रुद्रनाथ यात्रा – 2
अरुण कुकसाल
वो सामने की धार वाला रास्ता रुद्रनाथ का है.
कर्णप्रयाग से गोपेश्वर पहुंचे तो ‘बारिश ने कहा मैं भी आती हूं तुम लोगों के साथ रुद्रनाथ। अब बारिश को ना आ कहने से तो कुछ होने वाला नहीं है, बस दुआ ही कर सकते हैं कि वह यहीं रुक जाय। बेकार में मदद तो क्या, बारिश लफड़ा ही करेगी हमारे चलने में। जाने की जल्दी है, पर हम पहाड़ियों का पहाड़ीपन हुआ कि दिन में भात तो डटकर खाना ही है। गोपेश्वर से सगर टैक्सी से और उसके बाद पैदल यात्रा। नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत स्थित सगर की दूरी गोपेश्वर से 3 किमी. है। सगर में रुद्रनाथ जाने के लिए प्रवेश गेट सड़क से ही बना है। गेट के आस-पास दुकानें हैं। स्थानीय लोगों और रुद्रनाथ जाने वाले यात्रियों की जरूरतों का सामान उनमें है। प्रवेश द्वार की घंटी की ट्न्न की आवाज के साथ मन्नत मांगी कि हे ! भगवान ये बारिश बंद ही करा दे। एक तो सीधी चढ़ाई और साथ में बारिश की रुम-झुम, पर चलना तो है ही। सगर से पुंग 4 किमी. और पुंग से मौलिखर्क 4 किमी. है, बल। रास्ता एकदम चढ़ाई का है। तय हुआ कि आज मौलिखर्क पहुंच जांय तो अतिउत्तम, नहीं तो पुंग में ही रात्रि विश्राम होगा।
सगर की बसावट से कुछ दूर पहुंचे तो आगे का रास्ता एकदम खल्लास नजर आया। यकीन हो गया कि हम रास्ता भटक गये हॅैं। आस-पास छानियों में जानवर तो बंधे हैं पर आदमी जैसा तो कोई दिखाई नहीं दे रहा। ‘कोई है, भाईसहाब’ की कई आवाजें लगायी पर कोई हो तो बोले। अपना बचपन में सीखा लम्बी सीटी बजाने का हुनर आजमाया, कई सीटियां मारी। ताजुब्ब है, भूपेन्द्र और सीताराम को तो सीटी बजानी आती ही नहीं हैं। कैसे पहाड़ी हैं, ये। पहाड़ी की मौलिक पहचान है कि उसे सीटी बजानी तो आती ही है। परन्तु इस समय तो अपना सीटी बजाने का मौलिक ज्ञान भी काम नहीं आया। छावनियों के अंदर-बाहर बंधे जानवरों ने भी पता नहीं क्या समझ के हमारी ओर ध्यान नहीं दिया। वे अपनी ही मस्ती में आराम फरमा रहे थे। वापसी की ओर मुड़ने को हुए तो कोई सज्जन कंधे पर सामान लिए इन छावनियों की ओर आते दिखाई दिये। ‘जान पर जान आयी’। वे पास आये तो बोले ‘वो सामने की धार वाला रास्ता रुद्रनाथ का है। आप इधर गलत मुड़ गये।’ लगा कि भाई नेपाली है, आदतन नाम पूछा तो ‘दीप चंद तिवारी’। नेपाली नाम तो दिल बहादुर / मन बहादुर सुनते आ रहे हैं। ये नाम नया लगा। दीप चंद लगभग 15 साल से गढ़वाल में हैं, यहां रहते हुए 5 साल हो गये हैं। जानवरों का पालन-पोषण, सब्जी और खेती से वो जुडे़ हैं। परिवार नीचे सगर गांव में है। दीप चंद ज्यादा बात करने के मूड़ में नहीं है। ‘आपको देर हो जायेगी, बारिश भी है, इसलिए चलते बनो’ का भाव उसके चेहरे पर देखते हुए हम तीनों लौटे बुद्धुओं की तरह नीचे की ओर सरकने लगे।
रुद्रनाथ जाने वाले सही रास्ते पहुंचे तो खिसियाट के साथ झुंझलाहट भी थी। बिना बात के 2 किमी. से ज्यादा चलना वो भी पैदल यात्रा की शुरुवात में बहुत महंगा पडेगा। रास्ते की मुंडेर पर 2 बालिकायें रस्सी लिए बैठीं हैं। उनसे रुद्रनाथ जाने के लिए इस रास्ते को पुख्ता किया। सृष्टि और आंकाक्षा हैं वो, कक्षा 6 एवं 7 की छात्रायें। स्कूल से आने के बाद घास लाने को आयीं हैं। पढाई के साथ घर-खेत के काम में हाथ बांटना उनकी रोज की दिनचर्या है। चलते – चलते पूछा, तो बोली कि ‘हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा हमारे घर के काम। वैसे ही आजकल घरवालों के लिए सुबह से देर शाम खेतीबाडी का टैम है।’ वाह ! खुश रहो बेटा। खड़ी चढ़ाई के रास्ते में दोनों ओर खेत और कहीं-कहीं मकान और छावनियां भी हैं। कुछ मकान खडंहर में तब्दील हैं। एक खडंहर हवेली को दिखी, तो पास के खेत में काम कर रही बुर्जग महिला ने बताया कि ‘ये खूब पैसा वाले लोग थे, तब यहां रह कर उनको क्या करना था। बाहर देश चले गये। अब कोई नहीं आता उनका। पहाड़ में रहना तो हम गरीब-गुरबों के लिए है, कहां जाना हमने।’ पैसे वाले बाहर चले गये, जिसको अपनी पढाई अनुरूप रोजगार नहीं मिला वो भी बाहर गये। जो इन दोनों से लाचार है, वही पहाड़ में रह रहा है। ऐसा है क्या ? मन ने सोचा तो दिमाग चालक है ‘बोला, चुपचाप चढ़ाई चढ़ो इस समय। सोचों मत वरना और थक जाओगे। ये तो किन्हीं बड़ी गोष्ठी और संगोष्ठी में सोचने और बोलने की बातें हैं।’
यात्रा की पहली धार पर पहुंचे। चांदकोट जगह है यह। पौड़ी गढ़वाल के चौंदकोट की याद आ गयी। गजेन्द्र सिंह नेगी जी यहां पर आथित्य के लिए मौजूद हैं। चाय, बिस्कुट, मैगी से लेकर दाल-भात और तकरीबन 20 लोगों के लिए रुकने तक का इंतजाम है, उनके पास। बस कहने की देर है। रास्ते के ऊपरी ओर नलनुमा पानी का धारा है। जिला पंचायत, चमोली द्वारा यात्री विश्राम के लिए खुले में साफ-सुथरी ऊन की गरम दरी बिछी है। बस, सीधे लमलेट ही हो गए। निखालिश दूध की बनी चाय को देते हुए गजेन्द्र आगे के रास्ते के बारे में बता रहें हैं। उनका कहना है कि बारिश बंद हो गयी है, इसलिए हम लोग चाल में थोड़ी तेजी लायें तो यहां से 7 किमी. दूर मोलिखर्क रात्रिविश्राम के लिए पहुंच सकते हैं। उनके गांव के ही प्रेम सिंह बिष्ट 2 महिला यात्रियों के साथ आधा घण्टा पहले यहां से गये हैं। उन्हें भी आज मोलिखर्क पहुंचना है। प्रेम सिंह बिष्ट की मोलिखर्क में छानी है, वहां हमारे रात्रि रुकने-खाने की बढ़िया व्यवस्था हो जायेगी। हमारी सहमति पर गजेन्द्र तुरंत मोबाइल से बिष्ट से बात करके उसे सलाह देते हैं कि वो पुंग में हमारा इंतजार करे, ताकि हम उन्हीं के साथ मोलिखर्क चल सकें।’ गजेन्द्र बताते हैं कि ‘पुंग से मोलिखर्क 4 किमी. है। एकदम खड़ी चढ़ाई के साथ घनघोर जंगल का रास्ता है। आपको पुंग के थोड़ा आगे ही रात हो जायेगी। और रात को जंगली जानवरों का तो डर हुआ ही। प्रेम सिंह के साथ रहने से आप बिल्कुल सुरक्षित और समय पर मोलिखर्क पहुंच जायेगें।’ गजेन्द्र की व्यावसायिक कुशलता हमारे लिए राहत लेकर आयी। मोबाइल की महत्ता और व्यावसायिक उपयोगिता के भी दीदार हो गये। लम्बी दूरी की पैदल यात्रा में रात के खाने और रहने का पक्का इंतजाम हो जाना माने आधी थकान गायब। गजेन्द्र के पास बेचने को रिंगाल से बनी टोकरी, डालिया और कई तरह की शोपीस हैं। पहाड़ी अनाज और मसाले भी हैं, पर कम मात्रा में। उनका कहना है औसतन 40-50 व्यक्ति प्रतिदिन रुद्रनाथ के लिए जाते हैं। मई – जून और सितम्बर – अक्टूबर में यात्रियों की जबरदस्त भीड़ रहती है। ज्यादातर वापसी वाले यात्री ही रात्रि विश्राम के लिए उनके पास रुकते हैं। बहुत जोर देने के बाद गजेन्द्र बताते हैं कि प्रतिवर्ष मई से अक्टूबर माह तक चलने वाले सीजन में वे 45-50 हजार रुपये तो बचा ही लेते हैं। यात्रा जारी है…
यात्रा के साथी और फोटो – सीता राम बहुगुणा, भूपेन्द्र नेगी, तरुण
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