आंदोलनों की किताब
दिव्या झिंकवान
अपने अतीत को जानना, समझना, क्रमोत्तर रूप में खुद की विकास यात्रा को अलग अलग पहलुओं से समझना भी है, शायद यही वजह है कि हम इतिहास की ओर हमेशा आकृष्ट होते हैं। वो कौन सी परिस्थितियां थीं जिन्होंने हमारे वर्तमान को इस तरह का बनाने में अपनी भूमिका दर्ज की है। खासकर लड़ने, संघर्ष करने का जुझारूपना हमारे इतिहास में कब कब प्रकट हुआ है जब जन समूहों ने सम्मिलित रूप से समाज के बेहतर होने के लिए कोई गंभीर लड़ाई लड़ी हो। हमारे जिस उत्तराखंड राज्य की हर दिन की जीवनशैली ही संघर्षों पर टिकी है, इसकी नींव ही आंदोलन पर रखी गई, किस तरह का बर्बर दमन उस वक्त उत्तराखंड ने नहीं देखा, युवाओं का खून बहा, स्त्रियों ने भी अत्याचार सहा, उस उत्तराखंड का एक लंबा संघर्षों का इतिहास निश्चित ही रहा होगा, चाहे आजादी से पहले हो या आजादी के बाद।
अंग्रेजी शासन के खिलाफ हो या राजशाही के, कुली बेगार हो या डोला पालकी, शराब विरोधी हो या चिपको आंदोलन, टिंचरी हो या फलेंडा आंदोलन, सांस्कृतिक, दुधबोली आंदोलन। इनमें से कई आंदोलनों और उनके प्रणेताओं की धमक वैश्विक स्तर पर है। जनपक्षीय लेखकों और प्रबुद्ध पत्रकारों द्वारा लिखे गए लेखों से ये किताब खासी महत्वपूर्ण बन पड़ी है चाहे आप प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करना चाहें या अपने संघर्ष भरे गौरवशाली अतीत पर गौरवान्वित होना चाहें, या किसी भी तरह के प्रतिरोध के लिये ये किताब एक प्रेरणा है, एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसमें तमामतर आंदोलनों को समग्रता से दर्ज करने का प्रयास किया गया है।
इस किताब के प्राक्कथन में ही उत्तराखंड के महत्वपूर्ण इतिहासकार डॉक्टर पाठक और जनसंघर्षों की मशाल मिसाल इंद्रेश भाई द्वारा बेहतरीन टिप्पणियां की गई हैं। निश्चित ही किताब अपने निजी संग्रह के लिए भी उपयुक्त है। मैं भाई को बधाई देना चाहूंगी कि उन्होंने इन उत्तराखंड के तमाम संघर्षों पर आधारित लेखों को संकलित कर किताब के रूप में बांधने का एक बेहतर कार्य किया है और एक ही स्थान पर हमें सारी महत्वपूर्ण जानकारियां मिल जाती हैं।
लेखिका साहित्य अध्येता है