राजुला (फिल्म समीक्षा)
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
राजुला उत्तराखण्ड के इतिहास की एक ऐसी नायिका है जैसे इतिहास में मृगनयनी, आम्रपाली, शकुन्तला, मुमताज व देश से बाहर क्लेयोपेट्रा जैसी प्रेम की महान नायिकाओं में शुमार है। पहाड़ की ऐसी ही एक नायिका का नाम है राजुला।
राजुला के नाम से पहाड़ों की कन्दराओं में पली बड़ी, नदियों, झरनों में नहाती, जोहार के बुग्यालों में भेड़ बकरियों के झुण्डों के पीछे दौड़ती, खिलखिलाती, हंसती, नाचती गाती, अल्हड़, मासूम, नखरे दिखाती, नदी में तैरती, घोड़े पर दौड़ती एक ऐसी अनोखी प्रेम कहानी बन जाती है जिसे लोग इतिहास में दुहराते रहे हैं।
खैर इस बीच बहुत समयान्तराल के बाद उत्तराखण्ड की फिल्मी दुनिया में एक अच्छी फिल्म के रूप में सामने आयी ‘‘राजुला’’ ने क्षेत्रीय फिल्मों के अकाल को तोड़ने की एक अच्छी शुरूआत की है। इसके लिए हिमाद्री प्रोडक्शन की टीम बधाई की पात्र है। फिल्म के तकनीकी पक्ष के साथ-साथ विभिन्न कलाकारों ने अपने-अपने पात्रों के साथ पूरा न्याय किया है। निर्देशक नितिन तिवारी के कुशल नेतृत्व ने बाँधने का भरसक प्रयत्न किया लेकिन फिल्म के दूसरे भाग में फिल्म फिसलने लगी थी। फिल्म के प्रथम भाग में राजुला कहीं दिखी ही नहीं ,दरअसल राजुला फिल्म राजुला के साथ-साथ आधुनिक राजुला के रूप में तीन कहानियों को एक साथ कहने की फिल्म में कोशिशें की गई है। फिल्म के ट्रीटमेण्ट ने कहानी को कहलवाने का प्रयास भी मजबूती से किया पर कहानी इण्टरवल के बाद उलझने लगती है। दर्शक कुछ देर कुछ न समझने वाली स्थिति में आ जातें हैं। कभी यह भी अहसास होता है कि आप किसी हिस्ट्री चैनल पर कोई डॉक्यूमेण्ट्री देख रहे हैं। जब हिन्दी में गाने आते है तो आपको टेलीविजन सीरियल का अहसास भी हो सकता है। फिल्म में 15 मिनट के बाद राजुला अपने ठाट-बाट के साथ प्रकट होती, तो इस फिल्म की वर्तमान सफलता से और बड़ी सफलता हो जाती। राजुला को समझाने-समझने की कोशिश में फिल्म शुरू से ही डॉक्यूमेण्ट्री की स्टाइल में चलती है तीन प्रेमकथाओं को समझाने में निर्देशक भी बहुत जगह फंसते नजर आये। अब दर्शक खुद सोचे की एक फिल्म में तीन प्रेमकथाओं को वो कैसे एक साथ याद कर सकता है। फिल्म में कई जगह दृश्यों से पैकिंग करनी पड़ी जिसमें न राजुला थी न उसके ठाट-बाट, भेड़ बकरियों के झुण्ड, घोड़े, खच्चर, बुग्याल, नदी, झरने, फूल, कुॅमाऊ के सुन्दर घरों को भी फिल्म के प्रोडक्शन डिजाइन में शामिल किया जाता, तो फिल्म और ज्यादा सफल हो पाती। लोकप्रिय कलाकार हेमन्त पाण्डे के अभिनय के सामने अधिकांश नये कलाकार कहीं ढीले पड़े हों ऐसा नहीं लगता। निर्देशक ने इस मायने में कलाकारों से भरपूर मजदूरी करवायी जिसके परिणामतः राजुला समकालीन फिल्मों के लम्बे अकाल के बाद दशकों की तन्द्रा तोड़ती है। इस लिहाज से मैं इसे सफल फिल्म की श्रेणी में रखूंगा। कुछ साथियों की प्रतिक्रिया थी कि हिन्दी गानों के बजाय एक गढ़वाली और एक कुॅमाऊनी गाना डाल देते, तो फिल्म में और रंग जम जाता । फिल्म के अभिनय पक्ष पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दिया गया। इससे प्रोडक्शन डिजाइन में परिकल्पनाओंं को पंख नहीं लगे। कॉस्ट्यूम, मैक-अप, बैकग्राउण्ड खाली सा लगा। फिल्म के ऐतिहासिक पक्ष को थियेटर स्टाइल में फिल्मानें से कहीं-कहीं राजुला को आप थियेटर में देखने लगते है। कॉस्ट्यूम भी नाटकों के से लगे। राजुला के समय को अगर सुन्दर ढंग से डिजाइन किया गया होता तो फिल्म में इतिहास की राजुला याद आ जाती, लेकिन कई बार आधुनिक राजुला, पुरानी राजुला की कहानी को भुला देती है। तभी बीच की राजुला की कहानी फिल्म में घुस पड़ती है। यहीं से कन्फ्यूजन शुरू हो जाता है। फिल्म में काफी वैरायटी है बहुत फीचर भी है, लेकिन सही बुनावट, तारतम्यता व समन्वयन न होने से राजुला की स्वेटर जगह-जगह से उधड़ी हुई सी लगती है। निमार्ता के सीमित संसाधनों ने सम्भवतया राजुला के प्रोडक्शन डिजाइन को ढीला छोड़ दिया, जबकि सही रणनीति बनती तो फिल्म की वर्तमान लागत पर ही उसकी कमी भी पूरी हो जाती। इसमें सिर्फ लोकेशन के डायरेक्टर व अन्य टीमों को अच्छा होमवर्क करना चहिये था। फिल्म बनाने की जल्दबाजी में राजुला की टीम लोकेशन नहीं ढूंढ पायी। सही लोकेशन से प्रोडक्शन का खर्चा शून्य होता। राजुला बनाने वाली टीम मूलतः थियेटर से जुड़ी होने के कारण फिल्म में भी काफी जगह नाटकों को देखने का अहसास होता है। टीम थियेटर को भी फिल्मों में ले आयी। इसमें राजुला फीचर फिल्म बनते-बनते रह गई। फिल्म के विश्लेषण से यही निकलता है कि सबकुछ समझने कहने के चक्कर में फिल्म स्क्रिप्ट भी उलझ गई, राजुला एक सीधी सपाट व सरल स्क्रिप्ट है अगर इसमें दो और कहानियों को समानान्तर जोड़ने की कोशिश की भी गई थी तो उनकी सरलता बनाये रखने की जरूरत थी। तीनों कहानियों की ओवरलेपिंग ने फिल्म की मूल आत्मा के साथ न्याय नहीं किया। फिर भी तमाम अच्छाईयों-बुराईयों के बावजूद बहुत समय बाद एक अच्छी व तकनीकी रूप से मजबूत फिल्म है राजुला। जिसे देखने से आप निराश भी नहीं होंगे।
फिल्म- राजुला
परिकल्पना- मनोज चन्दोला
निर्माता- रमा उप्रेती, प्रियंका चन्दोला
निर्देशक- नितिन तिवारी
कलाकार- करण शर्मा, आशिमा पाण्डे, हेमन्त पाण्डे, अनिल घिल्डियाल
बैनर- हिमाद्री प्रोडक्शन