यहां जनता के निर्णय को बदलने के पाप के भागीदार न बनें
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
विधान सभाई चुनावों के परिपेक्ष में फरवरी 2022 चुनाव ऐसे पहले चुनाव थे जिसमें नवम्बर 2000 में जन्मे अलग उत्तराखंड राज्य में पैदा हुये शिशुओं ने भाग लिया। विगत लोकसभा चुनावों में उन्हे मौका मिला था पहले बार बालिग के रूप में अपना मताधिकार प्रयोग करने का। किन्तु वे लोकसभा के चुनाव थे। इसके पहले जो विधान सभाई चुनाव हुये थे उस समय तक वे बालिग नहीं थे।
इस राज्य में जन्म से अब तक बच्चों के शायद ही कभी उनका आदर्श वर्तमान दे पाये थे। इसलिये आम अभिभावक को उनके भविष्य को लेकर चिन्ताये ही चिंताए रही। उनके बाल अधिकारों की रक्षा इस राज्य में जैसे होनी चाहिये थी वैसी नहीं हो पायी। बच्चे गुम होते रहें, बच्चियों के साथ पाशुविक कुकृत्य कर उन्हे मारा गया। लिटिल निर्भया काण्ड हुये। बच्चे जान हथेली में रख कर आज भी स्कूल जा रहें हैं। नदी नाले गाद गदेरे जब उफान में रहते हैं, तो उनकी जान सांसत में रहती है। ऐसी कहानियां हर जिले में सालों से दोहराई जा रही हैं। जर्जर ट्रौलियों , पेड़ों के तनों पर बच्चे ऊफनते नदी नाले पार कर रहें हैं। ट्रौलियों में वे फंस भी रहें हैं। वे घायल भी हो रहें हैं। बच्चे बच्चियां जंगली जानवरों का ग्रास भी बन रहीं हैं। असुरक्षित बचपन ने जब असुरक्षित भविष्य दिया तो राज्य को भारी संख्या में नशे के गिरफ्त में गये किशोरों की जमात भी मिली। शिक्षण संस्थाओं के परिसरों के आसपास हमने नशा तस्करों की बाढ़ बढ़ने दी। बेरोजगारी के दंश ऐसी स्थितियों को और बिगाड़ देते हैं। निश्चित रूप से इसका असर युवाओं के मतदान निर्णयों पर भी हुआ ही होगा।
ये ही युवा जिन्होने 2022 मे पहली बार राज्य विधान सभा चुनावों में मताधिकार का उपयोग किया जब किशोर हो रहे थे तो वह काल खण्ड भी अच्छी स्मृतियें को देने वाला नहीं था। 2014 में राज्य जब अपनी चौदहवीं वर्षगांठ मनाने के नजदीक था , तब लगभग सात साल की मासूम के साथ हलव्दानी क्षेत्र में यौनिक दरन्दगी कर उसे मार दिया गया था। इस जघन्य काण्ड को उत्तराखंड का लिटिल निर्भया काण्ड भी कहा गया था। इसी साल विकासनगर कोतावली क्षेत्र में मानसिक कमजोर किशोरी से दुराचार हुआ था।
2013 में राज्य में जून आपदा आई थी। बच्चे बुरी तरह से प्रभावित हुये थे। कइयों के अभिभावक व साथी सदैव के लिये उन्हे छोड़ गये थे। किन्तु उसी समय के सरकारी अधिकारियों के राहत कार्यों के दौरान मटन, गुलाब जामुन व कई हजार रूपये प्रतिदिन के होटल में रहने के जैसे जो बिल भी पास किये गये थे। यह संकेतक भी था कि पर्यावरणीय संवेदनशील राज्य में आपदाओं के आढ़ में सरकार उस समय तकराज्य में कितना संवेदन हीन वातावरण तैयार कर चुकी थी। बच्चे इसीमें बढ़े हो रहे थे। निस्संदेह राज्य में पहली बार उत्तराखंड विधान सभा में मतदान करने वाले मतदाताओं व किशोरों के लिये घोषणाओं का भी अम्बार लग गया है, जो अर्थहीन ही मानी जायेंगी क्योंकि इन पर जो कुछ भी करना या न करना होगा, वह आने वाली सरकार पर ही निर्भर करेगा।
इन विधान सभाई चुनावों ने पहली बार के मतदाताओं को ये भी मौका दिया था कि वे राज्य को खांई के सिरे तक पहुचने के पहले अन्य आमजन के साथ लौटाने का उपक्रम करें। उन्होने वह निर्णय किया भी होगा। इसलिये वांछित है कि जो निर्दलीय या जिन छोटे बड़े दलों से जीते हों वे दल बदल न करें। यदि आपके विधान सभा के मतदाताओं ने कांग्रेस को भी नहीं चाहा भाजपा को भी नही चाहा आपको यदि निर्दलीय या किसी अन्य क्षेत्रीय या आप सपा अथवा वामपंथी दलों से चुना है तो आप की जिम्मेदारी उस विधान सभा क्षेत्र के प्रति है जहां से आप जीते हैं। बहुत उलटफेर यदि हुये हों आपकी तो तब और ही जिम्मेदारी है कि उस साहसी जनता ने जिसने महारथियों या महादलों का धूल चटाई है उसके साथ रहें यदि आप वैसा नहीं कर सकते हैं तो त्यागपत्र दे दें। वैसे ही जनतंत्र कमजोर है ही 50 प्रतिशत से कम वाले दल सत्ता में आ जाते हैं।
राज्य को हताशा प्रदेश की छवि से बाहर निकालना ही है। प्रासंगिक संदर्भ बीज बम और गढ़ भोज अभियान के सामाजिक कार्यकर्ता व्दारिका सेमवाल का है जो कहते हैं कि मे जब 6- 7 वर्ष पूर्व गांव बचाओ यात्रा करते हुये लोगों से पूछा था कि इस राज्य को ऊर्जा प्रदेश , हर्बल प्रदेश , पर्यटन प्रदेश या किस नाम का प्रदेश कहगें तो लोगों का कहना था कि इसे हताशा प्रदेश कहा जाये। लोगों का कहना काफी हद तक सही भी है। जिस हद तक पहाड़ों की नींव खोद दी गई है , पहाडों को आपदाओं का घर और राजनैतिक शह पाये माफियाओं का गढ़ बना दिया गया है उससे यह हताशा तो हुई है कि इस राज्य को अब पहाड़ी राज्य न बनाया जा सकेगा जो कि इस राज्य को उ प्र से अलग करने के पीछे का मूल कारण था। हालात पहाड़ी क्षेत्रों के इतने विरूध्द हो गये हैं कि इस राज्य के ही एक स्वनाम धन्य विधायक भी हो चुके हैं जो कह चुके थे कि पहाड़ वाले तराई पर बोझ हैं। यही नहीं तराई के हित रक्षा के लिए एक बार यहां से एक उप मुख्यमंत्री बनाने की मांग भी उठाई गई थी।
Photo courtesy – TRFN
लेखक स्वतंत्र पत्रकार व पर्वतीय चिन्तक हैं.