बादी परम्परा की वाहक हिमालयी गंधर्वों के साथ एक रोमांचक सफर
कुसुम रावत
आज की चखल-पखल के बीच सुनें टिहरी के इन लोक कलाकारों के सुरीले सुरों और शास्त्रीय संगीत को 15 august 1947 में आजादी के जश्न में तिरंगा झंडा चढाते वक्त प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने डांगचौरा के बादी जोड़े पुरसुलाल जी और बेगम अख्तर की शागिर्द परतिमा देवी को अपनी कला के प्रदर्शन हेतु बुलाया था. आप मिलें शिवचरण और बचन देई से जो टिहरी रॉयल कोर्ट के संगीतज्ञ थे और थे गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के विजिटिंग प्रोफ़ेसर संगीत विभाग में इनको चड़ीगढ़ संगीत अकादमी ने सम्मानित किया. साथ ही उनकी तीसरी पीढ़ी की अनीता और कई लोक कलाकारों से ये अद्भुत कलाकार और इनकी लोककला उपेक्षा का शिकार है. मेरा बचपन पुरानी टिहरी में बीता। टिहरी की संस्कृति कुछ निराली थी। टिहरी की धड़कनों ने संस्कृति के संवाहकों को संरक्षण दे पफलने-पूफलने का भरपूर मौका दिया।
मैंने सन् 1970 में 3-4 साल की उम्र में छोटी बहन विमल के साथ टिहरी में पहला कदम रखा। मेरा पहला कदम ही टिहरी हेतु मेरा पहला प्यार बन गया। हौले-हौले टिहरी हमारी सब कुछ हो गई। लेकिन जब टिहरी से आखरी कदम उठाया तो एक भरा-पूरा परिवार था। साथ में यदि कोई ना था, तो वो थी- ‘मेरी माँ’ जिसकी उंगली पकड़ कभी हम टिहरी आये थे। पर माँ से जुड़ी टिहरी के लोक कलाकारों- बादियों की एक सुंदर संस्कृति की याद- ‘बिंदुली’ आज भी मेरे जेहन में कैद है। ‘बिंदुली’ का बीज ‘माँ’ ने 6-7 साल की उम्र में मेरे मन में बोया। वो नन्हा बीज इतने सालों में ठीक एक महीने पहले एक सुंदर झपन्याला बोध वृक्ष- ‘बिंदुली’ बन मेरे अवचेतन मन से जब बाहर पूफटा तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। यह मेरा ‘यूरेका मूमेंट’ सरीख था।
मेरे मुँह से निकला- वाह प्रभु ऐसा भी होता है! मैं अंदर से भीग गई। मेरा मन और मस्तिष्क पूरी शिद्दत से झुक गया बादियों की अनोखी ‘गंधर्व विधा’ के आगे। बस मेरा मन हुआ कि मैं सामवेद की ऋचाओं के अनोखे गायक बादियों से अनुभूत अपना सपफर आपको भी सुनाऊं। शायद आपको पसंद आए! हमारा घर टिहरी बस अड्डे के ठीक ऊपर था, बिल्कुल अकेले में। हम बहनों की एकमात्रा दोस्त हमारी ‘माँ’ थी। मेरी माँ कुछ खास’ थी। वह बेहद शांत स्वभाव की सुलझी, दयालु और विनम्र महिला थीं। माँ बहुत धीमा बोलती थी। माँ का गुस्सा तो हमने मरते दम तक नहीं देखा। माँ हमें दुनिया जहान, हमारे गाँव, आस-पास की घटनाओं और लोगों के बारे में बताती। माँ धीमे सुरों में कभी गीत, कभी कहानियाँ, कभी कविताएँ सुनाती। कभी वह बोलचाल में ही इस सृष्टि, धरती और आकाश के अबूझे रहस्यों और रोमांच की हमारी जिज्ञासा कम करती। ‘माँ’ पढ़ी लखी तो नहीं थीं पर वो व्यवहारिक ज्ञान और जानकारियों का अकूत भण्डार थी, माँ का खास स्वभाव’ था-हर जाने-अनजाने बंदे के साथ इज्जत से पेश आना। उसे उसके हिस्से का यथोचित सम्मान देना। पिफर चाहे वह मांगने वाला हो या कोई खास मेहमान। माँ के इसी खास अंदाज के चलते मेरी पहली मुलाकात हुई मेरी कहानी बिंदुली के नायक-बादियों से।
मैं तब कोई 6-7 साल की थी। एक गर्मी की दोपहरी मैंने अचानक गीत और ढोलकी की आवाज सुनी। मैं दौड़कर बाहर गयी। मैंने जो देखा उससे मेरा मन कौतूहल से भर गया। एक औरत और आदमी चैक में बैठे थे। वे कुछ अलग ही अंदाज के बाशिंदे लग रहे थे। औरत कोई पहाड़ी गीत गा रही थी। आदमी की उंगलियाँ तेजी से ढोलकी पर नाच रही थी। आदमी कुर्ता-पायजामा-टोपी में था। उसके बाल लम्बे थे- कुछ जटानुमा। उसका रंग गहरा सांवला था, लेकिन औरत बहुत सुन्दर थी- एकदम गोरी-चिट्टी। वो उतने ही सुंदर रंग-बिरंगे और सजीले कपड़ों में थी। छींटदार पुफरक्याली घाघरी, टुपक्याला कुर्ता और चमकीला दुपट्टा पहने वह औरत सच में बेहद आकर्षक थी। वह बुलाक पहने थी। वह जितनी सुंदर थी, उतने ही सुरीले थे- उसके गीतों के सुर। और उससे भी ज्यादा मारक और मोहक थी- उसकी थिरकने, लचकने व ठुमकने की अदाएं। ले-दे के एक अजीब ठसक और कसक थी इस जोड़े में। मैं तो एक बारगी को डर गई पर कुछ तो अजब खिंचाव था उनमें कि- मैं परदे को पकड़ जोर से चिल्लाई मांजी-मांजी! माँ बाहर आई। माँ को देखते ही गाना बजाना थम गया।
वह औरत बोली- सिमानी दिशा! मेरी समझ में आया तो कुछ नहीं, लेकिन इतना समझी कि ये नमस्कार कर रहे हैं। माँ से औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने गाना-बजाना-नाचना शुरू किया। एक के बाद एक- नान स्टाप। अब कौतुहल की बारी मेरी थी।महिला सिर्फ गा नहीं रही थी, बल्कि अपनी बेहद घेरदार ‘घाघरी’ पकड़ नाच भी रही थी। उसके नाचने का अंदाज अपने साथी की ढोलकी की थाप और ढोलकी की तेजी के साथ बदलता जाता। साथ ही बदलती उसकी घाघरी पकड़, एक ही जगह पर थिरकने और लचकने की मनमोहक अदाएं। ऐसा परियों के मापिफक नाच तो कभी देखा ही नहीं था। आदमी की ढोलकी पर चलती उंगलियाँ तो जादू की माफिक चल रही थी। वे देर तक गाते-बजाते रहे। कई कर्णप्रिय धुनें हमने सुनीं। मैं कभी मांजी को देखती और कभी इस जोड़े को। हैरानी की बात थी कि जो गीत ये गाते मांजी भी इनके साथ गुनगुनाती। गोया मांजी को भी ये बादी गीत आते हों। माँ के मूक सहयोग से इनका उत्साह बढ़ता जाता। उन गीतों में मेरे पल्ले पड़ी एक लाइन आज भी याद है-
कमला की बोई पकांदी रोटी कमला न जाण पीपलकोटी….
खैर… घंटों बाद यह सिलसिला रुका। मांजी ने उनको सब्जी-रोटी खिला, प्रेम से चाय पिलाई। कुछ रुपये, राशन, दाल, नमक, मिर्च, तेल… और धोती देकर इज्जत से विदा किया। मेरी समझ में बाकी कुछ तो नहीं आया पर-यह कर्णप्रिय गीत-संगीत- नृत्य और मांजी का उनको प्रेम से बैठाना, साथ में गुनगुनाना, बादियों का हक और आत्मीयता से मांगना और मांजी का प्रेम से देने-दिवाने का ये रिश्ता बेहद पसंद आया। बादियों से मेरी पहली मुलाकात का यही अंकुर आज ‘बिंदुली’ बन पफूट पड़ा गौरा और महोदव की रोमांचक अनुभूति से…। बाद में मांजी ने बताया ये बेडा-बेडणी हैं। यह हमारे घर गाँवों का पुराना रिवाज है कि- ये लोग गीत गा और नाचकर हमारे परिवारों व समाज की मंगल कामना करते हैं। यह लोग ब्याह-शादियों में गा-बजाकर समाज का मनोरंजन भी करते हैं। इनका गाना-बजाना शुभ माना जाता है। राजा-महाराजा और सेठ साहूकार इनको इज्जत देते हैं। ये लोग समाज की हर बात पर गीत बना उस बात को पफैलाते भी हैं। ये अपने गीतों में ईश्वर की स्तुति करते हैं। कहते हैं ये गंधर्व हैं और भगवान शिव के वंशज हैं। माँ का गम्भीर अंदाज में बोलना- यह संकेत देता था कि बात कुछ खास ही है। ये थी मेरा बेडा जाति से पहली मुलाकात…।
अचानक मेरी दूसरी मुलाकात बादियों से सन् 1992 में हुई। उत्तरकाशी भूकम्प के बाद उत्तर मध्य क्षेत्रा सांस्कृतिक परिषद इलाहाबाद की प्रस्तुति- ‘पर्वतीय पर्व’ उत्तरकाशी में। वहाँ की निदेशक नीरू नंदा एक आई.ए.एस. अधिकारी थी। वो मेरे नजदीकी परिचितों में हैं। नीरू दीदी ने मुझे उत्तरकाशी आने का न्योता दिया। मैं नियत दिन पफौजी कैंप मातली पहुँची तो वहाँ का नजारा देख सन्न रह गई। घने चीड़ के पेड़ों के बीच पफौजी जवान बड़ी तन्मयता से संगीत का आनंद ले रहे थे। हैरान होने की बारी अब मेरी थी- वहाँ एक बादी जोड़े के नृत्य संगीत की रिकार्डिंग हो रही थी। नीरू दीदी बार-बार इस जोड़े और कैमरामैन को निर्देश दे रही थी। जब बादिण के कमर की लचक और घुंघरूओं की रुनझुनाहट से वो संतुष्ट हो गईं, तो उनको लगा-इसका दुपट्टा घाघरे के साथ कुछ जम नहीं रहा है। उन्होंने कई लोगों के दुपट्टे उतरवाए। पर बात कुछ जमीं नहीं। आखिर में वह तेजी से अंदर गई। अपना दुपट्टा ला उसे तपाक से पहना फाईनल रिकार्डिंग की। जैसे-जैसे यह जोड़ा गीत-संगीत नृत्य में मगन होता गया वैसे-वैसे दीदी की आँखों की चमक बढ़ती रही। फौजी तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठे थे।
इन लोक कलाकारों के प्रति दीदी का सम्मान व आत्मीयता देख अपनी मांजी के साथ बादियों के पहले नृत्य व गायन की स्मृति उभर आई। इस वत्तफ मैं एम.एस.सी. कर टिहरी डिग्री कालेज में पढ़ा रही थी। लोक कलाओं के प्रति उम्र के साथ थोड़ी समझ भी बन गई थी। इन लोक कलाकारों को इतने बड़े मंच पर सम्मान मिलता देख मेरे मन में इस लोक कला के लिए और भी आदर बढ़ गया। नीरू दीदी ने बताया कि यह बादी जोड़ा शिवचरण और बचनदेई का है। ये लोग टिहरी के ढुंगमंदार पट्टी के हैं। शिवचरण टिहरी राजा की रायल कोर्ट का संगीतज्ञ था। वह सामवेद का गायक है। बचनदेई ने यह कला अपने पिता मोलू राम से सीखी थी, जो 18 नौबत ताली के खास जानकार थे। बचनदेई राधाखण्डी शैली, ठुमरी और अन्य विधाओं की पारंगत गायिका थी। इन लोगों ने अपनी प्रस्तुतियाँ देश के प्रतिष्ठित मंचों से दी हैं। प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के वक्त आयोजित ‘अपना उत्सव’ कार्यक्रम में नीरू दी ने इनको देश भर के मंचों पर जगह दी। सन् 2002 में संगीत नाटक अकादमी चंडीगढ़ में इन्होंने बेमिसाल यादगार प्रस्तुति दी। नीरू दी तब चंडीगढ़ में गर्वनर की सलाहकार थी। संगीत अकादमी ने इनको सम्मानित भी किया था।
मैं तो ये सब सुन कर दंग रह गई। वाह क्या बात है? बाद में पता चला कि बचनदेई और शिवचरण गढ़वाल विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में 2006 विजिटिंग प्रोपफेसर भी रहे। वहाँ इन्होंने कुछ लोगों को राधाखण्डी और अन्य विधाओं में प्रशिक्षण भी दिया। यह था मेरा बादी जाति और उनकी महान विरासत से दूसरा परिचय… जिसने मेरी रूचि को बढ़ाया तो सही पर वह रोमांच आगे नहीं बढ़ा।अचानक मेरी तीसरी यादगार मुलाकात हुई बादियों से… जून 2004 में। मैं तब महिला समाख्या टिहरी में काम कर रही थी। अचानक मुझे मेरी दोस्त डा. कुसुम नौटियाल ने बताया कि साथी संस्था बादियों पर डांगचैरा में एक डाक्यूमेंट्री बना रही है। यह सुनना था कि मेरे तो बचपन के तार खनक गये। बादियों से मिलने की लालसा ने मुझे डांगचैरा पहुँचा दिया। यहीं मैंने इन लोक कलाकारों की विरासत की ठसक और बेजोड़ अंदाज को महसूसा कि- असल में बादी हैं कौन? ये किस महान परम्परा के वाहक हैं? इनकी क्या महत्ता है? समाज में इनकी क्या जगह थी? और आज ये कैसा उपेक्षित जीवन जी रहे हैं?
डांगचैरा टिहरी के कीर्तिनगर ब्लाक का एक गाँव है। यह एक अनोखा गाँव है- अनोखा इस लिहाज से कि गाँव की ज्यादातर जनसंख्या बेडा जाति की है। यहाँ लगभग 50-60 परिवार उस वत्तफ रहे होंगे। आज का मुझे मालूम नहीं। हम गाँव में चिलचिलाती धूप में पहुँचे। गर्मी के मारे बैठना मुश्किल था। गाँव के ज्यादातर घर काली प्लास्टिक की पन्नियों व बांस की खपच्चियों से ढके थे। कुछ कच्चे और कुछ मिट्टी से बने घर भी थे। हर घर के सामने कुछ आदमी, औरतों और बच्चों ने उदास और पफीकी मुस्कुराहटों के साथ हमारा स्वागत किया। मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि सामवेद संस्कृति के ये महान वाहक बेहद तंगेहाल और पफटेहाल जिंदगी जीने को मजबूर थे। घरों में ज्यादातर बच्चे थे। गाँव का स्कूल पास ही था। स्कूल की छुट्टियाँ थी। गाँव के लोग अपनी इस परम्परागत कला को छोड़ आजीविका की तलाश में इधर-उधर चले गये थे। गाँव में इस जाति के लोगों के पास खेती तो है नहीं। पहले हमारे पुराने रिवाजों के अनुसार बादियों के इलाके बंटे होते थे। जहाँ हर फसल पर इनको डडवार-यानि पफसल पकने पर इनका हिस्सा भेंट होता था।
अब चूंकि लोक लिहाज में इन्होंने अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ दिया है और गाँवों में भी खेती की हालत अच्छी नहीं है सो अनाज के लिए कंट्रोल की दुकानों का ही सहारा है। ये आजीविका की तलाश में मजदूरी आदि करने को मजबूर हैं। किसी संरक्षण के अभाव में मजबूरी और मजदूरी के चलते गायन-नृत्य की यह समृध लोक कला आखरी सांस लेने को मजबूर है। पूरे गाँव का चक्कर लगा मेरा मन घोर निराशा और पीड़ा से भर गया।डांगचैरा में मेरी तीन पीढ़ी के कई लोक कलाकार जोड़ों से मुलाकात हुई। मिट्टी की सापफ-सुथरी लिपी-पुती झोपड़ी में हमें पहले श्री पुरूसु लाल जी मिले। पहली पीढ़ी के कलाकार पुरूसु लाल और परतिमा देवी का यह जोड़ा सबसे बड़ी उम्र का जोड़ा था। पुरूसु तब 80 साल और परतिमा दीदी 70 साल से ज्यादा रही होंगी। पुरूसु लाल लम्बी जटायें रखते थे। उनकी जटाएँ सामने की ओर जूड़ी की तरह बंधी थी। उनके दोनों हाथों की उंगलियाँ गठिया के कारण अकड़ी थीं। वह बोले- मैंने जीवन में इतनी ढोलकी बजायी है, पर 7-8 साल से बजाना बंद किया तो मेरी ऊंगलियाँ ही अकड़कर खराब हो गईं। दोनों ने अपनी जवानी के अविस्मरणीय दिनों को याद करते हुए बताया कि-‘हम दोनों देश की आजादी के जश्न के गवाह हैं।
लाल किले पर जब सन् 1947 में प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने आजादी का झंडा पफहराया था, तो हमने उस जश्न में अपनी लोक कला का प्रदर्शन किया था। हमें दिल्ली से न्यौता आया था। हम लखनऊ भी गये थे। बेटा कहाँ-कहाँ नहीं हमने आजादी से पहले और आजादी के बाद अपनी कला दिखाई? पंडित नेहरू ने हमें तामपत्रा दिया था।’ मेरे कहने पर कि क्या दिखाएंगे आप? वह बड़ी उलाहना से बोले- पड़े होंगे अब कहीं बक्सों में। क्या करना है उन कागजों का अब? बेटा कागजों से पेट नहीं भरता। पेट भरने के लिए अन्न चाहिए, पहनने के लिए कपड़े और सर ढकने के लिए छत? देखो तो हम किन हालतों में जी रहे हैं।पुरूसु लाल जी ने बताया कि हम लोग शिवजी के वंशज हैं इसलिए जटा रखते हैं। हमारे बालों पर कैंची नहीं लगती। हमारी कला की इज्जत एवं संरक्षण राजा महाराजा और पुराने समाज ने किया। पर अब हमारी कला भी मर रही है और हम भी।
हमारे पुरूखों ने बताया कि- जब सृष्टि बन रही थी तो शिवजी सबको काम बांट रहे थे। सबको तो काम मिल गया पर एक जोड़ा सो रहा था। सो उसको कोई काम नहीं मिला। वह शिवजी के पास गये और रोने लगे कि प्रभो हमारे लिए मृत्युलोक में क्या काम है? तब शिवजी ने कहा कि तुम लोग मृत्युलोक में संगीत का प्रचार करो। तुम्हारी ख्याति इसी गीत-संगीत से बढ़ेगी। सो बेटा हमारा लोक गीत-संगीत तुम्हारे मनोरंजन से कहीं ज्यादा शास्त्त्रीय संगीत की विधा है और उस ब्रह्मांड नायक की उपासना के कहीं ज्यादा नजदीक है। लोग इस बात को ना जानते हैं और ना समझते हैं। हम लोग सामवेद की ऋचाओं के गायक हैं। हम शिवजी के पुजारी हैं। हमें शिव ने ही समाज के मनोरंजन की जिम्मेदारी भी दी है। हम आजादी के जश्न के गवाह हैं। नेहरू जी हमारी कला के पारखी थे। ऐसे ही थोड़े उन्होंने हमें आजादी के मौके पर बुलाया। अरे वह बड़े गूढ़ तत्ववेत्ता और पारखी पुरूष थे। वह दरअसल देश की आजादी को सुरक्षित रहने को उस दिन भगवान शिव का संरक्षण चाहते थे।
इसलिए शिव प्रतिनिधि के तौर पर हमें बुलाया गया था। बेटा यह गूढ़ बातें हैं जो तुम्हारी पीढ़ी कहाँ समझेगी? परतिमा देवी इनकी पत्नी है। वह शास्त्त्रीय संगीत और टप्पा ताल की गायिका है। परतिमा ने हमें बैठे-बैठे कई राग, गजलें, राधाऽण्डी, कजरी, ठुमरी, सदैई, बाजूबंद, जागर, गजल आदि सुनाकर मंत्रमुग्ध कर दिया। गाते-गाते वह अपनी बूढ़ी उंगलियों को इतनी खूबसूरती से हवा में नचा रही थी, मानो हवा में ही अलग-अलग तरह के साजो संगीत और वाद्ययंत्र बज रहे हों। मैं तो हवा में उनकी लचकती और ताल ठोकती उंगलियों की सरसराहट में छिपे संगीत को आज भी याद कर रोमांचित हो रही हूँ। उनकी बेजोड़ आवाज में छाया सूफियानापन अपने पूरे उन्माद पर था। ‘ब्रह्मांड नायक’ के साथ अपने सुर-संगीत के माध्यम से परतिमा देवी का गठजोड़, तन्मयता, हवा में तैरती उंगलियों और अप्रतिम सुरों की कसक और ठसक ने तो मेरी बोलती ही बंद कर दी। मैं घंटों चुपचाप साक्षी बन उन पलों को संजोती रही। वह दिन मेरे लिए उस ब्रह्मांड नायक का अनोखा उपहार है जिसको याद कर मैं आज भी रोमांचित हो उठती हूँ। पुरूसु और परतिमा का यह अनोखा जोड़ा अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव में भी अपनी महान लोक विधा व कला के संरक्षण व संवर्धन के लिए बेहद चिंतित था।
उनकी पीड़ा थी कि कहीं यह समृध कला हमारी चिता की राख के साथ ही पंचतत्वों में विलीन ना हो जाये? परतिमा ने शास्त्रीय गायन शैली लखनऊ में सीखी। उनको बेगम अख्तर का सानिध्य मिला, सो उनके इकहरे-छरहरे व्यत्तिफत्व, सुरों और बोली भाषा में वही लखनवी नजाकत और नफासत रची बसी थी। वह कहती हैं कि- अब तो सालों गुजर गये गाये बजाये। अरे बेटा अब ना तो कला रही और ना ही कला के पारखी। वह सब राजा महाराजों के साथ ही चला गया। पहले हम शादी ब्याहों में शान से जाते थे। हमारे शरीक हुए बिना उत्सव का आनंद ही नहीं था। पर अब ना तो लोग इज्जत करना जानते हैं और ना उनको इज्जत करने का सलीका है। हमारी लोक कला को बुरी नजर और छोटेपन से देखा जाने लगा है। अब हम भी शादियों में जाना पसंद नहीं करते। लोग अश्लीलता पर उतर आते हैं। शराब पीकर बदतमीजी करते हैं। अरे बेटा! सार्वजनिक जीवन में ही भौंडापन आ गया है तो हमारी क्या बिसात है? पुरूसु जी ने बताया- बेटा मैंने कई ‘लांग’ लगाई और 7 बार ‘बेडावर्त’ रड़ा है। मेरे पूछने पर कि लांग और बेडावर्त क्या है? वह चमकती आँखों से बोले- हमारे वंशज सिर्फ गाने-बजाने या संगीत के वाहक नहीं हैं। हमें प्रभु ने धरती माँ की रक्षा का भार भी दिया है। विघ्न बाधाओं, आपदाओं, जानवरों व कीट पतंगों से खेती-पाती की रक्षा की जिम्मेदारी भी हमारी ही थी।
बेटा यह खेती के महत्वपूर्ण अनुष्ठान हैं। हम बादियों के क्षेत्र बंटे होते थे। सो अपने-अपने इलाके की खेती की रक्षा की जिम्मेदारी भी हमारी ही होती थी। अपने इलाके की खेती की रक्षा के लिए बेडा अपनी जान भी दे देता था। एक नियत दिन में गाँव में ‘लांग’ लगती थी, जिसमें गाँव में एक जगह पर खेती की मिट्टी की पूजा होती थी। सारा गाँव मिलकर लांग लगाता था। इसमें एक जगह पर 20-25 पुफट का बांस का डंडा जमीन पर रस्सियों के सहारे संतुलित किया जाता था। बांस को शिव के त्रिशूल का प्रतीक मानते हैं। लांग के दिन हर घर के लोग अपने खेतों की मिट्टी लेकर लांग वाले डंडे के नीचे डाल भगवान शिव से अपनी खेती की रक्षा की कामना करते हैं। गाँव से ढोल-दमाऊ लेकर लोग आते थे। बादी-बादणी भगवान शिव और माँ पार्वती के रूप में रहते थे। गाँव वाले उनकी आरती करते थे। उनके बाद ‘बुड्ण्या देवता और कुटणी देवी’ आकर गाँव वालों को उनकी खेती की रक्षा का आश्वासन देते। बाद में जिस गाँव में लांग लगती वहाँ के लोग इस पूजित मिट्टी को अपने खेतों में डाल देते। यह एक परम्परा है जो सदियों से चली आ रही है। बुड्ण्या देवता के बारे में कहानी प्रचलित है कि वह पार्वती का मानस पुत्रा है।
यह देवता स्वांग, हंसी मजाक करके सबका मनोरंजन करता है। कुटणी देवी के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी कुटणी से खेती को नुकसान पहुँचाने वाले जानवरों-सुअर, बंदर, कीड़े-मकोड़ों और बीमारियों को प्रतीकात्मक रूप से कुचलती है, जिससे खेती में इनका प्रकोप खत्म हो सके। उसके बाद बादी को नहला-धुलाकर, पूजा-अर्चना करके, नये कपड़े पहनाकर और सजा धजाकर लांघ के डंडे पर चढ़ाते हैं। लांघ पर वह अपनी जोखिम भरी नटकला का प्रदर्शन करता है।पुरूषु बोले कि बेडावर्त भी खेती से जुड़ा अनुष्ठान होता है, जो हर तीसरे साल होता है। यह बड़ा जोखिम भरा अनुष्ठान है। इसके दौरान बेडा अपनी जान भी दे देता है। इसमें बेडा अपनी खेती की सीमा की रक्षा के लिए गाँव की खेती की बाउंड्री पर बाबले की रस्सी पर चढ़ गाँव की एक सीमा से दूसरी सीमा तक रस्सी के सहारे पिफसलता है। यह माना जाता है कि गाँव की खेती की उस सीमा पर जहाँ बेडा रड़ता है उतने हिस्से में अकाल, भुखमरी, बीमारियों और जंगली जानवरों का प्रकोप नहीं होता है। बेडावर्त के बाद बादी को धन-धान्य, नथ और सोना आदि देकर सम्मानित करते थे। बाद में बेडावर्त में बादी की जान के जोखिम को देख महाराजा टिहरी व अंग्रेज कमिश्नर ने इस प्रथा को हमेशा के लिए बंद करवा दिया।
अभी भी कुछ गांवों में काठ का बादी-‘कठबद्दी’ बनाकर खेती की रक्षा हेतु बेडावर्त की परम्परा निभाई जाती है।पुरूसु जी बोले- अब हमारी कला व परम्परा समय के साथ खत्म होती जा रही है। साथ ही खत्म हो गया है हमारा उत्साह और ऊर्जा भी। बेटा पेट की भूख सबसे खराब होती है। अब खुद सोचो भूखे पेट हम क्या गायेंगे और क्या बजायेंगे? कला को जिंदा रहने के लिए संरक्षकों की जरूरत होती है और नई पीढ़ी में ‘गैखों और कद्रदानों’ की भारी कमी है। अब हम लोग आजीविका के लिए अपने पुश्तैनी कामों को छोड़ नाई और मजदूरी जैसे काम भी करने लगे हैं। कुछ लोग सरकारी नौकरियों में चले गये। बहुत उदास हो गये थे यह दोनों बोलते-बोलते। हाल ही में सुना कि यह जोड़ा अब जिंदा नहीं है। यह संस्मरण लिखने का बड़ा कारण इस जोड़े की संजोई स्मृतियों को संजोना है।डांगचैरा में ही मुझे दूसरी पीढ़ी के बादी जोड़े मोहन और सलोन्दरा मिले। इनकी उम्र कोई 25-30 के बीच होगी। इन्होंने कई गीतों पर अपनी कला का प्रदर्शन किया। सलोन्दरा की पफुरक्याली घाघरी और उसका ‘बिना पीठ दिखाये नृत्य’ की मोहक अदाओं से मन रीझ गया। उसके गीतों में प्रकृति का वर्णन, ईश्वर की स्तुति, हास्य, करुणा, श्रंगार रस, खेती की परम्पराओं और तीज त्योहारों आदि का हृदय स्पर्शी जिक्र था। पर आखिरी में उन्होंने भी अपनी व्यथा इसी बूढ़े जोड़े की तरह बताई कि ‘अब हमें शर्म लगती है कि लोग शादी ब्याह में तहजीब से पेश नहीं आते।
हमारे बच्चों का उनके सहपाठी मजाक बनाते हैं। पिफर इससे गुजारा भी नहीं होता। हमारे पास क्या चारा है अपना काम छोड़ने के सिवा….।’डांगचैरा में मुझे मिली-पुरूसु और परतिमा की नातिनी 9-10 साल की प्रतिभाशाली आरती। यह लड़की देऽने में दुबली-पतली थी। बड़ी बेतरतीबी से खिचड़ी से बिखरे उसके बालों और चेहरे पर छायी घनी उदासी के बावजूद लड़की की आँखों में एक अजीब चमक थी। वह हरे रंग की छींटदार लम्बी फ्राक पहने बैठी थी। आरती और उसकी पीढ़ी के बच्चे बादियों की एक और विधा- ‘स्वांग’ में माहिर हैं। स्वांग का मतलब होता है- बढ़ा-चढ़ा कर पूफहड़ हंसी-मजाक करना। स्वांग की यह विधा समाज के मनोरंजन के लिए बादियों की एक हास्य कला है जो अब खत्म ही हो गई है। आरती बहुत ही सुन्दर गाती है। उसके गीतों में सुलभ बालपन के साथ गीत के शब्दों व मर्म को महसूस करने और उसमें छिपी पीड़ा को अभिव्यत्तफ करने की एक अजीब ताकत मैंने महसूस की, लेकिन उसका सपाट और भावहीन चेहरा अपनी दादा-दादी के बताये रोजमर्रा के जीवन के कष्टों को बताने को कापफी था।
आरती ने हमें लड़कियों की स्थिति और लड़कियों की शादी पर वेदी पर दहेज के लिए अड़े दूल्हे पर एक गीत सुनाया। जिसके बोल थे- दुनिया की हवा देखा या रूसि किलै छै, दया धर्म की डालि, सूखी किलै छै। बेदी माँ जवैं बैठड्ढूंकुछ हाथ ना लगादूं, लोटड्ढा ना देंदी थाली या बेटी किलै पाली।मुझे इस बच्ची के साथ कई और जोड़े और बच्चे मिले। उनमें मेाहन और संलोदरा का बेटा भी था। वह स्कूल जाने को बिल्कुल तैयार नहीं होता था। उसकी उम्र लगभग 10-12 साल की होगी। मेरे बहुत पूछने पर बोला- हम क्यों जाएँ? वहाँ बच्चे चिढ़ाते हैं कि ‘आ गया बादियों का छोरा। अरे तेरी माँ तो घाघरा पहनकर नाचती है ब्याह बरातों में। तू स्कूल पढ़ क्या करेगा?’ जा तू भी सीख। बच्चों के इस आपसी संवाद ने मुझे अंदर तक झिंझोड़ दिया। बच्चों की बात एक सवाल छोड़ती है कि- आखिर जब तक हम अपने हर छोटे-बड़े काम को गरिमा के साथ नहीं देखेंगेगे तो कैसे कला और कलाकारों को बचाने की सोच सकते हैं?
गाँव में मुझे गिरधारी लाल मिले जो रिंगाल की कंघियाँ बनाते हैं। उसकी पीड़ा भरी बातें आज भी याद हैं कि- ‘हमें एक कंघी के 10 रूपये मिलते हैं। एक दिन में तीन कंघी बनती हैं। अब आप ही बोलो हमारे परिवार का खर्चा इन तीस रुपयों में कैसे चलेगा? क्या जरूरी है कि हमारी कंघी बिकेगी ही बिकेगी?’ बादियों को आजीविका हेतु ऐसे संघर्ष करते देख मेरा मन भर आया…। बादियों की लोक कला पर सोचते-सोचते बरसों बीत गये। अचानक जून 2010 में पिफर से गंधर्वों से मेरी सम्मोहिनी मुलाकात हुई। साथी संस्था ने मुझे लालच दिया गन्धर्वो के गीत-संगीत में डूबने उतरने को। मैं तब तक साथी टीम का हिस्सा ही बन गई थी। ये लोक कलाकार 7 दिन के लिए देहरादून सांस्कृतिक संध्या- ‘हिमालय के गंधर्व’ हेतु आये। मैं रोज गढ़वाल सभा जा उनका रिहर्सल देती। सही मायने में अक्ल आने के बाद के साथ यह पहला जज्बाती वक्त था।
मैंने एक-एक कलाकार की जिंदगी और उसके भीतर हिल्लोरे लेते सुंदर रचना संसार को उनकी व्यस्त दिनचर्या या यूं कहो गाँव की कठिन जिंदगी से उधार में मिली पफुर्सत की आजादी के बीच समझने बूझने की चुपचाप कोशिश की- उनके घुंघरूओं की मदमस्त आवाज, ढोलकियों की थाप और रंग-बिरंगे पुफरक्याले घाघरों की फुरकियों के बीच। मैं सुबह आती और देर रात तक इन लोगों के रिहर्सल का लुत्फ उठाती। जब भी मौका मिलता मैं इनसे बातचीत कर इनकी जिंदगी के उतार चढ़ावों को समझने की कोशिश करती- एक से एक बेमिसाल कहानियाँ हैं इन जिंदगानियों के संघर्षों की। अब बात करूं उस सम्मोहन भरी रात की। यह 3 घंटे की नाईट 25 लोक कलाकारों को समर्पित थी। क्या समां बांधा था इन्होने? भारी भीड़ थी। एक से एक गजब की प्रस्तुतियाँ। क्या राधाखण्डी, क्या ठुमरी, क्या लोक नृत्य, क्या गायन, क्या देव स्तुतियाँ, क्या मनोरंजक अभिव्यत्तिफयाँ? अंत में भीड़ अवाक थी और वहाँ था सिपर्फ सन्नाटा! इन लोक कलाकारों के सम्मान में या मौलिकता से रूबरू होने के नशे में! मैं उस दिन वातावरण में पसरी दिव्यता को शब्दों में नहीं बाँध पा रही हूँ।
जब दर्शनी, चकोरी, कौशल्या, सलोन्दरा और 10-12 बादिनों की सजी सजीली बांद टीम घुंघरूओं की रूणझुंड़ाट के बीच अंधेरे हाल में स्टेज पर उतरी। यह आखिरी प्रस्तुति थी। इनके पुरूष साथियों ने गाने और बजाने का जिम्मा थामा था। यह कार्यक्रम इनके अपने साज बाजों के सुरों में ही सधा हुआ था। इस वजह से लोककला की खुशबू और मौलिकता बरकरार थी। अचानक साजिंदों ने देव सुर छेड़े और हल्की लाईट के बीच घुंघरूओं की ऽनऽनाहट के बीच दर्शनी और टीम हवा में थिरकती और तैरती सी नजर आईं। आह! क्या पल थे वह- एक अजीब मादकता और दैवीय संगीत की खनखनाहट मानो चारों ओर झर रही थी। साजिंदों के स्वर फूटे-सरग डालि बिजुलि, पयाल डाली कूल। महादेव संग गौरा नाचे, कमल जसू फूल।इन पंक्तियों पर हवा में तैरती लोक गाथिनों के घुंघरूओं की खनखनाहट के साथ पूरे हाल में सन्नाटा छा गया। यह देव नृत्य अपने 15 मिनट के तय वक्त से ज्यादा आधे घंटे चला।
पता नहीं क्या था उस मोहक गीत-संगीत और नृत्य में कि ना गाने वालों को, ना नाचने वालों को और ना आयोजकों को ही वक्त की सुध रही। इस बादी टोली ने तो सबको अपने मोहपाश में बांध लिया था। मैं औरों का तो नहीं जानती पर मेरे को तो ऐसे लगा मानो साक्षात महादेव और गौरा उस हाल में पूरी भव्यता, दिव्यता, मादकता और सुरम्यता के साथ इन लोक परियों और साजिंदों के गायन और नृत्य में उतर आये हैं। आज भी लिखते वत्तफ मैं हवा में थिरकती दर्शनी एण्ड टीम और साजिंदों की उस बोली के रहस्य और रोमांच में पूरी तरह डूबती जा रही हूँ। जिंदगी में ऐसे दैविक रोमांच के मौके बार-बार लपके और लूटे नहीं जाते? ऐसा ही मौका मेरे हाथ लगा था- सन् 2010 में जब गुजरात की एक टीम ने देहरादून ओएनजीसी हाल में मेरे एक वेदांती गुरू स्वामी विदितात्मानंद जी के निर्देशन में तैयार ‘आदि शंकराचार्य नृत्य नाटिका’ का तीन घंटे का जीवंत मंचन किया था। स्वामी जी मेरा बाद तक मजाक बनाते रहे कि- कुसुम तो बेहोश ही हो गई थी पर मैं बेहोश तो नहीं थी। लेकिन हाँ मैंने उस ब्रह्मांड नायक की दैविक ऊर्जा को सचमुच वहाँ महसूस किया था जिसे उस सृजनहार ने वहाँ बिखेरा था। आदि शंकराचार्य की जीवंत ऊर्जा की खुशबू वहाँ पसरी हुई थी।
खैर…। इस लोक संध्या का जीवंत अहसास मेरे दिलोदिमाग में कैद ही रहा। पर गन्धर्वो की यह अदभुत अनोखी टोली जिसमें बजुर्ग चकोरी देवी से लेकर कच्ची उम्र की सलोन्दरा महादेव और गौरा की साक्षात अनुभूति मुझे अनुभूत करा मेरे दिलोदिमाग में हमेशा-हमेशा के लिए रच-बस गये। वत्तफ बीता, पिफर से इन्हीं लोक कलाकारों की एक टोली ने साहित्य अकादमी दिल्ली में साथी संस्था के साथ लोक उत्सव में मार्च 2017 में अपनी प्रस्तुति दी। यह थोड़ी आज के जमाने के हिसाब से थी। मैं उसकी गवाह तो नहीं थी पर उसकी रिकार्डिंग मैंने 26 जनवरी 2017 को देखी। उसमें ‘बिंदुली गीत’ पर थिरकती दर्शनी, चकोरी, सलोन्दरा और उनकी टीम ने मुझे मेरे बचपन के परीलोक में पहुँचा दिया- जहाँ मेरी माँ हमारे चैक में इन लोगों के साथ इनके गीत गुनगुनाती थी। आज ‘माँ’ तो नहीं है पर वो कई रूपों में मेरी गहरी यादों में रची बसी है। ये बादी लोग भी उसका कभी ना भूलने वाला एक मीठा अहसास है।
मैंने बिंदुली गीत में नौजवान पीढ़ी को मस्ती में गाते बजाते देखा। दर्शनी के एक ही जगह पर थिरकते घुंघरू और मोहक अदाएं मुझे पिफर से महादेव की स्तुति में डूबी दर्शनी की याद में ले गये। कोई सोच भी नहीं सकता कि यह वही दर्शनी है? इनमें एक नया चेहरा था-गंगेश्वरी का। उसकी कहानी भी बड़ी विचित्रा है- वो अपने पति से उम्र में काफी छोटी है। गंगेश्वरी के पति बड़े सौम्य, शालीन और संजीदे साजिंदे हैं। उनकी हुड़के के साथ अद्भुत गंगा आरती मैंने सुनी। गंगेश्वरी ने पहले ना कभी स्टेज या निजी जीवन में गाया। मंच पर ऐसे पहली बार थिरकने वाली चार बच्चों की माँ गंगेश्वरी की थिरकन अपने ही तरह की ताजगी लिये थी। उसके नृृत्य में एक नई नवेली दुल्हन का सा कुंवारापन और सलोनापन था। एक ओर सलोन्दरा की फुरक्याले घाघरे की चखल-पखल, बुजुर्ग चकोरी देवी की सौम्यता और शालीनता के बीच बिंदुली गीत पर चकोरी का थिरकना…। ऐसे में बस आप चुप हो जाते हो- उस सृजनहार और पालनहार के इस अनोखे रूप को निहार कर। वही ब्रह्मांड नायक ही तो झांकता है, वही तो अठखेलियाँ करता है, वही तो लुकाछिपी करता है, वही तो निहारता है, वही तो गुनगुनाता है, वही तो मुस्कराता है अपने पूर्णत्व के साथ इन गन्धर्वो के साज-बाजों- घुंघरूओं और मोहक अदाओं में! बिंदुली गीत ने मेरे मन को ऐसा मोहा कि मैं बादियों के साथ अपने सपफर का ये संस्मरण-बिंदुली नाम से लिखने से खुद को ना रोक सकी।
देवाधिदेव भगवान महादेव के इन वंशजों और उनकी सामवेदी गायन और नृत्य कला के इन अद्भुत वाहकों और संरक्षकों को मुझे बार-बार मेरी माँ की यादों में ले जाने और उस परमप्रभु की शांत अनुभूति कराने वास्ते मेरा बारम्बार प्रणाम! वो मेरी माँ ही थी जिसने इस महान लोक गायन और नृत्य शैली के दैवीय स्वरों से मेरा नाता जोड़ा।बादियों के साथ मेरा ये रोमांचक सफर मुझे तो ‘कुछ खास’ अनुभूत करा गया, पर साथ ही गहरी पीड़ा भी दे गया कि आखिर हमने क्या सार्थक प्रयास किये इस लोक कला को बचाने हेतु…? इस बीच मैंने सुना कि नवम्बर 2013 में राधाखण्डी की गायिका बचनदेई और 18 ताली नौबत परम्परा के ढोल वादक मोलू राम ने अक्टूबर 2011 को सही इलाज के अभाव में आखिरी सांस ली। इसी साल शिवचरण की बीमारी की खबर भी अखबार में पड़ी थी। आज बेडा जाति के लोक कलाकार घोर उपेक्षा के शिकार हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि इस अनमोल हिमालयी गंधर्व संस्कृति का भविष्य क्या होगा? क्या इस काम हेतु कोई बड़ा घराना या सरकार सामने आएगी?
लेखिका समाजसेवी व हिमालयी अध्येता है.