भाजपा की अधूरी ‘दृष्टि’ पर कांग्रेस की ‘भारी’ प्रतिज्ञा
योगेश भट्ट
घोषणा पत्र, आम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों की एक अहम रस्म। घोषणा पत्र को राजनैतिक दलों का ऐसा शपथ पत्र भी कहा जा सकता है, जिससे आम चुनाव में जनता का भरोसा जीतने की कोशिश की जाती है। अवधारणा तो संभवतः यह रही होगी कि अपने चुनाव घोषणा पत्र के जरिए राजनैतिक दल व्यवस्था के प्रति अपनी राजनैतिक सोच, प्राथमिकताएं और कार्ययोजना आमजन तक पहुंचायेंगे। मगर बदलते वक्त के साथ राजनैतिक घोषणा पत्रों के मायने भी बदल चुके हैं। अब सियासी दलों में अपना घोषणा पत्र समय पर मतदाता तक पहुंचाने की होड़ भी नहीं रहती, नतीजा चुनाव के अंतिम दिनों में चुनावी घोषणा पत्र औपचारिकता के तौर पर जारी किए जाते हैं। घोषणा पत्रों में आम मतदाता की दिलचस्पी भी सिर्फ यह जानने की है कि कौन सा दल क्या मुफ्त देने का वादा कर रहा है।
दरअसल चुनाव जनता के मुददों या नेतृत्व के सवाल का तो है ही नहीं। चुनाव तो धर्म, वर्ग, जाति, संप्रदाय और क्षेत्र के नाम पर धु्रवीकरण का होकर रह गया है। जहां तक चुनावी वायदों का सवाल है तो कोई बिजली फ्री देने के वायदे के साथ मैदान में है तो कोई गैस के सिलेंडर । कोई महिलाओं के खाते में हर महीने निश्चित राशि देने की बात कर रहा है तो कोई युवाओं को बेरोजगारी भत्ता। खैर औपचारिकता ही सही उत्तराखंड के आम चुनाव में मुख्य मुकाबले वाली भाजपा और कांग्रेस अपने चुनावी घोषणा पत्र जारी कर चुकी है। कांग्रेस ने इसे ‘प्रतिज्ञा’ पत्र कहा है तो भाजपा ने इसे ‘दृष्टि’ पत्र का नाम दिया है। कांग्रेस ने अपने प्रतिज्ञा पत्र में हर विषय और वर्ग को स्थान देते हुए को भावनात्मक स्पर्श के साथ व्यापकता दी है , तो भाजपा ने तमाम अहम मुददों से बचते हुए उसे अवस्थापना विकास और एक वर्ग विशेष के मतदाताओं तक सीमित करने की कोशिश की है। कांग्रेस के प्रतिज्ञा पत्र की व्यवहारिकता पर संदेह है तो ‘ किया है, करती है, करेगी सिर्फ भाजपा’ की कसौटी पर भाजपा का दृष्टि पत्र अधूरा है।
सियासत के आइने में घोषणा पत्रों को देखा जाए तो कांग्रेस का प्रतिज्ञा पत्र भाजपा के दृष्टि पत्र पर भारी पड़ा है। कांग्रेस ने सत्तर पेज के अपने प्रतिज्ञा पत्र को उत्तराखंडी स्वाभिमान का नाम दिया है। इस शीर्षक से कांग्रेस ने एक आदर्श राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत करने की कोशिश की है, लेकिन पांच साल की सरकार के लिए यह व्यवहारिक नहीं जान पड़ता है। प्रतिज्ञा पत्र के बहाने कांग्रेस ने राज्य के संवेदनशील मसलों को तो छूआ है, लेकिन सरकार में आने वह उन पर कायम रह पाएगी इस पर संदेह है। कांग्रेस ने प्रतिज्ञा पत्र की भूमिका में राज्य पर सत्तर हजार करोड़ के कर्ज का जिक्र किया है। यह सही है कि राज्य पर सत्तर हजार करोड़ का कर्ज हो चुका है, मगर समस्या कर्ज नहीं बल्कि कर्ज लेकर घी पीने की प्रवृति है। प्रतिज्ञा घी पीने की प्रवृति पर रोक लगाने के लिए जरूरी है , जिस पर कोई बात पूरे प्रतिज्ञा पत्र में नहीं है। समस्या सालों से कर्ज की रकम का सही इस्तेमाल न होने और संसाधानों के लूट से है। जो अंतरिम सरकार और कांग्रेस की पहली निर्वाचित सरकार के दौर से चली आ रही है।कांग्रेस राज्य की जर्जर स्थिति के लिए भाजपा पर सवाल उठाती है, मगर कटघरे मे तो कांग्रेस खुद भी है।
प्रतिज्ञा पत्र निसंदेह लोकलुभावन और जनपक्षीय है मगर इसे तैयार करते वक्त संभवतः कांग्रेस यह भूल गयी कि निर्वाचित सरकारों के बीस साल के कार्यकाल में दस साल का कार्यकाल कांग्रेस का भी रहा है। सवाल यह है कि राज्य की मजबूत नींव रखने, संसाधनों का संवर्धन करने और सुशासन स्थापित करने की पहली जिम्मेदारी कांग्रेस को ही मिली लेकिन आज उत्तराखंडियत की बात करने वाली कांग्रेस ने तब क्या किया ? सच्चाई यह है कि अगर आज प्रदेश व्यवस्था से लेकर अर्थव्यवस्था तक बदहाल है तो उसके लिए कांग्रेस भी भाजपा के बराबर की ही जिम्मेदार है। अगर बीस साल से अहम निर्णय टले हुए हैं, सुशासन स्थापित नहीं हुआ है, भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हुई हैं, नौकरशाही निरंकुश हुई है, सिस्टम में अराजकता बढ़ी है तो अकेले इसका दोष भाजपा को ही नहीं दिया जा सकता। प्रतिज्ञा पत्र 2022 जनपक्षीय है, राज्य से जुड़े लगभग हर अहम सवाल को इसमें छूने की कोशिश की गयी है । निसंदेह यह एक तरह से राज्य की इबारत नये सिरे से लिखने जैसा है। मगर नये सिरे से इबारत लिखने का वायदा करने वाली कांग्रेस तो खुद संदिग्ध है। जो कांग्रेस खुद राज्य की अवधारणा से खिलवाड़ में दस बरस तक शामिल रही हो आखिर उस पर कैसे यकीन किया जाए ? सवाल ईमानदारी का है और व्यवहारिक पक्ष यह भी है एक बड़ी प्रतिज्ञा पत्र से ईमानदारी नदारद है। कांग्रेस ईमानदार होती तो इस प्रतिज्ञा पत्र को भूल सुधार के तौर पर पेश करती, मगर इसके उल्ट कांग्रेस ने इसे राज्य के स्वाभिमान से जोड़कर पेश किया जो तर्कसंगत नहीं है।
बहरहाल, कांग्रेस के प्रतिज्ञा पत्र से एक तो साफ है कि कांग्रेस मर्ज से तो वाकिफ है। यह बात अलग है कि सरकार में आने पर कांग्रेस मर्ज की दवा कर पाती है या नहीं। अपने प्रतिज्ञा पत्र में गांवों से लेकर शहरों तक, बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, मजदूर से लेकर पत्रकार, छोटे व्यापारियों से लेकर बड़े कारोबारियों, कर्मचारियों से लेकर वकीलों, पूर्व सैनिकों से लेकर पुलिस कर्मियों, स्वतंत्रता सैनानियों से राज्य आंदोलनकारियों और महिलाओं से लेकर दिव्यांग किसी भी वर्ग को नहीं छोड़ा। हर किसी को सरकार में आने पर किसी न किसी रूप में लाभान्वित करने वादा किया है। राज्य की आधी आबादी से तो पूरे 51 वायदे किए हैं। जिन उद्योगों, व्यवसायों और संस्थानों में पचास फीसदी महिलाएं होंगी वहां टैक्स और विद्युत दरों में रियायत दी जाएगी। राज्य सरकार के सात विभागों में सभी अधिकारी और कर्मचारी के रूप में सिर्फ महिलाओं की नियुक्ति होगी। पराग फार्म की 200 एकड़ जमीन महिला उद्यमियों के लिए आरक्षित की जाएगी। महिलाओं को प्रति माह गैस सिलैंडर 500 रूपए में दिया जायेगा और पुलिस में 40 फीसदी पद महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाएंगे…आदि।
बीते पांच सालों में हर वह मांग जो राज्य सरकार के लिए सरदर्द बनी रही, उन सभी को कांग्रेस ने पूरा करने का वायदा कर डाला है। इनमें मुख्य रूप से पुलिस कर्मियों को 4600 ग्रेड पे दिया जाना, सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाल करना, राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण, सशक्त भू कानून, तकरीबन बीस हजार उपनलकर्मियों को नियमित करना और लोकायुक्त व्यवस्था लागू करना जैसे मांगे शामिल हैं। तकनीकी तौर पर कई मांगे व्यवहारिक नहीं हैं मगर कांग्रेस ने बिना किंतु परंतु के उन्हें पूरा करने का वायदा किया है। इसी कड़ी में युवाओं से किए गए वायदे भी हैं। प्रदेश में सरकारी नौकरी दिये जाने का औसत सालाना तीन हजार है, कोई भी सरकार इससे ज्यादा सरकारी नियुक्तियां एक साल में नहीं कर पायी है। मगर कांग्रेस का वादा है कि पांच साल में चार लाख रोजगार देगी और सरकार में आने पर पहले साल में ही सरकारी विभागों में कुल रिक्त पदों में 28 हजार रिक्त पदों पर नियुक्तियां कर दी जाएंगी। सरकारी नियुक्तियों और नौकरियों पर लगी रोक को तत्काल हटाया जाएगा। चतुर्थ श्रेणी की भर्तियां फिर से शुरू की जाएंगी और हर साल सरकारी नौकरी में दस फीसदी की वृद्वि की जाएगी। यह भी वायदा है कि तीन साल तक बेरोजगार रहने पर न्याय योजना के तहत बेराजगारी भत्ता दिया जाएगा। प्रत्येक स्नात्कोत्तर छात्र को पांच लाख रूपए का स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड मिलेगा।
इसी के साथ तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियां और प्राथमिक से उच्च प्राथमिक विद्यालयों तक के शिक्षकों का ब्लाक कैडर किया जाएगा। जूनियर से ऊपर वाले अध्यापकों और क्लास टू की नौकरी के लिए जिला कैडर बनाया जाएगा। कांग्रेस आयी तो कई नए आयोग, बोर्ड और परिषदों का गठन भी होगा। ग्राम विकास आयोग, राज्य योजना तथा अनुश्रवण आयोग, भूमि व्यवस्था सुधार आयोग, प्रवासी उत्तराखंडी आयोग, सैनिक कल्याण परिषद, राज्य आंदोलनकारी परिषद, पत्रकार कल्याण बोर्ड इनमें प्रमुख होंगे। व्यवहारिक तौर पर यह कितना संभव है यह तो नहीं कहा जा सकता। मगर कांग्रेस ने वायदा किया है कि पांच साल वह फसलों और सब्जी के उत्पादन से लेकर बाजार की मांग पर आधारित वस्तुओं का उत्पादन दो गुना कर देगी। सत्ता के विकेंद्रीकरण के साथ ही पंचायतों को मिनी सचिवालय की तर्ज पर विकसित करेगी। वन पंचायतों को उनके मूूल स्वरूप के अनुसार स्वायत्ता दी जाएगी।
कंग्रेस के प्रतिज्ञा पत्र की खास बात यह भी है इसमें पूरी तरह हरीश रावत की छाप है। हरीश रावत जिन मुददों को लंबे समय से अपनी फेसबुक वाल पर उठाते रहे हैं, उनमें से अधिकांश को हूबहू इस प्रतिज्ञा पत्र में शामिल किया गया है। खासकर उत्तराखंडियत के सरंक्षण और संवर्धन की बात प्रमुखता से की गयी है। ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के राष्ट्रवाद के दाव पर कांग्रेस ने उत्तराखंडियत का मुद्दा उछाला है। जिस तरह भाजपा का राष्ट्रवाद स्पष्ट नहीं है उसी तरह कांग्रेस का उत्तराखंडियत भी स्पष्ट नहीं है। दिलचस्प यह है कि सत्तर पेज के भारी भरकम प्रतिज्ञा पत्र के बाद कांग्रेस उसे ने ‘चार धाम, चार काम’ नारे के साथ चार लाख युवाओं को रोजगार, पांच लाख परिवारों को सालाना 40 हजार, गैस सिलेंडर नहीं 500 के पार और स्वास्थ्य सुविधाएं हर गांव हर द्वार, पर समेट दिया है।
अब आते हैं भाजपा के घोषणा पत्र यानि दृष्टि पत्र पर। जिसका मुख्य आकर्षण लव जिहाद कानून और राज्य में भूमि पर अवैध कब्जे के कारण हो रहे भू और जनसांख्यिकी परिवर्तन है। भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र में वायदा किया है कि फिर से सरकार में लौटी तो लव जिहाद पर कानून को कड़ा करेगी। जमीनों पर अवैध कब्जों के कारण जनसांख्यिकी परिवर्तन पर अधिकार प्राप्त समिति बनायी जाएगी। निसंदेह यह भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा है लेकिन सवाल यह है कि प्रदेश के लिए यह गंभीर मुद्दा है तो अब तक सरकार कहां सोयी हुई थी ? बीते पांच साल से प्रदेश में भाजपा की सरकार थी, क्यों नहीं सरकार अब तक इस पर एक्शन नहीं ले पायी ? अवैध कब्जे भाजपा की चिंता हैं तो भाजपा ने अपने शासनकाल में जनसांख्यिकी परिवर्तन वाले कब्जे क्यों होने दिए। सच्चाई तो यह है कि जनसांख्यिकी परिवर्तन सिर्फ अवैध कब्जों के कारण नहीं बल्कि जमीनों की खरीद फरोख्त के कारण ज्यादा हुआ है। इस पर रोक के लिए भू कानून अहम हो सकता था लेकिन उस पर भाजपा खुद कटघरे में हैं। दिलचस्प यह है कि जनसांख्यिकी परिवर्तन पर चिंता व्यक्त करने वाले दृष्टि पत्र में भी भाजपा ने भू कानून से पूरी तरह किनारा किया हुआ है।
भाजपा का दृष्टि पत्र कांग्रेस की तरह विस्तार लिए हुए नहीं है, मगर गरीब घरों को साल में तीन एलपीजी सिलेंडर और प्रशिक्षित बेरोजगारों को साल भर तक तीन हजार रूपए, किसानों को दो हजार रूपए प्रतिमाह देने का वायदा भाजपा का भी है। कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा भी सरकार में आते ही 24 हजार नौकरियां देने की बात कर रही है। युवाओं के लिए एक राज्य में एक कौशल प्रमुख नियुक्त करने और 50 घरों पर स्थानीय ग्राम प्रबंधक नियुक्त करने की नयी बात भी भाजपा के दृष्टि पत्र में शामिल है। वोटरों के लिहाज से देखा जाए तो भाजपा की दृष्टि पूर्व सैनिकों और उनके परिवारों पर ज्यादा है। भाजपा ने पूर्व सैनिकों और उनके परिजनों की सुविधाएं बढ़ाने का वायदा है। असंगठित मजदूरों और गरीबों को 6 हजार तक की पेंशन और पांच लाख का बीमा कवर करने की बात प्रमुखता से कही है। भाजपा के सीमित दृष्टि पत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यटन और उद्योग के क्षेत्र में अवस्थापना विकास योजनाओं पर खासा जोर दिया गया है।
दिलचस्प यह है कि बुनियादी ढांचे और अवस्थापना विकास संबंधी जिन योजनाओं को भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र में शामिल किया है, उनमें अधिकांश योजनाएं या स्वीकृत हैं या उन पर काम चल रहा है। कई योजनाएं और संकल्प तो ऐसे भी हैं जो भाजपा पहले में करती आ रही है और उन पर अमल नहीं हो पाया है। यही कारण है कि भाजपा के दृष्टि पत्र पर कांग्रेस सवाल उठा रही है। कांग्रेस ने तो इसे ‘खोदा पहाड़ और निकली चुहिया’ बताते हुए दृष्टिहीन पत्र करार दिया है। कांग्रेस का सवाल तो सियासी ठहराया जा सकता है कि मगर हकीकत यह है कि तमाम वर्ग ऐसे हैं जिन पर भाजपा की दृष्टि नहीं पड़ी है। पत्रकार और राज्य आंदोलनकारियों से भाजपा ने किनारा कर लिया है तो वहीं कर्मचारी, शिक्षक को भी भाजपा ने अपने दृष्टिपत्र में कोई स्थान नहीं दिया। दृष्टि पत्र में दूरदर्शिता का आभाव है। अवस्थापना व ढांचागत विकास की जिन योजनाओं का प्रमुखता से जिक्र किया गया है उनमें से अधिकांश का सीधा संबंध केंद्र सरकार से हैं। कुल मिलाकर भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र में भी केंद्र को ही केंद्र में रखा है, अपने बूते पर नया करने का कोई संकल्प इसमें नहीं लिया गया है।
भाजपा के दृष्टि पत्र पर इसलिए भी सवाल है क्योंकि भाजपा अपने 2017 के चुनावी घोषणा पत्र में तमाम घोषणाएं पूरी कर नही कर पायी। सरकार में आने पर 100 दिन के अंदर लोकायुक्त की घोषणा का वादा 2017 का ही, जिस पर आज तक अमल नहीं हो पाया। शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए पारदर्शी स्थानांतरण अधिनियम भी उसी घोषणा पत्र का हिस्सा था, वह भी पूरे पांच साल ठंडे बस्ते में रखा रहा। इसके अलावा और भी मुददे हैं जिन पर वायदा तो किया गया मगर कदम आगे नहीं बढ़े। उपलब्धियों के नाम पर सरकार के पास गिनाने को आज भी चार धाम सड़क परियोजना और रेल परियोजना के अलावा और कुछ नहीं है। भाजपा ने अपने दृष्टि पत्र को किया है, करती है और करेगी सिर्फ भाजपा में समेट तो दिया है। मगर क्या किया है और क्या करेगी ? इसका उत्तर दृष्टि पत्र में कहीं स्पष्ट नहीं है। ब्हरहाल प्रतिज्ञा पत्र हो या दृष्टि पत्र कोई मायने नहीं है, आम मतदाता तक इन्हें पहुंचना ही नहीं है। यह तो औपचारिकता मात्र हैं, न इन्होंने मतदाता तक पहुंचना है और न ही इनके आधार पर जनमत तैयार होना है। राजनैतिक दल इनके प्रति गंभीर और ईमानदार होते तो पांच साल के लिए पांच प्राथमिकताएं गिनाते, उन पर अमल के लिए कार्य योजना सामने लाते।
राजनैतिक दल यह नहीं समझ रहे हैं कि राज्य को बड़े वायदों की नहीं ईमानदार सोच और भरोसे की जरूरत है। आज नयी योजनाओं की नहीं पहले से चल रही योजनाओं पर सरकारी तंत्र को जवाबदेह और प्रभावी बनाने की जरूरत है। प्रतिज्ञा पत्र हो या दृष्टि पत्र राज्य के संसाधनों को सिर्फ लुटाने की बात है न बचाने की प्रतिज्ञा है न संवारने की दृष्टि। सरकार कैसे ‘असरदार’ बनेगी इसका जिक्र कहीं नहीं है। गांव कैसे स्मार्ट बनेंगे इसकी कोई योजना नहीं है। गैरसैण स्थायी राजधानी के मुददे पर दृष्टि नहीं गयी तो स्पष्ट प्रतिज्ञा भी नहीं ली गयी । हर सरकार निकायों की सीमा का विस्तार करती है, मगर नए जिलों की बात, कमिश्नरी को खत्म करने या मजबूत करने की बात किसी ने नहीं की। प्रशासनिक सुधार और सरकार के निर्णयों में जनसहभागिता की योजनाएं भी किसी ने अपने पत्र में शामिल नहीं किया। पिछली बार सौ दिन में लोकायुक्त देने का वायदा करने वाली भाजपा इस बार लोकायुक्त से कन्नी ही काट गयी। बहरहाल जो दृष्टि पत्र और प्रतिज्ञा पत्र आम जनता तक ही नहीं पहुंचेगे तो उनकी अहमियत क्या होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है ? हकीकत यह है कि चुनाव के बाद पूरे पांच साल यही घोषणा पत्र पार्टी कार्यालयों में रददी के ढेर धूल फांक रहे होगे। रहा सवाल सरकार का तो सरकार किसी घोषणा पत्र के हिसाब से नहीं बल्कि “सरकार” के हिसाब से चलती है। देखना बस इतना होगा कि सरकार ‘दृष्टि’ और ‘प्रतिज्ञा’ की कसौटी पर कितना खरा उतरती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं