि इसे पुंग क्यों कहते हैं,’ भूपेन्द्र मुस्कराया।

पुंग की छाानियों से काफी दूर तक समतल घास के ढ़लान हैं। लगातार बारिश और लोगों के आने-जाने से रास्ते में फिसलन है। अब तक थमी बारिश फिर शुरू हो गयी है। पुंग के आखिरी कोने से एकदम खड़ी चढ़ाई है। बांझ-बुरांश के जंगल का घनापन और गहराने लगा है। समय का तकाजा है कि हम अपनी चाल मेेें तेजी लायें। तभी अंधेरा होने से पहले मोलिखर्क पहुंच पायेंगे। पर लगातार चढ़ाई और बारिश के साथ ऐसी हालत में तेज चलने की भी एक सीमा होती है। शाम की घुधंलाहट भी तेजी से बढ़ रही है। एक ही घार से लगातार कैंचीनुमा चढ़ाई का रास्ता, बारिश की किच-पिच और दोनों ओर बद-बद तेजी से बहते गधेरों के पानी के शोर ने शरीर की बोझिलता बढ़ाई है। परन्तु ‘रुक जाना नहीं तू कहीं हार के’ का मंत्र हमारे साथ है। चलते-चलते नीचे निगाह जाती है तो पुंग गोल कटोरेनुमा नजर आता है। परन्तु हमारे ऊपर की धार का अता-पता नहीं है। हमें लग रहा है कि अगले हर मोड़ के बाद मोलिखर्क के दर्शन हो ही जायेंगे। पर ऐसा न होकर नये मोड़ के बाद तुरन्त आगे का मोड़ नजर आ जाता है। भूपेन्द्र का कहना है कि यहां के किमी. लम्बे तो नहीं है। वरना 4 किमी. तो इतना ज्यादा होता नहीं है। अब तुम कुछ भी सोचो लेकिन मोलिखर्क तो अपनी निर्धारित दूरी पर ही आयेगा।


बारिश के मौसम में जाती हुयी शाम के बाद अंधेरा तुरंत होने लगता है। वैसे भी ऊंचे पहाड़ों में रात और सुबह दोनों बहुत तेजी और जल्दी से होते हैं। इसका अंदेशा साथियों को बताया तो तय हुआ अब तो मोलिखर्क में पहुंच कर ही दम लेगें। हमसे आधे घंटे पहले पुंग से जाने वाले प्रेम सिंह का कहीं अता-पता नहीं है। सीताराम ‘औ ! प्रेम सिंह, औ ! प्रेम सिंह की आवाज लगाने के बाद ‘प्रेमू भैजी’ तक की धै / आवाज़ लगाने में है। पर वो नजदीक कहीं हो तो प्रत्युत्तर दे पाये। उसका तो जाना-पहचाना रास्ता हुआ। सरपट चल दिया होगा। ‘आप सीटी बजाओ, नीचे सगर के रास्ते में तो आपकी सीटी काम नहीं आयी, क्या पता यहां जगंल में काम आ जाय। प्रेम सिंह सुन लेगा तो हमें आवाज जरूर देगा। कुछ तो राहत मिलेगी, ‘भूपेंद्र का सुझाव है। बजाने को जैसे ही तैयार हुआ कि मुझे अभी कुछ दिन पहले विख्यात शिकारी एवं मित्र लखपत सिंह रावत की कही बात तुरंत याद आयी कि ‘घने जंगल में जाते हुए कभी भी ऊंची आवाज नहीं लगानी चाहिए। जितना हो सके चुपचाप चलते जाओ। आवाज लगा कर हम किसी भी जंगली जानवर को अपनी स्थिति और उससे अपनी दूरी को बताने और समझने का मौका देते हैं। जिससे वह अटैक करने की अनुकूल स्थिति बना लेता है। ’और यह वक्त तो रात का है, थोड़ी भी आवाज करना इस समय खतरे को और संगीन करना हुआ। साथियोें ने यह बात मानी। अब मोबाइल टार्च की रोशनी में हम चुपचाप आगे बढ़ रहे हैं। चढ़ाई और मोड़ का अंत होते तो दिखता नहीं है। पर रास्ते के ऊपरी ओर की गुर्राहट और छिड-बि़ड़ाहट जब बिल्कुल पास और तेज होने को हुयी तो हम तीनों जड़वत हो गये हैं। रास्ते के ऊपरी हिस्से से एक-साथ चिपक ही गये समझो।

कम्बख्त मोबाइल की टार्च भी जल्दी बंद नहीं हो रही है। ये तो निश्चित है कि कोई बड़ा जानवर उसी ओर है, जिस रास्ते हमें जाना है। बाघ की ही गुर्राहट है। छिड़-बड़ाहट कई जगहों से आ रही है। यकीकन, बाघ एवं बाघिन जी सःपरिवार गश्त पर हैं। टोपमार कर (मुंह छिपाना) हम तीनों ऐसे बुत्त बने हैं कि जैसे हम उन्हें नहीं देखेगें तो वह हमें नहीं खायेंगे। कौन समझाये कि, हमको देखना भी बाघ परिवार को ही है और करना भी उन्हीं को है। पुंग वाले भाई ने बताया था कि इधर जंगली जानवर शाम के वक्त रास्तों के आस-पास ही रहते हैं। यदि छेड़ा न जाय और बिल्कुल पास न हो तो वे आदमियों पर अमूमन हमला नहीं करते। पर यहां तो जान पर जान बन आयी है। अब तो हमारे इष्ट देवी-देवता ही रक्षा कर सकते हैं। अपने बैगों को आगे की ओर ये सोच किया कि जैसे, इसी से बचाव हो जायेगा हमारा। लगभग 15 मिनट हो गये हैं। बाघ की आवाज अब सामने की ओर से घीरे-धीरे दूर जाती लग रही है। सांस पर सांस आयी, अब तक तो सांसों की आवाज भी नहीं सुनाई दे रही थी। आगे चलने के अलावा कोई चारा नहीं है। अंधेरे गीले रास्ते में तेजी से पड़ते हमारे कदमों की चप-चप आवाज ही साथ चल रही है। बोलती तो, हमारी बाघ की गुुर्राहट से कब की बंद हो चुकी है। ‘डर के आगे जीत है’, भूपेन्द्र ने धीरे से बोला। सीताराम ने तुरंत जोर से प्रत्युत्तर दिया ‘भुला, जीत नहीं रास्ते में गोबर है और इसका मतलब है कि हम बस्ती के आस-पास पहुंच चुके हैं’।




अचानक दायें-बायें से घंटियों की घीमी आवाज के साथ एक साथ चमकती हुयी कई स्थिर आखें नजर आयी। अयं ! अब ये क्या। तुरंत अदांजा लग गया कि ये पालतू जानवर हैं। डर काहे का। बाघ से बचकर शेर जैसी हिम्मत आ गयी हममें। सीताराम कहता है कि ‘पालतू जानवर दिख गये इसका मतलब है कि मोलिखर्क बिल्कुल पास ही है।’ और एक मोड़ ऊपर जाने के बाद सामने की लाइट ने मोलिखर्क होने का संदेश हमें दे ही दिया है। मोलिखर्क ठीक 8 बजे रात पहुंचे है। प्रेम सिंह को आये 1 घंटा हो गया है। प्रेम सिंह का कहना है कि वो लोग धीरे-धीरे आये हैं। हम ही लोगों ने देर कर दी। बाघ की बात बताई तो कहने लगा वो हम रोज ही देखते हैं। डरने की कोई बात नहीं। आपके लिए कोई बात नहीं होगी, पर भाई, हमारी तो पूरी जीवन कहानी ही खत्म हो गयी थी। प्रेम सिंह के इस छानी से रेस्टहाउस बनी जगह में तीन पार्टीशन हैं। किनारे वाले में रुद्रनाथ से वापस आने वाले यात्री बेसुध सोये पड़े हैं। बीच वाले में हम हैं। उसके बगल के भाग मेें चूल्हे पास प्रेम सिंह के साथ आयी महिलायें खाना बना रही हैं। वे उसी के परिवार की हैं और कल उन्हें भी रुद्रनाथ जाना है। प्रेम सिंह बताते हैं कि मोलिखर्क में वे पुश्तैनी रूप में छानी बना कर हर साल 8 महीने रहते हैं। खर्क मुख्यतया पानी के निकट वाले वे क्षेत्र होते हैं जहां से जंगल में चरने के लिए छोड़े गये जानवरों की देखभाल की जाती है। मई से अक्टूबर तक रुद्रनाथ जाने-आने वाले यात्रियों के लिए इस छानी का उपयोग व्यावसायिक स्तर पर किया जाता है। यात्रा जारी है…

यात्रा के साथी और फोटो – सीता राम बहुगुणा और भूपेन्द्र नेगी

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