बचपन-बारात और बाराती-04
डॉ अरुण कुकसाल
गधेरे को पार करने के लिए बड़े-बड़े पत्थरों और उनके बीच फंसाये गए साबुत पेड़ों से बना पुल हमारे लिए अजूबा था। गधेरे के भयंकर स्यूसांट (एकसार शोर) ने हमारे डर को और बड़ा दिया था। गधेरा पार करते ही जो तड़तड़ी उकाल (तीखी चढ़ाई) शुरू हुई उसने हमारे बारात में आने के रोमांच को रोने में तब्दील ही कर दिया समझो। अधिकांश बाराती बंद छाते में झोले को फंसा कर उसको अपने कंधों में लटका कर चल रहे थे। शाम का झुरमुट अंधेरा होने को था। ‘बाघ भि रैंदिन यख, ऊंक गदन म पाणि पीणों कु वगत भि ई च। यूं बच्चैं तै बीच म संभालों रै। (बाघ भी रहता है इधर, उनका गधेरे में पानी पीने का समय भी यही है। इसलिए, बच्चों को बीच में सभाल कर चलाओ।’’ किसी सयाने ने जब यह कहा तो हम सबको एक साथ हिर्र (घबराहट) होने लगी।
बारात के गांव पहुंचने तक अंधेरा हो चला था। हम सब बच्चे अपने-अपने अभिभावकों की हाथों की मज़बूत ज़कड में थे। हमें मालूम था कि यहां भी वही सुबह से चल रहा किस्सा दीदी-फूफू को मिलते हुए भुक्की वाला सीन फिर होगा। ऐसा हुआ भी पर अब हम अभ्यस्त हो गए थे। यह जाड़ों की बारात थी। और, पहाड़ की एकदम धार में बसा वो गांव ठंड और फरफरी हवा के लिए जाना जाता था। तब बारातियों के लिए रात को सोने के लिए लड़की वालों को कोई विशेष इंतजाम कर पाना संभव नहीं हो पाता था। जनवासे में ही अधिकांश बाराती नाच-गाना, स्वांग और नाटक करके रात गुजारते थे।
चामी गांव के कलाकार तब चौंदकोट में भी मशहूर थे। बारात में दिन भर चलने के बाद भी उनमें अपनी कला को दिखाने का भरपूर जोश था। कलाकारों की कला प्रदर्शन होने में अभी वक्त था। लेकिन, ढोलक और हारमोनियम की संगत का प्रारम्भिक अभ्यास होने लगा था। दिन-भर के थके हम बच्चे नींद में यहां-वहां अपने अभिभावकों के आस-पास लुड़के हुए थे। पर रात का नाच-गाना देखने की भी प्रबल इच्छा थी। इसलिए, हमारी नींद और इच्छा में आपसी जोर-अजमाइश जारी थी। जनवासे में सब अपने साथ लाये गरम कम्बल-पंखी में दुबके थे। बारात में दिल्ली से आया रंगीन चैक वाली पतली कमीज पहने हमसे बडा लडका जो दिन भर अपनी आंखों में धूप-छांव का चश्मा लगाये हुए था, ठंड से ठिठुरता नज़र आ रहा था। गरम कपडे उसने पहने नहीं थे। तब किसी सयाने ने उससे चुस्की लेते हुए कहा ‘ब्यट्या, अपणु चश्म पैण ल्यै। कुछ त जड्डू रुकुलू (बेटा, अपना चश्मा ही पहन ले कुछ तो जाड़ा कम लगेगा।)’ सभी बाराती मुस्कराये पर उसकी समझ में नहीं आया।
सुबह बड़े-बुजुर्गों को आपस में जोर-जोर से बात करते हुए सुना तभी नींद खुल पाई। हमारी ज्यादा समझ में तो नहीं आया पर लगा कि दिन का दाल-भात कौन पकायेगा इस पर बहस हो रही है। सर्यूला (बारात का खाने बनाने वाला) साथ न लाने के वजह से खाने बनाने की समस्या आ गई थी। हमें मालूम था कि गांव के कई लोग एक दूसरे का बनाया भात नहीं खाते हैं। परन्तु क्यों नहीं खाते हैं, ये मालूम नहीं था। आखिकार यह तय हुआ कि जिन लोगों को सबके साथ खाने में आपत्ति है वो अपना दाल-भात स्वयं अलग से बना लें। इस तरह तीन जगह बारात का खाना बनना शुरू हुआ।हम तीनों जगह जाकर देखते कहां क्या बन रहा है। बचपन में जातीय विभेद और तथाकथित श्रेष्ठता का यह प्रदर्शन हमें दिख तो रहा था। पर ऐसा क्यों हो रहा है? यह हमारी समझ और जिज्ञासा से दूर की बात थी।……जारी है
डॉ. अरुण कुकसाल चर्चित लेखक व घुमक्कड़ हैं