November 21, 2024



फिल्में सिर्फ ‘कला’ नहीं बल्कि ‘भाषा’ होती हैं

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गजेन्द्र रौतेला


अक्सर फिल्में और समाज एक दूसरे को आइना दिखाते हैं। फिल्मों का प्रभाव समाज पर भी होता है तो समाज का फिल्मों पर भी। फिल्में हमारे समाज की बात को बेहद प्रभावी और कलात्मक ढंग से प्रस्तुत भी करती हैं। जब फिल्में समाज के बीच एक विमर्श और संदेश को देने में सफल होती हैं तो ये कला से ज्यादा ‘भाषा’ का काम करती हैं। आज के दौर में कई प्रकार की फिल्में हमारे बीच आ रही हैं। जिनमें ‘short film’ के प्रकार ने बहुत तेजी से अपनी एक बड़ी जगह बनाई है। तकनीक के प्रभाव और तेज गति से बढ़ते जीवन के बीच यह श्रेणी और भी लोकप्रिय हुई है। हालांकि short film बनाने की चुनौती अलग किस्म की है। जिसमें कम समय में कहानी और कथ्य से दर्शक को कनेक्ट करना आसान भी नहीं है। लेकिन यदि किसी कहानी की आत्मा को सही से समझा जाए और निर्देशक उसको बेहद सलीके और खूबसूरती के साथ पर्दे पर उतार ले तो कोई भी फ़िल्म भाषा और देश की सीमाओं को लांघने में सफल हो सकती है।

स्टूडियो UK13 की टीम द्वारा हमारी जनजातीय ‘भोटिया भाषा की लोक कथा’ में बनाई गई शार्ट फ़िल्म ‘पताल ती’ (Holy Water) का चयन ‘Short Film का मक्का’ कहे जाने वाले 39 वें Busan International Short Film Festival (Korea) में दुनियां के 111 देशों से आई 2548 फिल्मों में से world premier के लिए चुने जाने वाली 40 फिल्मों में से 14 वें स्थान पर चुना जाना हम सबको गौरवान्वित करता है। जिसके लिए स्टूडियो UK13 की टीम के प्रमुख सूत्रधार संतोष सिंह रावत की लगभग डेढ़ दशक के सब्र और जुनून को सलाम। बहुत सारे उतार-चढ़ाव और असफलताओं के बाद भी जितनी शिद्दत और एकाग्रता से संतोष और उसके साथी मुकुन्द नारायण ने इस काम अंजाम दिया वाकई में यह उनकी फिल्मों के प्रति दीवानगी को ही प्रदर्शित करता है।


इस सब में एक खास बात यह भी रही कि संतोष ने ठेठ पहाड़ के घर-गांवों से उन युवाओं को एक टीम के रूप में जोड़ा जिनमें कुछ कर गुजरने का सपना भी था और जज़्बा भी लेकिन फिल्मी दुनियां से दूर-दूर तक कहीं कोई वास्ता न था। लेकिन एक टीम के रूप में नई पीढ़ी के इन युवाओं ने हमेशा अपना सर्वोत्तम देने की कोशिश की। इसका ही परिणाम है कि उनकी मेहनत रंग लाई और लगभग एक खामोश निःशब्द सी फ़िल्म ने अंतर्राष्ट्रीय फलक पर अपनी एक अलग पहचान बनाई। फ़िल्म की कथा पहाड़ के ‘जीवन दर्शन’ को दर्शाती हुई अपने अंतिम समय पर दादा द्वारा पोते से कुछ ख्वाहिश रखना और पोते द्वारा उसे पूरा करने की कोशिश और प्रकृति के साथ सहजीवन और संघर्ष इसे और भी मानवीय और संवेदनशील बना देता है। यही वह खास बात है कि जो भाषा और देश की सीमाओं को तोड़कर हमारी संवेदनाओं को झकझोरती है।


पूरी फिल्म में कैमरे का कमाल, प्राकृतिक रोशनी, Landscape और कलाकारों की बिना संवाद के अदाकारी इसे अद्भुत बना देती है। फिल्में सिर्फ मनोरंजन भर के लिए नहीं होती बल्कि वो हमारी कला और संस्कृति को पोषित भी करती हैं और वाहक भी बनती हैं यह इस फिल्म से साफ झलकता है। उत्तराखण्ड जैसे प्राकृतिक सौंदर्य और लोककथाओं से भरपूर राज्य में अगर सही से एक फ़िल्म नीति और माहौल बनाया जाए तो रोजगार के लिए भी यह क्षेत्र सहायक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि न तो हमारे युवाओं में प्रतिभा की कमी है और न ही जुनून की अगर कुछ रह जाता है तो वह है सही मार्गदर्शन, नीतियां और प्रोत्साहन की कमी। यदि इस दिशा में सरकारें कुछ नया सोचें तो फ़िल्म निर्माण का एक हब बन सकता है उत्तराखण्ड। फिलहाल स्टूडियो UK13 की पूरी टीम को इस शानदार उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत बधाई।

लेखक पर्वतीय अध्येता व समीक्षक हैं