खास पट्टी कथा
गणेश चन्द्र ध्यानी
राजा कीर्तिशाह के कार्यकाल मे खास पट्टी के लोगों ने 1906-7 मे एक विद्रोह किया। यह विद्रोह वन संबंधी कष्टों व संकटो को लेकर था। खास पट्टी तीन भागों मे विभक्त थी:- वनगढ पल्ला, वनगढ बिचला व वनगढ वल्या। पट्टी की सीमा पूरब मे कड़ाकोट,पश्चिम मे भागीरथी नदी व पट्टी क्वीली पालकोट, धारअकरिया, भरपूर व उत्तर में पट्टी धारमण्डल, फैगुल, बारज्यूला, अकरी तथा दक्षिण में अलकनन्दा व ब्रिटिश गढ़वाल की सीमा थी। इस पट्टी की मुख्य पहाड़ी चन्द्रबदनी की थी, जिसमें चन्द्रबदनी मन्दिर भी था। राजधानी टिहरी इसी पट्टी की सीमा अंतर्गत होने से इस भू भाग को “खास पट्टी”के नाम से जाना जाता था।
कारण व परिस्थितियाँ – खास पट्टी मे राज्य प्रशासन द्वारा वनों पर लगाये गए नियंत्रण से विद्रोह हुआ। कुंजणी विद्रोह के फलस्वरूप राज्य के वनों के उच्चाधिकारी केशवानन्द को राज्य की सेवा छोड़कर वापस जाना पड़ा था तथा उनके स्थान पर ब्रिटिश सरकार ने सदानन्द गैरोला की सेवाएँ उपलब्ध कराई थी। गैरोला टिहरी गढ़वाल की बडियारगढ पट्टी के मूल निवासी थे। नये कन्जरवेटर गैरोला ने वनों के उचित संरक्षण के लिए उनका सीमांकन तथा वन व्यवस्था का कार्य अपने हाथों मे लिया। राज्य द्वारा उनके साथ मिंया जीतसिंह को वन बंदोबस्त अधिकारी नियुक्त किया गया। गैरोला ने कार्य शुरू करने से पहले ग्रामीणों के लिए कुछ वन संबंधी सुविधाओं की घोषणा की थी,जो मात्र कुंजणी विद्रोह को शिथिल करने मे अधिक सार्थक सिद्ध हुई,किन्तु जब उन्होंने खास पट्टी मे कार्य प्रारंभ किया तो नयी समस्याएँ ग्रामीणों के सामने आने लगी।कन्जरवेटर गैरोला ने वन बंदोबस्त व सीमा निर्धारण हेतु कार्यक्षेत्र खास पट्टी मे चन्द्रबदनी पहाड़ी के अंतर्गत आने वाले भूभाग को चुना। सन्1905-6 मे सीमा निर्धारण के लिए सीमा स्तम्भ (मुनारे) बंदोबस्त क्षेत्र मे बनाए गए तथा वन संरक्षण की दृष्टि से हरे पेड की खरीद पर रोक लगा दी गई। सीमा निर्धारण से वन विभाग एवं काश्त भूमि का स्पष्ट चित्र सामने आया। जिससे ग्रामीणों के हक हकूकों व वनों से प्राप्त सुविधाओं पर अंकुश लग गया था। इस नये प्रतिबंध से ग्रामीणों को कठिनाई होने लगी,परिणामतः वन बंदोबस्त व सीमा निर्धारण के प्रति ग्रामीणों मे प्रतिकूल प्रतिक्रिया होने लगी।
खास पट्टी की घटना – सर्वप्रथम वन संबंधी अंकुशों के विरुद्ध खास पट्टी मे वन व्यवस्था के प्रति ग्राम ढुंगी के भप्पू नामक व्यक्ति ने अपने चार पुत्रों के साथ संघर्ष छेड़ा। खास पट्टी के ग्रामीण उनके नेतृत्व मे संगठित होने लगे। ग्रामीणों के अनेक नेता उभर कर आये, जिनमें देवलकण्डी के रणजीत, लैंगवाणा के जयसिंह, नागगांव के रामचंद्र, आमणी के रामचंद्र और जागधार के बद्री आदि थे। नेताओं ने अपनी समस्याएँ कन्जरवेटर गैरोला को बताई। कन्जरवेटर द्वारा संतोषजनक समाधान न मिलने पर ग्रामीण उत्तेजित हो गए और रामचंद्र नामक व्यक्ति ने कन्जरवेटर की मूंछ और माथा गरम सिक्के से दाग दिया। यह घटना जुराणा धर्मशाला मे हुई थी। खास पट्टी की इस घटना के बारे मे कुछ लोगों का कहना है कि उत्तेजित ग्रामीणों ने कन्जरवेटर को चन्द्रबदनी के नीचे नैखरी मे घेर लिया था। कन्जरवेटर ने ग्रामीणों को समझाने का प्रयास किया लेकिन उन्होंने कन्जरवेटर को पकड़कर गरम तांबे के पैसे से उनका माथा दंशित कर दिया तथा कहा”जाओ “हम अपने जंगलों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाने देंगे। कन्जरवेटर को ग्रामीणों द्वारा बन्दी बना लेने से वन सीमांकन का कार्य बंद हो गया। लेकिन दरबार ने दमनात्मक क्रिया प्रारंभ कर दी। फिर क्या हुआ?पढेंगे आगे.
दरबार की दमनात्मक क्रिया- खास पट्टी मे जब वन व्यवस्था का विरोध तीव्र हो रहा था उसी समय राजा कीर्तिशाह किसी कार्यवश आगरा गए थे। मियाँ हरिसिंह को खास पट्टी मे भेज दिया गया था। मियाँ ने ग्रामीणों को कठोरता से दबाने का प्रयास किया लेकिन ग्रामीणों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। मियाँ को विवश होकर लौटना पड़ा। राज्य प्रशासन ने राजा को आगरा सूचना भेजी कि वन विभाग के उत्तराधिकारी ग्रामीणों द्वारा बंदी बना लिए गए हैं। प्रतिक्रियास्वरूप राजा ने अधिकारियों को खास पट्टी मे सेना भेजने के निर्देश दिए। राज्य की सेना खास पट्टी गई जहाँ 3000 ग्रामीणों द्वारा प्रबल विरोध किया गया। राज्य की सेना जब विद्रोह दबाने मे असफल रही तब राजा ने ब्रिटिश सरकार से सैनिक सहायता माँगी। ब्रिटिश सरकार ने यह कहकर मना कर दिया कि स्थानीय मामलों मे ब्रिटिश सेना भेजना राजा की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल होगा। ब्रिटिश सरकार ने राजा को स्पष्ट संकेत दिया कि वह ग्रामीणों को शक्ति से कुचलने का रास्ता छोड़ दे। अतः राजा ने बजीर हरिकृष्ण रतूडी को ग्रामीणों से समझौता करने के लिए नियुक्त किया। रतूडी ने ग्रामीणों को सिमलासू बुलाकर समझा,बुझाकर शांत कर दिया।लेकिन राजा कीर्तिशाह का रोष आंतरिक रूप से शांत नहीं हुआ तथा वे विद्रोही ग्रामीणों को कड़ी सजा देने के मूड मे आ गए। आगे बेहद रोमांचक कमेंट मे देखेंगे,फिर क्या हुआ? कैसे पड़ी यह कहावत कि खास पट्टी का सुबह नाम नहीं लेना चाहिए।
बजीर हरिकृष्ण रतूडी द्वारा खास पट्टी के ग्रामीणों को शांत करने के पश्चात दरबार से ब्रिटिश सरकार की सलाह पर जाँच समिति बिठाई गई।जाँच के परिणामस्वरूप 16 व्यक्तियों के खिलाफ कन्जरवेटर से दुर्व्यवहार का आरोप लगा,और उन्हें 5 से 7 साल की सजा हुई।अन्य ग्रामीणों से राज्य कर्मचारियों के प्रति उचित व्यवहार करने का अनुबंध लिया गया।दरबार की इस कार्रवाई पर, भ्रमण पर आये राजनैतिक प्रतिनिधि प्रतिनिधि ने पूर्ण समर्थन व संतोष व्यक्त किया,राजा की इस कार्रवाई से पुन: विद्रोह भड़कने की संभावना हो गई परन्तु उनके नेता बंदी हो गए इसलिए नेतृत्व के अभाव मे विद्रोह न हो सका। लेकिन इस विद्रोह से जनसंघर्ष का महत्व इंगित हुआ।दरबार ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए व नये कानून बनाए जो निम्नलिखित हैं:- (1) मिंया हरिसिंह की जगह हरिकृष्ण रतूडी बजीर बनाए गए। (2) कन्जरवेटर सदानन्द गैरोला को राजा द्वारा पूर्ण संरक्षण का वचन देने के बाद भी वे राज्य की सेवाओं को छोड़कर अपने पूर्व पद पर चले गए। (3) राजा ने डेढ़ लाख रुपए खर्च कर सेना की शक्ति बढ़ाई। जिसका वार्षिक खर्च लगभग 40000 रुपए रखा गया। (4) सन् 1909 मे राज्यद्रोह कानून बनाया गया।जिसके अनुसार विद्रोह बहुत बड़ा अपराध माना गया। (5) खास पट्टी के ग्रामीणों को हतोत्साहित करने के लिए यह प्रथा प्रचलित हुई कि,”सुबह खास पट्टी का नाम लेना अपशुगन होता है।
टिहरी राज्य के पुराने दरबारी बुजुर्गों से बात करने पर इस आशय के संकेत मिलते हैं कि खास पट्टी के विद्रोह को भड़काने मे दरबार के उच्चाधिकारियों का हाथ था। सूत्रों का कहना है कि कन्जरवेटर गैरोला का वेतन 800 रुपए प्रति माह था, क्योंकि दरबार द्वारा पूर्व ब्रिटिश सेवा से कम वेतन देने की शर्त पर कोई दरबार की सेवाओं को स्वीकार नहीं करता था। उस समय राज्य के सबसे बड़े पद “बजीर “का वेतन 200रुपए प्रति माह था। इससे कन्जरवेटर की आय पर सबकी नजर रहती थी, और अन्य अधिकारी ईर्ष्या करते थे। कहा जाता है कि दरबारी अहलकारों ने वन विभाग के अधिकारियों से द्वेष के चलते स्थानीय ग्रामीणों को मोहरा बनाया। 11 मई 1907 के एक पत्र से संकेत मिलता है जिसमें बजीर मियाँ हरिसिंह व उनके भाई जीतसिंह का विद्रोह को भड़काने में बहुत बड़ा योगदान था। उक्त तथ्यों का विश्लेषण करने से यह भी नहीं कहा जा सकता है कि केवल उच्चाधिकारियों के भड़काने से विद्रोह हुआ। बल्कि सीमांकन से उत्पन्न दिक्कतों के कारण विद्रोह की शुरुआत हुई जिसे दरबार के अधिकारियों ने हवा दी।दरबार के अधिकारियों की इच्छा थी कि वन विभाग के अधिकारी असफल हो जायें। अतः कहा जा सकता है कि खास पट्टी के विद्रोह का बीजारोपण स्थानीय परेशानियों व कष्टों से हुआ था किंतु इसे राज्य कर्मचारियों का अपरोक्ष संरक्षण प्राप्त था, जिस कारण इस विद्रोह को दबाने मे सेना भी असफल रही तथा राजा को ब्रिटिश सरकार से सहायता मांगनी पड़ी व अंत में कूटनीति का सहारा लेकर विद्रोह दबाया जा सका।