कढ़ाई का भात
रमेश पाण्डेय
कहानी के इस शीर्षक को पढ़कर जरूर मन में प्रश्न कौंध रहा होगा कि भद्याव में छांसी जौ, भट का जौला, मडुवा फान, डुबुक, घरौट, चेंसी, पयो तो पकता हैं पर यहां भात कहां से आ गया।
भद्याव (कढ़ाई) के भात से मेरा रिश्ता बचपन का हैं। अकेले मेरा ही क्यूं मुझ जैसे हजारों हजार लोगों का यह रिश्ता बचपन में बना ही होगा। इस रिश्ते में मुख्य पात्र तो ईजा ही थी। सच तो यही हैं कि यह रिश्ता बनाया ही ईजा ने था। बचपन में जब स्कूल दोपहर के हो जाते थे तो सुबह का कलेऊ अपने आप दूध पर सिमट जाता था। बचपन में सुबह अपने मन से कोई थोड़े ही उठता हैए ईजा या कभी कभी दीदी ही उठाती थी। उठाने के थोड़ी देर बाद ईजा जेबरी में धीमी आंच में उबला गया दूध पीतल के बडे़ से गिलास में उडे़ल कर हाथ में पकड़ा देती थी। ईजा तब तक वहां से टस से मस नही होती थी जब तक गिलास का पूरा दूध पेट में ना चला जाए। हाथ में दूध पकड़ाये जाने और दूध के पेट में गटकने के बीच ईजा की डांट के साथ गुड़ या मिश्री का टपक मिलना भी रोज की चर्या ही थी। स्कूल जाने से पहले दाल, भात, टपकि से भरी थाली सज जाती थी। कलेउ के दूध और स्कूल जाने से पहले परोसे जाने वाले भात में समय अन्तराल बहुत कम होता था पर ईजा की डाट होती थी कि थाली का भात धपोड़ना ही पड़ता था। भात की धपोड़ा-धपोड़ी के बीच ईजा की नजर बचा कर भात की थाली को गोठमाव के बाहर बंधे बौहड़ के दौण में पहुंचा देने में भले ही अपनी चतुराई लगती थी पर ईजा को सब पता रहता था।
किस्से को पढ़ते पढ़ते आप सोच रहे होंगे इस किस्से में भद्याव और भात कहा है। आपका सोचना नही हैं। अभी जरा स्कूल से तो लोटने दो तो वह भी अपने आप आ जायेगा। छूट्टी के दिन को छोड़ कर स्कूल से घर लौटने पर गजब की भूख लगी होती थी। घर के आंगन में पहुंचते ही स्कूल की पाटी दवात एक तरफ रख कर बिना हाथ धोयें रौन की जाती में रखे गये भद्याव पर टूट पड़ना रोज ही होता था। जिस भद्याव में स्कूल से लौटने के बाद के लिये भात रखा होता था उस भद्याव में सुबह टपकिया, जौला या घरोट बनाा होता था। सुबह परोसे गये सभी व्यंजनों का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा उस भद्याव में जरूर रखा होता था। स्कूल से लौटने के बाद की भूख भी बड़ी गजब की होती थी। भद्याव में रखा गया भात, टपकिया और दाल तो चट्ट होता ही था साथ ही भद्याव में चिपके खरोड़ को भी अंगुलीयों के नाखूनों से खरोड़ खराड़ कर चाट दिया जाता था।
भद्याव के उस भात को सायद ही कभी भुलाया जा सके। लोहे से बने उस भद्यव में रखे जाने वाले भात के साथ जो आयरन हमाने शरीर में उस समय जाता उस आयरन के दूरगामी लाभ को ईजा ही जरूर समझती रही होगीए तभी तो दोपहर का भात भद्याव में ही रखती थी ईजा। स्कूल जाते समय जो ताजा-ताजा खाना थाली में मिलता था उस खाने का बड़ा भाग भले ही बौहड़ की दौण में चला जाता था पर स्कूल से लौटने के बाद भद्याव में जो भात रखा होता उस भात में तो खरोड़ भी नही बचता था तो वह भद्याव खाली होने के बाद सीधे पनाण में ही पहुंचता था। भद्याव के भात से ईजा ने जो रिस्ता जोड़ा था वह रिस्ता बचपन छूटने के बाद अपने आप टूट गया था। कभी-कभी सोचता हूँ कि बचपन में भद्याव के भात से मिली आइरनी उर्जा और ईजी की यादों की गुद गुदी का सकून शब्दों को यहीं रोक दे रहे है।