लोक ज्ञान विज्ञान है
महावीर सिंह जगवान
बात लगभग 1987 के आस पास की होगी हम पाँचवीं के विद्यार्थी थे।
छुट्टी ही हो रही होगी एक नईं दुल्हन अपने बृद्ध दादा जी के साथ ससुराल जा रही थी। वृद्ध की पीठ पर सुन्दर छोटी कण्डी और उसमे से टपकती कुछ बूँदे, जैसे ही बृद्ध ब्यक्ति ने हमे देखा बुला इधर आवो और थोड़ी दूर पर अपनी कण्डी को विश्राम दिया हम लगभग बारह पन्द्रह बच्चे उत्साहित और पैनी निगाहों से बृद्ध दादा जी और उनकी कण्डी देख रहे थे। उसमे मालू के पत्तों से ढका दूध मे खिटाया प्रसाद भरा हुआ था जो घीं मे अच्छी तरह पका था। जो बूँदे टपक रही थी वो घीं की ही थी। हम सभी को दोनो हाथ धोकर आवो कहा और दोनो हाथ फैलाने के लिये कहा जितना हमारे हाथ मे आ सकता था उतना दूध मे बना और घीं मे पका प्रसाद देकर बृद्ध दादा सदृश अनजान ब्यक्ति हमारी खुशी को अपनी छोटी आँखो से निहार रहा था और गर्व से मन्द मन्द मुस्करा कर और देने का प्यार भरा मातृ शदृश इशारा कर रहा था। उसके साथ उनकी नातिन मुस्करा रही थी। यह लम्हा सदा सदा के लिये स्मृति पटल पर अपना विशेष स्थान बना चुका था। आज जब भी वह बड़ा पत्थर दिखता है बचपन की याँदे और वृद्ध दादा का अनजान होकर भी अपनत्व और स्नैह सदा याद आता है। नमन उस पुण्य आत्मा को जिसमे मानवीय संवेदनायें और बच्चों के लिये स्नैह कूट कूट कर भरी थी। आज तीन दशक बाद सम्पन्नता की चकाचौंध मे भले ही रंगीन मिठाइयों के कलेऊ का आदान प्रदान बढा हो लेकिन तीन दशक पहले हम अभाव के वावजूद सम्मपन्न थे आज उस कण्डी भर कलेऊ की कीमत तीन चार हजार रूपये से कतई कम नही जब कि बाजार मे आज पाँच दस किलो हजार पन्द्रह सौ रूपये मे मिलता। भारत मे उपलब्थ दुग्ध मे पैंतालीस फीसदी ही शुद्ध और ताजा दूध उपलब्ध है, तीस फीसदी दुग्ध का बड़ा भाग यूरोपीय और भारतीय दुग्ध का पाउडर के रूप मे उपलब्ध है (भारत मे दुग्ध पाउडर खपत का साठ फीसदी आयात होता है जिसके बड़े सप्लायर यूरोपीय देश हैं)। पच्चीस फीसदी दुग्ध बाजार पर नकली दूध का कब्जा है। स्पष्ट है बाजार मे उपलब्ध कलेऊ (मिठाइयों) पर गुणवत्ता की गारण्टी नगण्य है। उत्तराखण्ड के परिदृष्य मे गुणवत्ता मापन विभाग लाइसेन्स बेचता है और हफ्तों की वसूली का बड़ा मकड़जाल है।
तीन दशक पहले के संन्दर्भ से तात्पर्य था क्या आज भी हम उन सम्भावनाऔं को तलाश सकते हैं जिनमे स्थानीय उत्पादों के विभिन्न अनाज, फल, कन्द, जड़ी बूटी को स्थानीय कलेऊ का रूप देकर अपने रिस्ते नाते रिश्ते दोस्ती पर्व और स्वयं के उपयोग मे अंगीकार तो दो अरब रूपये का बाजार स्थानीय उत्पादों को मिल जायेगा। जैसे हमारे यहाँ माल्टा तो बहुत होता है उसके फ्रैस फुट के रूप मे या जूस के रूप मे अपने रिश्ते नाते मे उपयोग और विक्री कर सकता है। मंडवा, झगोंरा, कोणी, काली दाल, ब्राह्मी, गिलोय, सतावर जो भी जिस क्षेत्र की बहुतायत यादगार है इसका आदान प्रदान पर ही दो अरब से अधिक का बाजार मिल जायेगा जो अपने ही लोगों को नियमित चैन से बारह महीने उपलब्धता बन जाय। हम रंगीन मिठाइयों की जगह पर अपने घर के उत्पादों को बरीयता देंगे तो यह बाजार बढेगा। पूरी दुनिया का चक्र लगाकर यह स्पष्ट हो जायेगा जो भी जिस भू क्षेत्र की पीढियों से संजोई गुणकारी और परंपरागत फसल है वह सभी अपने उत्पादों को परिस्कृत और जैविक स्वरूप मे विश्व मे परोस रहे हैं, उस भू क्षेत्र के लोंगो के बीच यह सब पसंदीदा तो है ही बल्कि इन उत्पादों की गुणवत्ता और स्वाद के कारण इनका ग्लोबल बाजार बन गया है।
हम विभिन्न फसलों की नकल कर अपनी अमिट छाप और ब्राण्ड विकसित नही कर सकते क्यों जो हम विशेष कहकर दुनियाँ को परोसेंगे वह दुनिया के लिये आम होगी। दो अरब के बाजार की बात तो सिर्फ हमारे हिमालय समाज के अपनाने पर ही मिल जायेगा। हम अपने सात दिन के मीनू मे एक दिन अपने तीनो टाइम के मीनू मे सैट कर दें। रिश्ते नाते और शादी पार्टी मे भी इनको प्रोत्साहित और स्थान दें, हम दुनिया के किसी भी कोने मे रहें यदि हम यह पाँच साल तक कर पाये तो इन उत्पादों का बाजार दो अरब से दो सौ अरब तक हो सकता है। यह निश्चित रूप से नई क्रान्ति का संकेत और संम्भावना हो सकती है।
मै गुजरात के किसी मित्र के घर मे बैठा था उसका पाँव फ्रेक्चर हो रखा था उसके कुछ मित्र आये और ताजे बाजरे के गुच्छे दे गये। मैने उत्सुकता से पूछा यह क्या और इसका क्या उपयोग। कहा। हमारे यहाँ पीढियों से परम्परा है ताजे बाजरे के उपयोग से हड्डी जल्दी जुड़ती है संदर्भ को आप सभी सुधी मित्र समझ रहे होंगे। संघाई मे मेरा भान्जा कहता है गाँव के सभी लोग अपने खेत की जड़ी बूटी प्रयोग करते हैं और पूरी दुनियाँ मे इनकी धाक है। अभी देश के आदरणी प्रधान सेवक ने जापान की भोजन श्रृँखला को भारत मे प्रोत्साहित करने की बात की ताकि भारत मे बढते चाइनीज फूड के प्रचलन के साथ प्रतिस्पर्धा हो आप समझ रहे होंगे कितना महत्व है। हम अपने मूल की फसल, कला, लोकभाषा, संगीत, लोक कला, लोक पकवान, लोक औषधि, लोक मिठाई, लोक संवाद, लोकशिल्प कला, लोक मिठाइयों, लोक तकशीकियों के आधुनीकीकरण से ही अपना विशिष्ट आर्थिक स्थान बना सकते हैं। (लोक से तात्पर्य पारम्परिक स्थानीय) आयें मिलकर इस ओर शसक्त रूप से बढें।
फोटो सौजन्य – रंजना रावत – मंडूवे की बर्फी का अविनव प्रयोग
रंजना रावत लिखती हैं कि नई टिहरी में मंडूवे की बर्फी की जबरदस्त शुरुआत रही, 600 किलो से ज्यादा मंडुआ बर्फी का आर्डर देने के लिए आप सभी दोस्तों व आदरणीय बंधुओं का हार्दिक आभार। स्वाद व सेहत से भरपूर अपने पहाड़ी उत्पाद मंडुआ से बनी हुई. मंडुआ बर्फी अब रूद्रप्रयाग में भी उपलब्ध।
आप अपना आर्डर इस नंबर पर बुक करवा सकते हैं।
+91 96108 23272, +91 95575 43530 Sandeep Saklani
+91 73515 67271 Kailash Chamola