बचपन-बारात और बाराती – 03
डॉ अरुण कुकसाल
बारात अब धार ही धार ढलान की ओर बढ़ रही थी। दिन भी ढलता हुआ अब शाम में तब्दील हो गया था। सुबह से ऊबड़-खाबड़ रास्तों की उतराई-चढ़ाई से हम बच्चों के घुटने खच-पचा गए थे। बारात में आने का उत्साह अब पस्त हो गया था।नजदीकी गांव के जानवर दिन-भर जंगल में चरते हुए भरे पेट ढमढ़में (मोटे) होकर वापस अपने डेरों की ओर हमारे साथ ही चल रहे थे। संकरे रास्ते में चलते हुए बारातियों और जानवरों का आपस में अनजान होने से चलते-चलते एक-दूसरे से बिदकना लाजिमी था। एक दूसरे से, डर उनको भी था और हमको भी। रास्ते के किनारे के अनजान गांव-घरों के लोगों की एकटकी घूरती नज़रों से गुजरना हमें असज कर रहा था। इन गावों की जिन महिलाओं का मायका हमारे इलाके की तरफ़ रहा होगा वो बारात में अपने भाई-बधों और परिचितों को देखने की उत्सुक नज़रों से देख रही थी। ‘हे! रामदा, छुवट्या-छुवट्या बच्चा भी अयां छन बरात म’ (हे! राम छोटे-छोटे बच्चे भी आये हैं, बारात में।) बारात के शुरुआती रास्ते से हर गांव की महिलाओं की आश्चर्य भाव की ये बात सुनते – सुनते हमारे कान पक गए थे।
उस समय बच्चों का बारात में ले जाना अच्छा नहीं समझा जाता होगा। क्यों जो आये होंगे बारात में ? यह हम आपस में कई बार कह चुके थे। बारात में आने का उत्साह अब अपराध-बोध की हीनता में तब्दील हो रहा था।सामने की पहाड़ी पर स्थित अब वो गांव साफ दिखने लगा था जहां हमारी बारात को पहुंचना था। वहां से ढोल-दमाऊ (बाजे) की आती आवाज ने हमें यह हौसला दिया कि अब पहुंच ही गए समझो। डूबते हुए सूरज की सुनहरी चमक में दुल्हन का गांव चंद्रहार जैसा सुंदर दिख रहा था। पर हमें उसकी सुंदरता से अधिक उस तक पहुंचने का तीखी चढ़ाई का रास्ता मुहं चिढ़ा रहा था। हमको आभास हो गया कि अभी काफी नीचे उतर कर गधेरा पार करके खड़ी चढ़ाई हमारा इंतजार कर रही है। ‘बस अब त एक लतडाग च ब्यौलि गौं’(दुल्हन का गांव अब बस कुछ ही कदम दूर है।) सयाने यह कह कर हमको दिलासा दे रहे थे। पर साथ ही उनके ‘और आते हो बारात में’ व्यंग-बाण हमें परेशान भी कर रहे थे।हम जिस गांव के पास से गुजर रहे थे वह अधिकांश बारातियों का रिश्तेदारी का गांव था। लिहाजा, मेल-मुलाकात करते हुए लगभग हर घर के चौक पर बारातियों की आवा-जाही होनी स्वाभाविक थी।
बारातियों के छतरे-झोला और लाठी भी आराम की मुद्रा में जहां-तहां नज़र आ रहे थे। इस माहौल में सयानों का हंसी-मजाक भी जारी था। परन्तु, जिस घर के चौक में हम बैठे थे, वहां तो कई महिलायें बारात में आये अपने भाई-बंधों से मुलाकात करती हुई रोते-रोते सुबक ही रही थी। उन सब दीदी-फूफुओं का हमारी भुक्की (हाथ से बारी-बारी से पुच्च-पुच्च बोलते हुए बडों का बच्चों के मुंह-नाक-गाल पर चुम्बन लेना) लेने का सिलसिला फिर शुरु हो गया।हम बच्चे सोच रहे, हे! भगवान फिर फंसे, इस गिजगिजी से कब छुटकारा मिलेगा? क्याजी करें ? उस समय हमें अपने और अनजान दीदी-फूफू की आपसी तालमेल वाली नाक से आती सिण-सिण ही सुनाई दे रही थी। जिस घर के चौक में हम बच्चे बैठे थे वहीं नजदीकी गांव से भी कुछ और दीदी – फूफू अपने मुल्कियों से मिलने आयी थी। उन्हें अपने गांव जल्दी जाना भी था। क्योंकि, घर में शाम के घनघोर काम उनके इंतजार में होगें। परन्तु यहां अपनों से मिलने की खुशी को छोडकर वापस घर जाना उन्हें और भी असज कर रहा था। वे बार-बार हम सब बच्चों की मुंडी बारी-बारी से मलाशती।
भावनाओं का उद्वेग वो रोक नहीं पाती और अपने से हमको चिपटा लेती। हम बच्चे ठहरे, रुवांसी सूरत हमारी भी हो गई। काफी समय तक चले उस भाव-विभोर वातावरण से उभारने में सामने आये गरम पकौंडों की थाल ने हम बच्चों की बड़ी मदद की थी। हम कनखियों से मुस्कराते हुए देख रहे थे कि किसने कितने पकौडे खा लिए, कितने हाथ में और कितने कीसे (जेब) में ठूंसे हैं।लम्बे आराम के बाद बारात आगे अब गधेरे की ओर चलने लगी। हमारी अनजानी सभी दीदी-फूफू दूर तक बारात को जाते हुए देखती जा रही थी। मायके की याद और उसका मोह उन्हें हमसे अलग नहीं कर पा रहा था।ढोल बजाने वाले मामाजी ने बताया कि लड़की वाले बता रहे हैं कि गधेरे पार करने वाला कच्चा पुल कमजोर है, इसलिए सावधानी और एक समय में कम ही लोग उसे पार करें।लिहाजा, सारी बारात गधेरे के इस किनारे पसर सी गई। गधेरे के पुल का जायज़ा लेने कुछ सयाने आगे चले गए।
हमें अचरज हो रहा था कि कैसे दूर के बाजों की आवाज से दुल्हन के गांव से संदेश यहां मामाजी तक पहुंचाये जा रहे हैं।तब उन ढ़ोल वाले मामाजी ने बताया कि जैसे तुम स्कूल में पढ़ाई करते हो वैसे ही ढ़ोल विद्या होती है, जिसे उन्होने बड़े-बुजुर्गों से अपने घर पर ही बचपन से सीखा है। ‘भणजा, चढ़ै, लदां, उतार, सीध्धा, बौंण, गौं, धार, गदन अर और भि जगौं म बजण वल्या ढ़ोल की थाप का बोल अलग-अलग हौंन्दी। दूर बटि ऊंथैं सुणण वाल्या समझ जांदिन कि बाजा कख बजणा और क्य ब्वना छिन (भानजे, चढ़ाई, हल्की चढ़ाई, उतार, समतल, जंगल, गांव, धार, गधेरे और अन्य जगह पर बजने वाले ढ़ोल की थापों के संदेश अलग-अलग होते हैं। दूर से उनको सुनने वाले समझ जाते हैं कि ढ़ोल किस जगह और क्या बोल रहे हैं)।’’ जब तक गधेरे का पुल का जायजा लेने वाले लौट कर आते उन्होने ढ़ोल विद्या के बारे में बहुत सी बातें और किस्से सुनाये।गधेरे को पार करते हुए बड़े-बड़े पत्थरों और उनके बीच फंसाये गए साबुत पेड़ों से बना पुल हमारे लिए अजूबा और डरावना था। गधेरे में बहते पानी के भयंकर स्यूसांट (एकसार शोर) ने हमारे डर को और बड़ा दिया था।………..जारी है
डॉ अरुण कुकसाल चर्चित लेखक व घुमक्कड़ हैं