November 23, 2024



उत्तराखण्ड की लोककथाएँ

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नवीन डिमरी ‘बादल’  


 डॉ० उमेश चमोला उत्तराखण्ड के साहित्यकारों में कोई अपरिचित नाम नहीं है|


डॉ० चमोला की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘उत्तराखण्ड की लोककथाएँ (खंड -1) पढने का सुअवसर प्राप्त हुआ| जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि यह पुस्तक उत्तराखण्ड के लोकजीवन में व्याप्त कथा –कहानियों का एक ऐसा सुन्दर गुलदस्ता है जिसमें डॉ ० चमोला ने विभिन्न कथा रूपी रंग –बिरंगे पुष्पों को बेहद सलीके से गूंथा है| इस संकलन में छोटी – बड़ी कुल पच्चीस लोककथाएँ हैं| इनमें लेखक की कथा शैली द्वारा उत्तराखण्ड का लोकजीवन निश्छलता के साथ दृष्टिगत होता है| यूँ तो लोकजीवन में व्याप्त कथा – कहानियों का कोई निश्चित कथाकार या कहानीकार नहीं होता और न लोक में व्याप्त कथा – कहानियों में निहित देश, काल, परिस्थिति और पात्रों में समानता या समरूपता| कभी – कभी एक ही कथा या कहानी किसी दूसरे क्षेत्र में देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप होते हुए भी अलग – अलग रूपों में विद्यमान रहती है| 


किसी समाज में व्याप्त कथा – कहानियां तो उस समाज में संस्कृति की तरह रची – बसी होती है और पीढी दर पीढी बुजुर्गों द्वारा हर नई पीढ़ी के लिए सुनाई जाती रही है| हर नई पीढी ने उन कथा –कहानियों को अपने से पूर्व श्रोताओं की तरह अपने मन मष्तिष्क में ऐसा अंकित कर लिया होता है कि वे भी इसे पूर्वजों की भांति अपनी नई पीढी को सही – सही रूप में ठीक उसी प्रकार सुना पाते हैं जैसा कि उन्होंने सुना था| इसी प्रकार ऋषि – मुनियों ने श्रुतियों को सुनकर और सुने को ठीक – ठीक याद रखकर हर आने वाली नई पीढी को हस्तान्तरित कर उसे आज तक जिन्दा रखा था| भले ही आज हमने उस याद रखे को संकलित कर अपने शब्दों में लिख और अभिव्यक्त कर छाप दिया है| ठीक ऐसे ही बुजुर्गों द्वारा सुनाई गयी लोककथाओं और कहानियों को डॉ० चमोला ने सुना और उन्हें याद रखा| फिर अपने शब्दों में उन कहानियों को ढालने का अनूठा प्रयास किया| इससे विलुप्ति के कगार पर खड़ी ये लोककथाएँ डॉ ० चमोला के शब्दों और शैली का अमृतपान कर पुन: जी उठी हैं और उत्तराखण्ड की लोककथाओं के एक आकर्षक संकलन के रूप में आज हमारे सामने है|

उत्तराखण्ड गढ़वाल और कुमाऊ मंडलों का क्षेत्र है| इन दोनों मंडलों की प्राचीन समय से ही अपनी – अपनी निश्चित बोलियाँ हैं| डॉ ० चमोला की यह पुस्तक हालाँकि हिन्दी में ही लिखी गई है लेकिन बहुत सारी कथाओं में उन्होंने उत्तराखण्ड की स्थानीय बोलियों के शब्दों को भी पिरोया है| इस कारण यह पुस्तक हिन्दी भाषा के शब्दकोष में भी वृद्धि करने में सहायक सिद्ध होगी| संकलन में पिरोई गई प्रत्येक लोककथा पाठक को उत्तराखण्ड के परिवेश से जोड़ने में भी सफल हैं| साथ ही इस संकलन में बहुत सी लोककथाएँ ऐसी भी हैं जो पाठकों को हँसा – हँसा कर लोट पोट कर देती है| पुस्तक का मुखपृष्ठ ख्यातिलब्ध चित्रकार डॉ० संजीव चेतन द्वारा बनाया गया है जो कि उत्तराखण्ड के पारिवारिक परिवेश का यथार्थ चित्रण है| प्रिंटिंग भी सुन्दर है| आशा है पाठकगण पुस्तक को पढकर उत्तराखण्ड के जन जीवन एवं ग्रामीण परिवेश से परिचित होंगे तथा इन लोककथाओं का आनंद लेंगे|


पृष्ठ -८४  मूल्य १२५ रु०

प्रकाशक – विनसर पब्लिशिंग कम्पनी देहरादून, उत्तराखण्ड




 

उत्तराखण्ड की लोककथाएँ (खंड दो)

दिनेश सिंह रावत       

लोककथाएँ, लोकगाथाएं, लोकगीत व संगीत लोकसाहित्य के अभिन्न अंग हैं| लोकसाहित्य वास्तविक जीवन का वह सच्चा दस्तावेज होता है जो लोकजीवन की सच्ची व यथार्थपूर्ण तस्वीर प्रस्तुत करता है| लोकसाहित्य के माध्यम से लोकजीवन से जुडी तमाम परंपराओं, आस्थाओं, मान्यताओं, विश्वासों, रीति – नीति, लोकाचार, पारस्परिक संबंधों व विभिन्न प्रकार की चिंतन धाराओं का स्पष्ट और विश्वसनीय विवरण प्राप्त होता है| पैत्रिक संपत्ति के रूप में वर्षों से चलती आ रही इन्हीं लोककथाओं, लोकगाथाओं व लोकगीतों से हमें लोक ह्रदय भावना और संस्कार प्राप्त होते हैं परन्तु वर्तमान में जारी वैश्वीकरण की आबो हवा के फलस्वरूप लोकजीवन पर संकट के मेघ मंडराने लगे हैं जिससे लोकसाहित्य का प्रभावित होना स्वाभाविक ही है| ऐसे में लोकसाहित्य को बचाना एक चुनौतीपूर्ण एवं आवश्यक कार्य बन गया है| इसे लेकर समाज का सजग एवं चिंतनशील वर्ग निरंतर प्रयासरत है| लोकसाहित्य के अस्तित्व की इस चुनौती को स्वीकारने वाले साहित्य साधकों में एक नाम डॉ० उमेश चमोला के रूप में प्रमुखता से शामिल है जिनका हालिया प्रकाशित लोककथा संग्रह ‘उत्तराखण्ड की लोककथाएँ (खंड दो ) के रूप में सामने आया है| पुस्तक की विशिष्टता को उदघाटित करते हुए मोहनलाल बाबुलकर जी लिखते हैं – ‘बहुत से विद्वानों ने इससे पूर्व गढ़वाल, पहाड़, जौनपुर, जौनसार और कुमाऊँ आदि के नामों से लोककथाओं के संग्रह प्रकाशित किए है| डॉ० उमेश चमोला की ये कथाएँ संयुक्त नाम से प्रकाशित हैं| ’’ इन्हें श्री बाबुलकर नई उपलब्धियां मानते हैं|

संग्रह में शामिल लोककथाएँ अपने अतीत का स्वर्णिम एहसास लिए हुए हैं| संग्रह की कथाएँ हमें कुछ पलों के लिए पुन: वहीं पहुंचा देती हैं जहाँ पर हम वक्त के साथ बालपन की वो सारी सुनहरी यादें व खुशनुमापन छोड़ आए हैं| जब हम दादा – दादी, नाना – नानी के आंचल से लिपटकर ये कहानियां सुना करते थे| यदि यह कहा जाय कि चमोला जी ने हमें एक बार पुन: हमारी खोती विरासत लौटा दी तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| ये लोककथाएँ लोक का सीधा, सच्चा, सहज और सरलतायुक्त चित्र उकेरने में सफल दिखाई देती है| कहानियों में भरा हुआ वैज्ञानिक पुट पाठकों को तर्क, चिंतन, विवेचना और विश्लेषण जैसे वैज्ञानिक चिंतन की क्षमता को विकसित करता है| संग्रह की पहली कहानी ‘गण-गण रोटी ‘ को ही देख लेते हैं – ‘गण –गण रोटी पंडित बन्यूँ, पैंसा नाज खूब लायुं, पर आज चकमंद ह्वेगी, पिटन्गा छोरो निरैणु ऐगी| ’ देवलु के पिता का नाम पिटन्गा था| उसने अपने लिए कहा था कि पिटन्गा के बच्चे की मौत आने वाली है| देवलु का कहा सुनते ही राजा वीरसेन ने अपनी मुट्ठी खोलते हुए कहा, “ तुम ठीक कह रहे हो| पिटन्गा के बच्चे की मौत आने वाली है| देखो मेरी मुट्ठी में पिटन्गा अर्थात् टिड्डी का बच्चा है| मतलब सीधे और सच्चे व्यक्ति की भगवान भी मदद करता है |

लोकजीवन कितना सीधा और सच्चा होता है संग्रह की कहानी ‘ह्यूंद के लिए’ इसकी बानगी है| ह्यूंद (शीत) एक ऋतु होती है| सुदीप अपनी पत्नी मेदिनी के लिए इसी ऋतु के आगमन की तैयारी हेतु रजाई,  कम्बल इत्यादि सामान खरीदने जाता है| मेदिनी पूछती है कि तुम यह सब किसके लिए कर रहे हो ? तो वह कहता है कि वह यह सब ह्यूंद के लिए लाया है| कोई व्यक्ति उनके इस वार्तालाप को सुन लेता है और इसी का फायदा उठाकर सुदीप के ड्यूटी पर चले जाने पर वह मेदिनी के पास जाता है और यह कहकर कि वही ह्यूंद है| वह मेदिनी का जुटाया हुआ पूरा सामान रख लेता है| चूँकि मेदिनी इतनी भोली होती है कि वह समझ नहीं पाती है कि ह्यूंद ऋतु है या कोई व्यक्ति ? इसलिए सारा सामान उसे सौंप देती है| संग्रह की कहानी ‘जय घोघा माता‘ के माध्यम से लेखक जहाँ एक ओर उत्तराखण्ड के लोकपर्व ‘फूलदेई’ की अवधारणा को कुशलतापूर्वक स्पष्ट कर जाते हैं वहीं प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन का स्वस्थ सन्देश भी दे जाते हैं |

माँ की महत्ता को यद्यपि कभी नकारा नहीं जा सकता है परन्तु वर्तमान व्यवस्था के भंवर में फंसा व्यक्ति इतना स्वार्थी और आत्मकेंद्रित हो गया है कि उसके पास माता –पिता तक के लिए भी वक्त नहीं है| जीते जी उन्हें उपेक्षित रखकर मरनोपरांत क्रिया कर्म के नाम पर नाना प्रकार के आयोजन करना सिवाय लोक दिखावे और पाखण्ड के कुछ भी नहीं है| ऐसे लोगों को सजग करने के लिए ये पंक्तियाँ कही गयी हैं – ‘पैलि कर अपणि ब्वेकु लता, तब कर सत्य नारायण की कथा’| इसे लेखक ने कहानी के माध्यम से कुशलतापूर्वक स्पष्ट किया है| कहानी ‘तप का प्रकाश’ रिश्तों की महत्ता को बेहतरीन ढंग से विश्लेषित करती है. इस प्रकार सार रूप में कहा जा सकता है कि संग्रह में शामिल लोककथाएँ रोचक, संदेशपरक, ज्ञानवर्धक, शिक्षाप्रद व मनोरंजन से पूर्ण होने के साथ-साथ रीति – नीतिपरक भी हैं जो दिग्भ्रमित समाज का  पुण्यपथ प्रशस्त करने में सफल दिखाई देती है| लोककथाओं को सरल, सहज व सुसंगत ढंग से शब्दों की माला पिरोने का कुशल श्रम. डॉ० चमोला जैसे कुशल शब्दशिल्पी, बालमन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा लोक की गहरी समझ रखने वाले बिरले जन ही कर सकते हैं| कहानियों की यही विशेषता पाठकों को अंत तक बांधे रखती है और पुस्तक को संग्रहणीय एवं मननीय बनाती है| उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में बिखरे लोककथा रूपी मोतियों का संग्रह कर पुस्तकाकार रूप में सामने लाने का यह एक अनुपम प्रयास है जिसे आगत समाज सहजतापूर्वक सहृदय स्वीकार करेगा| पुस्तक का प्रकाशन अखिल ग्राफिक्स बिजनौर (उत्तर प्रदेश) / हल्द्वानी (उत्तराखण्ड) द्वारा किया गया है जिसका मूल्य १५० रु निर्धारित किया गया है|