डाॅ. भक्तदर्शन – एक सच्चे जननेता
चारु तिवारी
डाॅ. भक्तदर्शन जी की पुण्यतिथि (30 अप्रैल, 1991) पर विशेष ऐसे केन्द्रीय मंत्री जो जीवनपर्यन्त किराये के मकान में रहे।हम जब छोटे थे, तब एक नाम सुनते थे- डाॅ भक्तदर्शन। तब हमें यह पहाड़ी नाम नहीं लगता था। पिताजी बहुत टुकड़ों में कई विभूतियों के बारे में बताते। उन्होंने बताया भी होगा कि वे कौन हैं, लेकिन तब सिर्फ नाम ही याद रहा। वह भी इसलिए कि उन दिनों किसी विश्वविद्यालय के कुलपति हमारे लिए आज के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्रियों से कई ज्यादा सम्मानित होता था। एक तरह से ये लोग युग निर्माताओं की भूमिका में होते थे। उनके पास समाज को देखने की दृष्टि होती थी। भक्तदर्शन जी तब कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति थे।
यह 1977 की बात है। बस इतना ही याद था उनके बारे में। जब कुछ पढ़ने-लिखने लगे तो फिर नये सिरे से लोगों को जानने-समझने का सिलसिला शुरू हुआ। हम उन्हें कई रूपों में जानते हैं। एक प्रखर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, ईमानदार राजनेता, विद्वान शिक्षाविद, जनपक्षधरता वाले जनप्रतिनिधि, प्रतिबद्ध लेखक, सामाजिक विचारक और इससे भी बढ़कर गांधीवादी विचार को मानने वाला ऐसा व्यक्तित्व जिसके पास बेहतर समाज बनाने का सपना था। कितने आयाम हैं उनके। भक्तदर्शन होना आसान नहीं। हमें सामाजिक, राजनीतिक और शिक्षा के प्रति चेतन करने वाले डाॅ भक्तदर्शन जी की आज पुण्यतिथि है। हम सब उन्हें कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं। उन्हें शत-शत नमन।
डाॅ भक्तदर्शन ने पहाड़ से निकलकर अपनी आभा से जिस तरह पूरे देश को प्रभावित किया उसके बीज बचपन में ही उनमें पड़ गये थे। उनका जन्म 12 फरवरी 1912 को पौड़ी गढ़वाल के गांव भौराड़, पट्टी सांवली में हुआ। उनके पिता का नाम गोपाल सिंह रावत था। पिता ने उनका नाम रखा- राजदर्शन। बताते हैं कि उनका यह नाम सम्राट जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण वर्ष में पैदा होने के कारण रखा। उनकी राजनीतिक चेतना का विकास बहुत छोटी उम्र में हो गया। यही वजह थी कि उन्हें अपने इस नाम से गुलामी का आभास होता। उन्होंने सबसे पहले इससे निजात पाने लिए अपना नाम बदला- भक्तदर्शन। यही वह पड़ाव था जो आगे चलकर उन्हें हमेशा मूल्यों के साथ खड़े होने का साहस देता रहा। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी की। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिये देहरादून चले गये। यहां डी.ए.वी. कॉलेज से इंटरमीडिएट किया।
उनके जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित विश्व भारती, शांति निकेतन रहा। यहां से उन्होंने कला वर्ग से स्नातक किया। शांति निकेतन ने उनकी प्रतिभा को नया रूप दिया। इसके बाद वे इलाहाबाद चले गये। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1937 में राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर परीक्षा पास की। उन दिनों इलाहाबाद आजादी के आंदोलन का मुख्य केन्द्र था। यहां देशभर के आंदोलनकारी इकट्ठा होते थे। जब वे विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे, उनका संपर्क गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, पं हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि से हुआ। इलाहाबाद से वे राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय होने लगे। पहली बार वे 1929 में लाहौर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुये। पहली बार 1930 में नमक आंदोलन के दौरान जेल यात्रा की। इसके बाद तो आंदोलन और जेल जाने का सिलसिला जारी रहा। वे 1941, 1942 व 1944, 1947 तक कई बार जेल गये।
उन्होंने सामाजिक जीवन में मनसा-वाचा-कर्मणा कोई अंतर नहीं रखा, इसका सबसे बड़ा उदाहरण उनकी शादी है। उनका विवाह 18 फरवरी 1931 को सावित्री जी से हुआ। उनकी शादी में सभी बारातियों ने खादी वस्त्र पहने। कई परंपराओं को दरकिनार करते हुये उन्होंने समाज को नई दिशा देने का काम किया। उन्होंने शादी में न मुकुट धारण किया और न शादी में किसी प्रकार का दहेज स्वीकार किया। शादी के अगले दिन ही वे आजादी के आंदोलन के लिये विभिन्न जगहों पर हो रहे प्रतिकार में शामिल होने के लीये चले गये। पौड़ी के वर्तमान पोखडा विकास खंड के अंतर्गत संगलाकोटी में आंदोलनकारियों के बीच ओजस्वी भाषण देने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने के लिये उन्होंने एक पत्रकार और संपादक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत ‘गढ़देश’ के सम्पादकीय विभाग में काम करते हुये कई विचारोत्तेजक लेख लिखे। बाद में गढ़वाल के लैंसडाउन से आजादी की अलख जगाने का मुखपत्र माने जाने वाले ‘कर्मभूमि’ का 1939 से 1949 तक दस वर्ष तक संपादन किया। प्रयाग से प्रकाशित ‘दैनिक भारत’ में काम करते हुये उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अलग पहचान मिली। वे एक प्रतिबद्ध पत्रकार और सुलझे हुये लेखक थे। उनके लेखन में गंभीरता और आम लोगों तक अपनी बात सरलता के साथ पहुंचाने की शैली थी। पाठकों को उनके लेखन और संपादन ने बहुत प्रभावित किया।
एक लेखक के रूप में भक्तदर्शन जी ने बहुत महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं और कई पुस्तकों का अनुवाद किया। उनके संपादन में प्रकाशित ‘सुमन स्मृति ग्रंथ’ अमर शहीद श्रीदेव सुमन के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए बहुत उपयोगी है। दो खंडों में प्रकाशित ‘गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां’ गढ़वाल की अपने समय की विभूतियों को जानने का अद्भुत ग्रंथ है। ‘कलाविद मुकुन्दीलाल बैरिस्टर’, ‘अमर सिंह रावत एवं उनके आविष्कार’ और ‘स्वामी रामतीर्थ’ पर उन्होंने लिखा। उनके साहित्यिक अवदान को देखते हुये उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली। अपनी पत्रकारिता और लेखन के साथ ही वे तमाम सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर हस्तक्षेप करने लगे। इसी दौरान वे 1945 में गढ़वाल में कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक निधि तथा आजाद हिन्द फौज के सैनिकों हेतु निर्मित कोष के संयोजक रहे। उनके प्रयासों से आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह पेंशन व अन्य सुविधायें मिलीं।
देश में हुये पहले लोकसभा चुनाव, 1952 में उन्होंने पहली बार गढ़वाल का प्रतिनिधित्व किया। उनकी लोकप्रियता को इस बात से समझा जा सकता है कि वे लगातार चार बार इस सीट से सांसद रहे। सन् 1963 से 1971 तक वे जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री व इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडलों में सदस्य रहे। अपने मंत्रिमंडल काल में उन्होंने बहुत ऐतिहासिक काम किये। शिक्षा के क्षेत्र में उनके काम को हमेशा याद रखा जायेगा। केन्द्रीय शिक्षामंत्री के रूप में उन्होंने केन्द्रीय विद्यालयों की स्थापना करवायी। केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पहले अध्यक्ष रहे। त्रिभाषी फार्मूला को महत्व देकर उन्होंने संगठन को प्रभावशाली बनाया। उनका हिन्दी के विकास के लिये केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापना की। वे हिन्दी के अनन्य सेवी थे। दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उनका अद्वितीय योगदान रहा। वे संसद में हमेशा हिन्दी में बोलते थे। प्रश्नों का उत्तर भी हिन्दी में ही देते थे। एक बार नेहरू जी ने उन्हें टोका तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक कह दिया, ‘मैं आपके आदेश का जरूर पालन करता, परन्तु मुझे हिन्दी में बोलना उतना ही अच्छा लगता है जितना अन्य विद्वानों को अंग्रेजी में।
‘डाॅ भक्तदर्शन के समाज के प्रति समर्पण को इस बात से समझा जा सकता है कि जब वे राजनीति के अपने सबसे सफल दौर में थे, उन्हें देश के योग्य नेताओं में गिना जाता था। उनके पास राजनीति के लिये बहुत समय था। इंदिरा गांधी के लाख मना करने पर भी मात्र 59 वर्ष की उम्र में 1971 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। उनके लिये राजनीति जनता की सेवा का साधन था, उसे उन्होंने कभी अपने साध्य के लिये प्रयोग नहीं होने दिया। वे मूल्यों पर आधारित राजनीति पर विश्वास करते थे। उन्होंने यह कहकर राजनीति से संन्यास लिया कि नये लोगों को आने का मौका मिलना चाहिए। इस तरह की उच्च नैतिकता राजनीति में दुर्लभ है। जहां आज राजनीति में किसी भी स्तर पर जाकर सत्ता पाने की दुष्प्रवृत्तियां हावी हैं, ऐसे में भक्तदर्शन हमें एक विराट व्यक्तित्व के रूप में इससे बहुत ऊपर उठकर राजनीतिक शुचिता के आदर्श रूप हैं। जिस सादगी, समर्पण, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से उन्होंने राजनीति की वह आज भी प्रेरणादायक है। भक्तदर्शन बहुत लोकप्रिय जनप्रतिनिधि थे। उन्होने कभी भी अपने पद को अपने कामों पर हावी नहीं होने दिया। बहुत सादगी और ईमानदारी से वे अपना काम करते रहे। वे एक कुशल एवं ओजस्वी वक्ता थे। उनकी ईमानदारी और सरलता को इस बात से समझा जा सकता है कि वे जीवनपर्यन्त किराये के मकान में रहे।
राजनीति से संन्यास लेने के बाद वे पूरी तरह शिक्षा और साहित्य के लिए समर्पित हो गये। भक्तदर्शन जी का एक दूसरा दौर शिक्षाविद का रहा। वे 1972 से 1977 तक कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति। कुलपति के रूप में उनके काम को लोग आज भी याद करते हैं। हिन्दी के लिये उन्होंने बहुत काम किया। जब वे 1988-90 तक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे तो दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार के लिए वहां के हिन्दी के विद्वानों को उन्होंने सम्मानित करवाया। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लेखकों की पुस्तकों का अनुवाद करवाया और उनके प्रकाशन में सहायता की। समाज को समर्पित मनीषि का उन्यासी वर्ष की उम्र में 30 अप्रैल 1991 को देहरादून में निधन हो गया। प्रखर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, ईमानदार राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद, पत्रकार भक्तदर्शन जी की प्रेरणा हमेशा हमारा मार्गदर्शन करेगी। ऐसे महामनीषी को हमारा शत-शत नमन। (हमने भक्तदर्शन जी को याद करते हुये ‘क्रियेटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़’ की ओर से उन पर पोस्टर प्रकाशित किया था।)
चारु तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं साभार सहित