November 21, 2024



‘शिलातीर्थ’- गढ़वाल हिमालय पर यात्रा-लेखन की श्रेष्ठ पुस्तक

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डॉ. अरुण कुकसाल


घुमक्कड़ी विधा की अनुपम कृति ‘शिलातीर्थ’ में लेखक प्रो. चितरंजन दास मानते हैं कि आदमी में कर्मठता और सहजता का एक साथ होना सफल एवं सुखी जीवन है। और, हिमालय कर्मठता एवं सहजता को सिखाने का सर्वोत्तम प्रशिक्षक है। हिमालय का शैल रूप शिलातीर्थों में परिणत हो कर मानवीय जीवन-दायित्वों को आदर्श रूप में वहन करना सिखाते हैं। वास्तव में, बार-बार हिमालय की ओर आने की कामना के मूल में जीवन को सहजता से स्वीकार करने की दक्षता पाना है। प्रो. चितरंजन दास स्वीकारते हैं कि बद्रीनाथ और केदारनाथ मेरे लिए हिमालय के सर्वप्रथम आकर्षण नहीं हैं। हिमालय का सर्वप्रथम आकर्षण है स्वयं यह हिमालय।

धर्म कमा कर स्वयं का और अपने पितरों का उद्धार करने के लिए मैं पैदल नहीं चल रहा हूं- मेरा मार्ग इसे देखने का मार्ग है, इसे अनुभव करने का मार्ग है। अनुभव कर अपने अंदर शांत हो जाने का मार्ग है, यही मेरी मुक्ति है, मेरी विमुक्ति हैं। पाप मेरे जीवन का प्रमुख उत्प्रेरक नहीं है। हिमालय एक दरवाजा खोलने पर जो मुझे सैकड़ों दरवाजे खोलने के लिए प्रेरित करता है, उसे ही मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ उत्प्रेरक मान लिया है।’(पृष्ठ-62) मूल रूप में उड़िया भाषा में 60 के दशक में प्रो. चितरंजन दास की लिखी ‘शिलातीर्थ’ यात्रा-लेखन की श्रेष्ठ पुस्तकों में शामिल है। इसकी लोकप्रियता का अंदाज इसी से हो जाता है कि इस किताब को पढ़कर आज भी हजारों की तादाद में तीर्थयात्री, युवा और पर्यटक उत्तरखण्ड हिमालय की ओर आते हैं।


नवपल्लव प्रकाशन, भुवनेश्वर ने श्रीअरविन्द आश्रम, पॉण्डिचेरी के सहयोग से वर्ष-2017 में ‘शिलातीर्थ’ यात्रा-पुस्तक को हिन्दी में प्रकाशित किया। किताब का मूल्य ₹ 200 है। श्रीअरविन्द आश्रम पॉण्डिचेरी से जुड़ी डॉ. अर्चना मोदी ने इस किताब का उड़िया से हिन्दी में खूबसूरत और प्रभावी अनुवाद किया है। लगता ही नहीं कि यह अनुवादित किताब है। किताब के आवरण चित्रकार सरोज पाणिग्राही हैं। किताब की भूमिका प्रखर सर्वोदयी विचारक सदन मिश्राजी (विनोबा भावे, सरला बहन और राधा बहन के सहयोगी) ने लिखी है। सदन मिश्रा विचपुरी, आगरा कालेज में प्रो. चितरंजन दास के सन् 1958-61 तक शिष्य रहे। महत्वपूर्ण यह भी है कि सदन मिश्रा ‘शिलातीर्थ’ की घुमक्कड़ी में लेखक के साथ सह-यात्री भी थे। उस समय सदन मिश्रा जी की उम्र मात्र 18 वर्ष थी।


अध्येयता, घुमक्कड़ और उड़िया साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर प्रो. चिंत्तरंजन दास (1923-2011) ने शांतिनिकेतन (1945-50) और कोपेनहेगन विश्वविद्यालय, डेनमार्क (1950-53) से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। उसके बाद आगरा, फिनलैंड, पश्चिमी जर्मनी, इज्राइल में अध्यापन कार्य किया। महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर और श्रीअरविन्द के साथ काम करने का उन्हें अवसर मिला। वे इन तीनों की चिन्तनधाराओं की त्रिवेणी थे। देश-दुनिया में चित्त भाई नाम से उन्हें ख्याति मिली। प्रो. चितरंजन दास ने विभिन्न विषयों में 200 से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया। आगरा, काठगोदाम, नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी, गरुड़, ग्वालदम, देवाल से हाटकल्याणी गांव में पहुंचने के रोचक संस्मरणों से यह किताब प्रारम्भ होती है। चमोली (गढ़वाल) के बधाण क्षेत्र स्थित हाटकल्याणी सदन मिश्राजी का गांव है।

हाटकल्याणी गांव से 22 मई, 1959 को चितरंजन दास, सदन मिश्रा, उनके पिता सहित चार पुरुष और एक महिला केदारनाथ – बद्रीनाथ की ओर चल पड़ते हैं। हिमालय की भव्यता, विकटकता, जनजीवन और लोक-विश्वासों से नया-नया परिचित लेखक अपनी सह-यात्री महिला की वेशभूषा से अचंभित है- तीर्थयात्रा पर जा रही थी, इसलिए बहुत प्रेम से गहनों और आभूषणों के द्वारा अपने पूरे शरीर को सुसज्जित कर तैयार हुई थीं। पैरों में चांदी की पायल, हाथों में तीन-तीन सोने-चांदी के कंगन। नाक में बड़ी सी सोने की नथ। पूरा तीर्थ मार्ग पैदल चल कर देव-दर्शन करने वे हमारे साथ साहस कर निकल पड़ी थी। केवल पहाड़ी औरतों में ही इतना साहस संभव होता है।’ (पृष्ठ-36)


लेखक के लिए यह यात्रा मात्र तीर्थयात्रा का लबादा ओढ़े नहीं है। वे मानते हैं कि यह देवभूमि ही नहीं मनुष्यों की भूमि पहले है। स्थानीय लोगों को नजरअंदाज करके केवल मंदिर दर्शन से पुण्य नहीं मिलेगा। अतः एक तीर्थयात्री, पर्यटक और घुमक्कड़ को स्थानीय समाज को जानने और समझने की दृष्टि भी साथ लिए चलनी चाहिए। इसीलिए, चित्त भाई तब के पर्वतीय समाज के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और अन्य पहुलुओं पर प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा को भी साथ लिए है। यूरोप और देश के अन्य हिमालयी क्षेत्रों की अपनी पूर्व की यात्राओं का तुलनात्मक विश्लेषण भी वे पाठकों तक पहुंचाते हैं।देश के विभिन्न प्रांतों, समाजों, बोली, भाषा, रीति-रिवाज वाले तीर्थयात्रियों के आचार-व्यवहार और स्थानीय समाज से उनके रोचक संवादों को यह किताब लिए हुए है।

चारों ओर कोलाहल मचा हुआ था, जैसे कि मेला लगा हो। प्रत्येक दुकान में यात्रियों की भीड़। सब जगह चूल्हे जल रहे थे। कहीं राजस्थानी गृहणी चमकते हुए अंगारों पर रोटी सेंक रही थी और कहीं महाराष्ट्रियन मां घी की कढ़ाई में पूरी तल रही थी। बंगाली, मराठी, गुजराती और हिन्दुस्तान के अनेक स्थानों की बोलियां अनेक जगह सुनने को मिलीं। सभी यात्रियों को रहने के लिए घर नहीं मिल पाया था, इसलिए रास्ते पर खुले आकाश के नीचे कितने ही लोग कब से बेसुध होकर सो गये थे, जिससे वे सवेरे मुंह-अंधेरे जल्दी पैदल निकल सकें।’ (पृष्ठ-59) इस किताब में पचास-साठ के दशक का गढ़वाल-कुमाऊं साकार हुआ है। ये वो दौर था जब पैदल यात्रायें अपना अस्तित्व खोने की कगार पर थी। यद्यपि, लेखक चित्त भाई के यात्री-दल ने केदार-बद्री की यह यात्रा 17 दिनों में 254 मील पैदल और मात्र 11 मील बस से तय की थी।




हाटकल्याणी, नारायणबगड़, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनि, काकडागाड़, गुप्तकाशी, रामपुर चट्टी, गौरीकुण्ड, रामबाड़ा, केदारनाथ, ऊखीमठ, कालीमठ, तुंगनाथ, चमोली, पीपलकोटी, जोशीमठ, पाण्डुकेश्वर और बद्रीनाथ यात्रा के पडाव थे। लेखक चित्त भाई आशंका व्यक्त करते हैं कि नये मोटर मार्गों को पुराने पैदल मार्गों से दूर और उनके दिशा परिवर्तन से अनेक तीर्थस्थल भविष्य की तीर्थ मार्ग से अलग-थलग हो जायेंगे। नतीजन, उनका तीर्थयात्रा की दृष्टि से महत्व गौंण हो जायेगा। अतः जहां तक संभव हो प्रचलित पैदल मार्गो को ही नया मोटर मार्ग बनाया जाना चाहिए। ताकि, वे उपेक्षित न हो और उनका महत्व आने वाले समय में भी कायम रहे। निश्चित रूप में इस तथ्य को तब समझा जाना चाहिए था। पैदल मार्गों में स्थित चट्टियों के भविष्य को लेकर वे लिखते हैं कि ‘इन चट्टियों में कोई जातिभेद नहीं मानता।

थका-मांदा, धूल से सना यात्री जब किसी दुकान के सम्मुख खड़ा होता है तो कोई उससे उसकी जाति के विषय में कोई प्रश्न नहीं करता। दुकानदार उठकर उसे अतिथि मानकर उसका स्वागत करता है। हो सकता है कि कुछ और सालों में मोटर मार्ग आगे बढ़ता जाये। तीर्थमार्ग की ये चट्टियां अपने आप समाप्त हो जायें। पेट भरने के लिए अन्य व्यवसाय की खोज में हो सकता है, दुकानदार अन्यत्र चले जायें। इन चट्टियों के द्वारा उत्तराखण्ड के अधिवासियों की जिस सरलता, अच्छाई और भद्रता का परिचय हमें आज मिलता है, वह तब नहीं मिल पायेगा।’ (पृष्ठ-176) वास्तव में, गढ़वाल में तीर्थयात्रा के दृष्टिगत वह एक संक्रमणकाल का दौर था। नई मोटर सड़कों से नये यात्रा मार्ग दिखने लगे थे। मोटर गाड़ियों के आने से तीर्थयात्रा का स्वरूप ही बदलने लगा था। पुराने यात्रा पड़ाव अब नये यात्रा मार्ग से दूर होते जा रहे थे। बदलाव की इस प्रक्रिया में तमाम अव्यवस्थायें यथा- मोटर गाड़ियों के लिए आपाधापी, पण्डों एवं मोटर मालिकों की मनमानी और धौंस सर्वत्र थी।

तीर्थयात्री एक से निपटे तो दूसरा परेशान करने के लिए हाज़िर। पंडो की नज़र से बचने के लिए चित्त भाई कहते ‘मैं तो गढ़वाल के बधाण क्षेत्र का हूं’। चित्त भाई ने गढ़वाल हिमालय के तीर्थस्थलों के बारे में देश के विभिन्न समाजों में प्रचलित कहानियों और किवदन्तियों का उल्लेख इस किताब में किया है। जो कि, गढ़वाल में प्रचलित कथाओं से काफी भिन्न हैं। जगह-जगह पर साधु-संतों के प्रवचन, उनसे वार्तालाप, विविध इलाकों की वनस्पतियों, प्रचलित अन्धविश्वासों पर हुए तर्क-विर्तक हैं। लेखक गुप्तकाशी से आगे चलकर नारायणकोटी में आकर आश्चर्यचकित है। विद्वान विशालमणि शर्मा की हिमालय और उसके तीर्थस्थलों रचित साहित्य, उनके छापाखाना और पुस्तक की दुकान को देखकर। चित्त भाई बताते हैं कि हिमालय के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा उत्तराखण्ड में ही सर्वाधिक देवी देवताओं के तीर्थ विराजमान है।

संपूर्ण हिमालय में उत्तराखण्ड की महत्वा और आर्कषण इसलिए भी ज्यादा है। मई माह में 63 साल पहले की इस यात्रा के पड़ाव, चट्टियां, दुकान, मन्दिर, धर्मशालाएं, रास्ते, बर्फीले रास्तों पर मीलों पैदल चलकर थकान से चूर होने पर भी रहने, राशन और बरतन का इंतजाम करना, भीगते मौसम में गीली लकड़ियों से खुद खाना बनाना उस समय की तीर्थयात्रा से रोमांचक मुलाकात करने जैसा ही है। घनघोर और वीरान जंगल में जब जेब की एक मात्र दौलत सभी भुने चने कीचड़ में गिर गये, तो भूख-प्यास से बेहाल चित्त भाई की मनोदशा उस समय की तीर्थ यात्रा के दुर्गम कष्टों का एक सामान्य उदाहरण है। ऐसे जैसे कि किसी सयाने आदमी के कठिन बचपन को देख लिया हो।

प्रो. चितरंजन उस दौर में यात्रा के बाद 2 माह से अधिक अवधि तक सदन मिश्रा के परिवार के सदस्य बनकर हाटकल्याणी गांव में रहे। घर के काम-काजों में हाथ बंटाते हुए, उन्होने पहाड़ी खेती, पशुपालन, वन-उपज, जनजीवन के तौर-तरीके, रीति-रिवाज, खान-पान, जातीय-विभेद, व्यवसाय, शिक्षा, खेल और उत्सवों को जाना और सीखा। हाटकल्याणी गांव में रहते हुए प्रो. चितरंजन दास गढ़वाल के मानवीय और प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर उपयोग के सुझावों के साथ गढ़वाली लोक गीतों और लोक कथाओं का भी संकलन और अध्ययन करते हैं। उडिया भाषा और गढ़वाली भाषा के समानार्थी अनेक शब्दों को एक तालिका के रूप में प्रस्तुत कर वे बताते हैं, उड़िया भाषा के कई शब्द गढ़वाल के जनजीवन में आये हैं। कैल नदी, पिण्डर नदी, देवाल, वाण, वेदनी बुग्याल के नजदीकी गांवों में वे जहां जाते वहां के लोगों के दुःख-सुख में शरीक हो जाते।

देवाल के उच्च-प्राथमिक विद्यालय में परीक्षा के दौरान शिक्षा विभाग के डिप्टी साहब के रुतबे और उनके दौरे से शिक्षकों में व्याप्त भय को लक्ष्य करते हुए प्रो. चितरंजन दास लिखते हैं कि- ‘हमारे देश में शिक्षकों से बच्चे पढ़ाई के समय निर्भीक होने का उपदेश अनेक बार सुनते हैं। निडर होने का उपदेश पुस्तक में पढ़ते भी हैं और परीक्षा में कितनी बातें लिखते भी हैं। परंतु शिक्षकों को दूर से आ रहे सरकारी अधिकारी और बाबू से डरते हुए देख वह बच्चा अपने मन के धरातल पर धीरे-धीरे दो भागों में विभक्त्त हो जाता है। परीक्षा उपयोगी ज्ञान और अपने जीवन में उपयोग करने लायक ज्ञान के बीच वह सावधानी से सीमा-रेखा खींच देता है। दोनों पक्षों के ज्ञान के बीच कोई आवागमन संभव नहीं हो पाता।

संसार के बीच आकर जो जितना सतर्क होना सीख जाता है, वह उतना ही डरने के तरीकों को हासिल कर लेता है।’(पृष्ठ-33)यह महत्वपूर्ण है कि पूर्व में गढ़वाल हिमालय पर यात्रा-साहित्य ज्यादा नहीं लिखा गया है। और, जितना लिखा भी गया वह प्रभावी रूप में प्रचारित नहीं हो पाया है। प्रो. चितरंजन उल्लेख करते हैं कि, शांतिनिकेतन से जुड़ी विद्वान रानी चंद ने अपनी केदारनाथ, तुंगनाथ और बद्रीनाथ तीर्थयात्रा पर पचास के दशक में बंग्लाभाषा में ‘हिमाद्री’ यात्रा-पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक की लोकप्रियता और उपादेयता को मानते हुए कोलकत्ता विष्वविद्यालय ने ‘हिमाद्री’ यात्रा-पुस्तक को ‘भुवनमोहिनी स्वर्णपदक’ प्रदान किया था। कहना होगा कि ‘शिलातीर्थ’ आज से 63 साल पहले के गढ़वाल हिमालय पर लिखी यात्रा-पुस्तक के साथ एक अध्येयता और घुमक्कड़ के जीवन के बहुआयामों को भी उद्घाटित करती है। यह पुस्तक एक सच्चे घुमक्कड़ को वो ज्ञान और हुनर प्रदान करती है जो उसे घर वापस लौटते हुए पहले से अधिक विवेकशील और जिम्मेदार बनाता है।तभी तो, प्रो. चितरंजन दास लिखते हैं कि ‘पहाड़ों पर मेहमान बनकर गया था।

गढ़वाल को छोड़ विचपुरी (आगरा) लौटते समय ऐसा लग रहा है जैसे अपना घर छोड़ कर आया हूं। हृदय को जहां कहीं स्थान मिलता है वहां ठीक ऐसा ही होता है। इसी रीति से मनुष्य अपने जीवन में स्वयं को प्रसारित करता है। डेनमार्क से आरंभ कर हाटकल्याणी तक हर जगह मुझे पुत्र होने का अधिकार प्राप्त हुआ, अनेक प्रकार की ममता की डोरों से, विभिन्न लगामों से बंध कर मैं इस जीवन को नश्वरता में एक अमरत्व का भाव भर सका हूं। इसलिए, प्रत्येक जगह को छोड़ कर जाते समय अपने किसी को छोड कर जाने जैसा दुःख मुझे मिला है, परन्तु यह दुःख ही मेरे जीवन की परम संपदा और परम गौरव होकर रहेगा।’ (पृृष्ठ-238) मित्र प्रो. चरणसिंह केदाखण्डीजी को बहुमूल्य ‘शीलातीर्थ’ पुस्तक भेंट स्वरूप देने के लिए आत्मीय धन्यवाद और असीम शुभाशीष।

‘शिलातीर्थ’ यात्रा-पुस्तक प्राप्त करने लिए आपनवपल्लव प्रकाशन, भुवनेश्वर मोबाइल नंबर- 8903987822 अथवा 9437446353 से संपर्क करने का कष्ट करें।