दुनिया को भाते हैं उत्तराखंड के पारंपरिक लोकनृत्य
संजय चौहान
आज विश्व नृत्य दिवस है। हर साल 29 अप्रैल को पूरे विश्व के लोग अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस या विश्व नृत्य दिवस के रूप में मनाते है। इसकी शुरुआत 29 अप्रैल 1982 से हुई। यूनेस्को के अंतरराष्ट्रीय थिएटर इंस्टिट्यूट की अंतरराष्ट्रीय डांस कमेटी ने 29 अप्रैल को नृत्य दिवस के रूप में स्थापित किया। एक महान रिफॉर्मर जीन जार्ज नावेरे के जन्म की स्मृति में यह दिन अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। कोरोना वाइरस के वैश्विक संकट की इस घड़ी में लीजिए आपको रूबरू करवाते हैं उत्तराखंड के लोकनृत्यों से.
उत्तराखंड में लोकनृत्य – उत्तराखंड की संस्कृति जितनी समृद्ध है, उतने ही मन को मोहने वाले यहां के लोकगीत-नृत्य भी हैं। यहां लोक की विरासत समुद्र की भांति है, जो अपने आप में विभिन्न रंग और रत्न समेटे हुए है। हालांकि, वक्त की चकाचौंध में अधिकांश लोकनृत्य कालातीत हो गए, बावजूद इसके उपलब्ध नृत्यों का अद्भुत सम्मोहन है। लोकजीवन की अनुभूति है समेटते नृत्य !उत्तराखंडी लोकजीवन अलग ही सुर-ताल लिए हुए है, जिसकी छाप यहां के लोकगीत-नृत्यों में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उत्तराखंडी लोकगीत-नृत्य महज मनोरंजन का ही जरिया नहीं हैं, बल्कि वह लोकजीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों से सीख लेने की प्रेरणा भी देते हैं। हालांकि, समय के साथ बहुत से लोकगीत-नृत्य विलुप्त हो गए, लेकिन बचे हुए लोकगीत-नृत्यों की भी अपनी विशिष्ट पहचान है। उत्तराखंड में लगभग दर्जनभर लोक विधाएं आज भी अस्तित्व में हैं, जिनमें चैती गीत यानी चौंफला, चांचड़ी और झुमैलो जैसे समूह में किए जाने वाले गीत-नृत्य आते हैं। इन तीनों ही गीतों में महिला-पुरुष की टोली एक ही घेरे में नृत्य करती है। हालांकि, तीनों की नृत्य शैली भिन्न है, लेकिन तीनों में ही शृंगार एवं भाव की प्रधानता होती है।
मानवीय अभिव्यक्ति का रसमय प्रदर्शन – नृत्य एक ऐसी सार्वभौम कला है, जो मानव जीवन के साथ ही अस्तित्व में आ गई थी। नृत्य मानवीय अभिव्यक्ति का रसमय प्रदर्शन है, जिसमें करण, अहंकार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों का समावेश देखने को मिलता है। पाषाण जैसे कठोर एवं दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति को भी मोम सदृश पिघलाने की क्षमता इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। नृत्य मनोरंजक तो है ही, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का साधन भी है। अगर ऐसा न होता तो कला की यह धारा पुराणों व श्रुतियों से होते हुई धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। यह कला देव, दानव, मनुष्य एवं पशु-पक्षियों को समान रूप से प्रिय है। इसीलिए भगवान शंकर को नटराज कहा गया। उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार का प्रतीक माना जाता है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण श्रीकृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे नटवर कहलाए। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता साबित होती है।
लोक नृत्य – लोक नृत्य एक प्रकार का अभिनीत गीत है, जो सबके मन को मोह लेता है। इसमें हाव-भाव आदि के साथ जो शारीरिक गति दी जाती है, उसे ही नृत्य कहा गया है। जिसने इसे स्वीकारा और साधना से इसे सिद्ध किया, समझ लीजिए उसने जीवन का अमोध आनंद प्राप्त कर लिया। चौसठ कलाओं में प्रमुख!यूं तो भारतीय शास्त्र में चौसठ कलाओं का जिक्र हुआ है, लेकिन नृत्य इनमें प्रमुख है। हालांकि ‘शिव तत्व रत्नाकर में उल्लिखित चौसठ कलाओं में नृत्य को यथोचित स्थान नहीं मिल पाया। श्रीमद् भागवत के प्रसिद्ध टीकाकार श्रीधर स्वामी ने भागवत के दशम स्कंध में जिन कलाओं का उल्लेख किया है, उनमें नृत्य प्रमुख है।
पुराकाल से ही जीवन का हिस्सा – भारत में पुराकाल से ही नृत्य की बड़ी मान्यता रही है। तब नृत्य की शिक्षा राजकुमारों तक के लिए अनिवार्य समझी जाती थी। पांडवों के अज्ञातवास काल में राजा विराट की पुत्री उत्तरा को अर्जुन का वृहन्नला रूप में नृत्य की शिक्षा देने का प्रसंग महाभारत में प्रसिद्ध है। दक्षिण भारत में यह कला अब भी मौजूद है।जीवन एवं प्रकृति से गहरा संबंध!लोक नृत्य को आम देहाती स्त्री-पुरुष लोकवाद्यों को सहारा लेकर करते हैं। यह वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है, जो हर क्षेत्र के लोक जीवन में परिलक्षित होता है। सभ्य से सभ्य कही जाने वाली जातियों में भी लोकमानस का अंश मौजूद रहता है। साधारण लोक नृत्य सामूहिक होते हैं। हालांकि, जीवन एवं प्रकृति से गहरे तक जुड़े होने के कारण लोकनृत्य का रूप वर्ग विशेष में अपने व्यवसाय के अनुकूल हो जाता है।
लोकनृत्य की विशेषताएं – ये नृत्य 19वीं सदी या उससे भी पहले के हैं, जिनका कोई पेटेंट नहीं है। इन नृत्यों का ढंग पारंपरिक होता है। यह किसी व्यक्ति विशेष ने नवाचार से सृजित नहीं किए। इनमें नर्तक आम आदमी होता है, न कि समाज का कुलीन वर्ग। इन्हें नियंत्रित करने वाली कोई एक संस्था नहीं होती।
उत्तराखंड के प्रमुख लोकनृत्य – चौंफला! चांचड़ी और झुमैलो आदिकाल से ही शरदकालीन त्योहारों का हिस्सा रहे हैं, लेकिन अब वासंती उल्लास का गीत चौंफला भी इनमें शामिल हो गया है। चौंफला का शाब्दिक अर्थ है, चारों ओर खिले हुए फूल। जिस नृत्य में फूल के घेरे की भांति वृत्त बनाकर नृत्य किया जाता है, उसे चौंफला कहते हैं। मान्यता है कि देवी पार्वती सखियों के साथ हिमालय के पुष्पाच्छादित मैदानों में नृत्य किया करती थीं। इसी से चौंफला की उत्पत्ति हुई। इस नृत्य में स्त्री-पुरुष वृत्ताकार में कदम मिला, एक-दूसरे के विपरीत खड़े होकर नृत्य करते है। जबकि, दर्शक तालियों से संगीत में संगत करते हैं।
थडिय़ा – थाड़िया शब्द का अर्थ होता है आंगन यानी घर के आंगन में आयोजित होने वाले संगीत और नृत्य के उत्सव को थडिय़ा कहते हैं। इसका आयोजन वसंत पंचमी के दौरान किया जाता है। इस समय रातें लंबी होती हैं, लिहाजा मनोरंजन के लिए गांव के लोग मिलकर थडिय़ा का आयोजन करते हैं। जिन बेटियों का विवाह हो चुका है, उन्हें भी गांव में आमंत्रित किया जाता है। सुंदर गीतों और तालों के साथ सभी लोग कदम से कदम मिलाकर नृत्य का आनंद लेते है। इन गीतों की विशिष्ट गायन एवं नृत्य शैली को भी थडिय़ा कहा जाता है।
तांदी – उत्तरकाशी और टिहरी जिले के जौनपुर क्षेत्र में तांदी नृत्य खुशी के मौकों और माघ के पूरे महीने में पेश किया जाता है। इसमें सभी लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर शृंखलाबद्ध हो नृत्य करते है। इस नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत सामाजिक घटनाओं पर आधारित होते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से रचा जाता है। विशेषकर इनमें तात्कालिक घटनाओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के कार्यों का उल्लेख होता है।
झुमैलो – झुमैलो सामूहिक नृत्य है, जो बिना वाद्ययंत्रों के दीपावली और कार्तिक के महीने में पूरी रात किया जाता है। गीत की पंक्तियों के अंत में झुमैलो की आवृत्ति और नृत्य में झूमने की भावना या गति का समावेश होने के कारण इसे झुमैलो कहा गया है। एक तरह से यह नारी हृदय की वेदना और उसके प्रेम की अभिव्यक्ति है। इसमें नारी अपनी पीड़ा को भूल सकारात्मक सोच के साथ गीत एवं संगीत की सुर लहरियों पर नृत्य करती है।
छोलिया – छोलिया उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। इसमें पौराणिक युद्ध और सैनिकों का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। असल में छोलिया नृत्य युद्ध में विजय के पश्चात होने वाले उत्सव का दृश्य प्रस्तुत करता है। सभी नर्तक पौराणिक सैनिकों का वेशभूषा धारण कर तलवार और ढाल के साथ युद्ध का अभिनय करते है। विभिन्न लोक वाद्यों ढोल-दमाऊ, रणसिंगा, तुरही और मशकबीन के सुरमयी तालमेल से यह नृत्य जन-जन में उत्साह का संचार कर देता है।
सरौं व पौंणा – गढ़वाल में सरौं, छोलिया और पौंणा नृत्य प्रसिद्ध हैं। तीनों की शैलियां अलग-अलग हैं, लेकिन वीर रस एवं शौर्य प्रधान सामाग्री का प्रयोग तीनों में ही किया जाता है। सरौं नृत्य में ढोल वादक मुख्य किरदार होते हैं, जबकि छोलिया और पौंणा नृत्य को वादक एवं नर्तक के साझा करतब पूर्णता प्रदान करते हैं। इन नृत्यों में सतरंगी पोशाक, ढोल-दमाऊ, नगाड़ा, भंकोरा, कैंसाल, रणसिंगा और ढाल-तलवार अनिवार्य हैं।
झोड़ा – इसे हिंदी के ‘जोड़ा शब्द से लिया गया है। यह शादी-ब्याह और कौथिग (मेला) में हाथों को जोड़कर या जोड़े बनाकर किया जाने वाला सामूहिक नृत्य है। जिसके मुख्य रूप से दो रूप प्रचलन में हैं, एक मुक्तक झोड़ा और दूसरा प्रबंधात्मक झोड़ा। प्रबंधात्मक झोड़ा में देवी-देवताओं और एतिहासिक वीर भड़ों का चरित्र गान होता है। इसमें स्त्री-पुरुष गोल घेरा बनाकर एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रख पग आगे-पीछे करते हुए नृत्य करते हैं। घेरे के बीच में मुख्य गायक हुड़का वादन करते हुए गीत की पहली पंक्ति गाता है, जबकि अन्य लोग उसे लय में दोहराते हैं। कुमाऊं के बागेश्वर क्षेत्र में माघ की चांदनी रात में किया जाने वाला यह नृत्य स्त्री-पुरुष का शृंगारिक नृत्य माना गया है।
चांचरी (चांचड़ी) – यह संस्कृत से लिया गया शब्द है, जिसका अर्थ है नृत्य ताल समर्पित गीत। मूलत: यह कुमाऊं के दानपुर क्षेत्र की नृत्य शैली है, जिसे झोड़े का प्राचीन रूप माना गया है। इसमें भी स्त्री-पुरुष दोनों सम्मलित होते हैं। इसका मुख्य आकर्षण रंगीन वेशभूषा व विविधता है। इस नृत्य में धार्मिक भावना की प्रधानता रहती है।
हुड़का नृत्य – ढोल नृत्य की तरह प्राचीन इस नृत्य को भी कई नामों से जाना जाता है। मध्य युग में हुड़किये चारण कवि युद्ध भूमि में अपने स्वामी की प्रशंसा में इस नृत्य को किया करते थे। कुमाऊं में इस नृत्य को खास पसंद किया जाता हैछपेली!कुमाऊं के इस नृत्य को ‘छबीली भी कहा जाता है। इसे प्रेमी युगल का नृत्य माना गया है। यह विशुद्ध लोकनृत्य न होकर नृत्य गीत है। जिस गीत में स्त्रियों का प्रसंग वर्णित हो, वहां इसे छपेली कहा जाता है। प्रेम एवं शृंगार प्रधान इस नृत्य में कभी-कभी पुरुष ही स्त्री वेशभूषा में अभिनय करता है। पुरुष के हाथ में हुड़की होती है, जिसे बजाते हुए वह नृत्य करता है और गीत गाता है। बदले में महिला शर्माने की भाव-भंगिमा बनाकर अपनी अभिव्यक्ति देती है।
जागर और पंवाड़ा – जागर और पंवाड़ा लोकनृत्य देवी-देवताओं को नचवाने के लिए किए जाते हैं। देवी-देवताओं की कथाओं पर आधारित गायन और छंदबद्ध कथावाचन (गाथा) का प्रस्तुतीकरण इस विधा का रोचक पक्ष है। गायन-वादन के लिए विशेष रूप से गुरु-शिष्य परंपरा में प्रशिक्षित व्यक्ति ही आमंत्रित किए जाते हैं, जिनका आज भी यही मुख्य रोजगार है।
पंडावर्त – पांडवों से जुड़ी घटनाओं पर आधारित पंडावर्त शैली के लोकनृत्य वास्तव में नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। ये लोकनृत्य 20 लोक नाट्यों में 32 तालों और सौ अलग-अलग स्वरलिपि में आबद्ध होते हैं। पांडव नृत्य पांच से लेकर नौ दिन तक का हो सकता है, जिसमें कई पात्र होते हैं।मंडाण!उत्तराखंड के प्राचीन लोकनृत्यों में मंडाण सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। शादी-ब्याह अथवा धार्मिक अनुष्ठानों के मौके पर गांव के खुले मैदान (खलिहान) या चौक के बीच में अग्नि प्रज्ज्वलित कर मंडाण नृत्य होता है। इस दौरान ढोल-दमौ, रणसिंगा, भंकोर आदि पारंपरिक वाद्यों की धुनों पर देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। इसमें ज्यादातर गीत महाभारत कालीन प्रसंगों पर आधारित होते हैं। इसके अलावा लोक गाथाओं पर आधारित गीत भी गाए जाते है। देखा जाए तो यह पंडौं नृत्य का ही एक रूप है।
हंत्या (अशांत आत्मा नृत्य) – दिवंगत आत्मा की शांति के लिए अत्यंत कारुणिक गीत रांसो का गायन होता है और डमरू व थाली (डौंर-थाली) के सुरों पर नृत्य किया जाता है। ऐसे छह नृत्य हैं, चर्याभूत नृत्य, हंत्या भूत नृत्य, व्यराल नृत्य, सैद नृत्य, घात नृत्य और दल्या भूत नृत्य।
रणभूत नृत्य – गढ़वाल क्षेत्र में किया जाने वाला यह नृत्य युद्ध में मारे गए वीर भड़ों को देवता के समान आदर देने के लिए किया जाता है, ताकि वीर की आत्मा को शांति मिले। इसे ‘देवता घिरना भी कहते हैं और यह दिवंगत वीर के वंशजों द्वारा करवाया जाता है। गढ़वाल व कुमाऊं का पंवाड़ा या भाड़ौं नृत्य भी इसी श्रेणी का नृत्य है।
भागनौली नृत्य – यह कुमाऊं अंचल का नृत्य है, जिसे मेलों में किया जाता है। इस नृत्य में हुड़का और नागदा जैसे वाद्ययंत्र प्रमुख होते हैं।लांग (लांगविर) नृत्य!यह गढ़वाल का उत्साहवद्र्धन करने वाला नृत्य है, जिसमें पुरुष को एक सीधे खंभे के शीर्ष पर पेट के सहारे संतुलन बनाकर नाचना होता है। नीचे लोक वादक ढोल-दमाऊ की सुरलहरियों से नृत्य को और भी दिलचस्प बना देते हैं। यह नृत्य टिहरी जिले में काफी प्रसिद्ध है।हारुल!महाभारत की गाथा पर आधारित यह जौनसार का प्रमुख लोकनृत्य है। जौनसार क्षेत्र में पांडवों का अज्ञातवास होने के कारण यहां उनके कई नृत्य प्रसिद्ध हैं। इस नृत्य में रामतुला (वाद्ययंत्र) बजाना अनिवार्य होता है।
बुडिय़ात – जौनसार बाबर में यह नृत्य शादी-ब्याह, जन्मोत्सव जैसे खुशी के मौकों पर किया जाता है।नाटी!यह देहरादून जिले की चकराता तहसील का पारंपरिक नृत्य है। जौनसार क्षेत्र के हिमाचल प्रदेश से जुड़े होने के कारण यहां की नृत्य शैली भी हिमाचल से काफी मिलती-जुलती है। महिला-पुरुष रंगीन कपड़े पहनकर इस नृत्य को करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस को मनाने का उद्देश्य – अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस को पूरे विश्व में मनाने का उद्देश्य जनसाधारण के बीच नृत्य की महत्ता का अलख जगाना था। साथ ही लोगों का ध्यान विश्वस्तर पर इस ओर आकर्षित करना था। जिससे लोगों में नृत्य के प्रति जागरुकता फैले। साथ ही सरकार द्वारा पूरे विश्व में नृत्य को शिक्षा की सभी प्रणालियों में एक उचित जगह उपलब्ध कराना था।
भारत में नृत्य कला – नृत्य कला की उत्पत्ति भारत में हुई मानी जाती है। मान्यता है कि भारत में नृत्य कला 2000 वर्ष पुरानी है। त्रेतायुग में देवताओं के आग्रह पर पहली बार ब्रह्माजी ने भी नृत्यकला का प्रदर्शन किया था। उन्होंने मानव जाति को नृत्य वेद की सौगात भी दी। भारत के हर क्षेत्र में अपने-अपने के विशिष्ठ नृत्य होते हैं, जिले लोकनृत्य भी कहते हैं। हर नृत्य की अपनी शैली और होती है। सबका अपना लालित्य होता है। नृत्य सभ्यता और को जाहिर करने का उत्तम जरिया भी है। विशेष अवसरों पर नृत्य की अलग-अलग शैली प्रसिद्ध है। खासकर फसल की कटाई पर देश भर में हर क्षेत्र के किसानों की मस्ती की अभिव्यक्ति लोकनृत्यों के माध्यम से होती है।
संजय चौहान युवा घुमंतु पत्रकार हैं. आलेख साभार सहित